तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥
गांँव में रामलीला मंचन की प्राचीन परंपरा रही हैं। जब मैं रामलीला शब्द का प्रयोग कर रहा हूंँ तो यहांँ रामलीला का अर्थ राम जी के जन्म से लेकर रावण वध तक की लीलाओं के मंचन से नही बल्कि केवल ‘धनुष भंग’ प्रसंग के मंचन से है।
धनुषभंग अर्थात ‘धनुषयज्ञ’ एक रात्रि का कार्यक्रम है जो कि कोरस से शुरू होकर जनक प्रतिज्ञा, विश्वामित्र सहित राजकुवरों का मिथिला आगमन, जनक भेंट, रावण वाणासुर संवाद, धनुष भंग, सीता विवाह के उपरांत लक्ष्मण परशुराम संवाद से समाप्त हो जाता है। कानपुर के आसपास यानी बुंदेलखंड में ‘धनुषजज्ञ’ अति प्रचिलित एवम् लोकरंजन का प्रमुख नाट्यकर्म है।
इधर कुछ वर्षो में थोड़ा कम लेकिन कुछ वर्षो पहले तक वर्ष में चार पांँच बार रामलीला का मंचन होता ही था। लीला दर्शन के रसिक तो दो चार मील चलकर दूसरे गांँवो में भी रामलीला देखने जाते थे।
बचपन से लेकर अबतक रामलीला की कई स्मृतियांँ मन में दर्ज है। नववर्ष के आगमन पर 31 दिसंबर की रात को हाड़ कपाती ठंड में बैठकर पूरी रात लीलादर्शन चलता रहता था। अभी भी यह कार्यक्रम प्रत्येक वर्ष अनवरत जारी है।
यह रामलीला मंचन का ही प्रभाव है कि मेरे गांँव को ‘कलाकारों का गांँव’ कहकर लीलाजगत के लोग प्रतिष्ठित करते है। राम, परशुराम, रावण, जनक सहित अनेकानेक पात्र गांँव में हुए जिन्होंने पूरे उत्तर भारत में ख्याति प्राप्त की।
धनुषयज्ञ के अनेक प्रसंगों में दो प्रसंग लोक द्वारा सबसे अधिक पसंद किए जाते है उनमें से एक है ‘रावण वाणासुर संवाद’ और दूसरा है ‘लक्ष्मण परशुराम संवाद’. इन दोनो प्रसंगों में भी जो लोक को सबसे ज्यादा पसंद आता है वो है राजकुंवर लक्ष्मण और ऋषि परशुराम के बीच की तीखी नोकझोक।
पूरी रात का मंचन एक ओर तो वही केवल इस प्रसंग की समयावधि व श्रेष्ठता दूसरी ओर। भोर में धनुष भंग से उठे भीषण नाद के कारण महेंद्राचल पर समाधिस्थ परशुराम के समाधिभंग से शुरू होने वाला यह प्रसंग कई घंटो के शास्त्रार्थ, वीररस पूर्ण वाक्युद्ध के उपरांत दिन के मध्यकाल में समाप्त होता है।
कई बार तो छः से आठ घंटो तक लक्ष्मण परशुराम संवाद चलता है। दशहरे आदि अवसरों पर होने वाली रामलीला में भी लक्ष्मण परशुराम संवाद होता है लेकिन बमुश्किल कुछ मिनटों का जबकि इस तरह के लीला मंचनो में यह संवाद कई बार दो से तीन पहर तक चलता है।
वेद, पुराण, ब्राह्मण ग्रन्थ, श्रीमद भगवद्गीता, रामचरित मानस, राधेश्याम रामायण के अतिरिक्त लोक के अनेकों रचनाकारों द्वारा लिखे अथवा बोले गए साहित्य के आधार पर दोनो विद्वानों (लक्ष्मण और परशुराम) में शास्त्र पर तर्क वितर्क होते है।
जैसे बाबा तुलसीकृत रामचरितमानस में नवरस विद्यमान है उसी प्रकार लोक के कलाकारों में केवल इस प्रसंग में ही लीला रसिको को श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शांत रसों से सिक्त कर देते है। यहांँ सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि इन भूमिकाओं को निभा रहे लोग संगीत मर्मज्ञ भी होते है।
लक्ष्मण और परशुराम की भूमिका का निर्वहन शास्त्रों एवम् लोकसाहित्य को कंठस्थ किए विद्वानों द्वारा किया जाता है। परशुराम अर्थात अनुभव, गंभीरता एवम् ज्ञान तो वही लक्ष्मण अर्थात चंचलता, वक्रता एवम् ज्ञान। अद्भुत होता है दो धाराओं का संवाद, दो भावों का संवाद, दो भक्तो का संवाद और सबसे महत्त्वपूर्ण एक ब्रह्म के दो अवतारों का संवाद।
जिसे लोक और शास्त्र के समन्वय को समझना हो तो उसे कानपुर के आसपास के जिलों में होने वाली रामलीला के ’लक्ष्मण परशुराम संवाद’ को अवश्य सुनना चाहिए।
एक ही मंच पर कैसे केवल अक्षर ज्ञान पाया हुआ कौमिक और संस्कृत आदि भाषाओं के आचार्यत्व प्राप्त किए हुए राम और लक्ष्मण की भूमिका निभाते पात्र लोक को मनोरंजन के साथ नीति, भक्ति, कर्म का ज्ञान देते है यह देखना और जानना आज के युवाओं के लिए अतिआवश्यक है।
साहित्य के अध्येताओ को ऐसे इन मंचो पर जाकर लोक साहित्य में अवश्य डुबकी लगानी चाहिए ताकि उनके सामने साहित्य की एक अलग दुनिया खुल सके जो लोक को जीवन जीने के सूत्र देती है। कर्म के सिद्धांत का पालन करना सिखाती है। भक्ति के सागर में गोते लगाना सिखाती है तो वही नीति की उंगली पकड़ जीवन के दुर्गम पथ पर चलना भी सिखाती है।
रसों में आनंद खोजने वाले रसिकों के लिए यह किसी रससागर के कमतर नहीं है जिसमें उनके तन और मन को अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है।
दोनों भौंहें हो रहीं कुटिल, मानों दो धनु हैं उठे हुए।
लोचन हैं ऐसे लाल-लाल, जनु अग्नि-बाण हैं चढ़े हुए॥
तन का प्रकाश, तप का प्रभाव, सारे समाज पर छाया है।
मानों मुनियों का वेष धार, साक्षात् वीर रस आया है॥
» तस्वीर में भगवान परशुराम की भूमिका में संस्कृत के आचार्य रामजी शुक्ला शोभित है। परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएंँ। यह तस्वीर गांँव में हुई पिछले वर्ष की रामलीला का है।