मन्दिरों में प्रतिमा निर्माण से पहले पत्थरों की परीक्षा की जाती है। मयमतम्, अग्नि पुराण और सूत्रधार-मण्डन जैसे ग्रंथों में पत्थरों की जांच के लिए नियम लिखे गए हैं। देवता मूर्ति प्रकरण के अनुसार पाषाण को तीन प्रकार में वर्गीकृत किया जाता है। पुंशिला, स्त्रीशिला और नपुंसक शिला!
पुंशिला: “गजघंटारवाघोषा:”
जिस पत्थर से ‘गजघंटारवाघोषा’ अर्थात् हाथी के गले में बंधी घंटी जैसी मधुर आवाज उठती है उसे पुंशिला कहते हैं। पुंशिला सम-चोरस होती हैं और देवालयों के गर्भगृहों में स्थापित विग्रहों तथा शिवलिंग निर्माण में इसका उपयोग किया जाता है।
स्त्रीशिला: “कांस्यतालसमध्वनिः”
‘कांस्यतालसमध्वनिः’ कांसे जैसी ध्वनि उत्पन्न करने वाले पत्थरों का वर्गीकरण स्त्रीशिला के रूप में किया गया है, इनका आकार गोल होता है और सूत्रधार-मण्डन के अनुसार देवी प्रतिमा का निर्माण इससे किया जाता है। यह शिला मूल में स्थूल तथा अग्रभाग में कृश होती है। मानुष लिङ्गों की पीठिका के निर्माण में भी स्त्रीशिला का प्रयोग किया जाता है।
नपुंसकशिला: “स्थूलाग्रं च कृशं मध्यं:”
अनियमित आकार और ‘स्थूलाग्रं च कृशं मध्यं’ अग्र भाग में स्थूल और मध्य में कृश शिला को नपुंसक शिला कहा गया है। नपुंसक शिला का उपयोग ब्रह्मशिला या कूर्मशिला के रूप में देवप्रतिमाओं के आधार/नींव में किया जाता है। इन्हें पादशिला भी कहते हैं।
विविध ग्रंथों में शिला-लक्षण के लिए विस्तृत वर्णन किया गया है। पत्थरों की दिशा, आकार, ध्वनि और रंग जैसे अनेक परिमाणों से शिला परीक्षा की जाती है।
मयमतम्, काश्यप-शिल्प और अग्नि पुराण जैसे ग्रंथों में पत्थरों को बाल, यौवना और वृद्धा जैसी श्रेणियों में भी वर्गीकृत किया गया है।
हिन्दू मन्दिरों का अभ्यास इतना रसप्रद है कि इनका अभ्यास करते हुए हम हमारे प्राचीन मंदिरों के पत्थरों से एक प्रकार का आध्यात्मिक प्रेम करने लगते हैं…!
बहुत ही ज्ञानप्रद लेख।
आपके इस सार्थक लेख से लोगो को रोचक जानकारी प्राप्त होगी। धन्यवाद
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