देवताओं का गुणों के प्रकार से वर्गीकरण करें तो भैरव की प्रकृति तामसिक मानी जाती है। पुरातत्व उत्खननों में भारत के लगभग सभी प्रदेशों से भैरव के विग्रह प्राप्त हुए हैं और आज भी देश में अनेकों मंदिरों में भैरव का प्रमुख देवता के रूप में स्थापन अनुष्ठान किया जाता है।
शैव एवं शाक्त संप्रदाय के तंत्र विभाग के देवता होने के बावजूद भैरव सामान्य जनमानस में ओतप्रोत हैं और लोग पूर्ण निष्ठा से भैरव मंदिरों में दर्शन पूजन के लिए जाते हैं।
भगवान शिव, काली तथा हनुमान जी को समर्पित मंदिरों में भी भैरव की प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया जाता है। इस तरह से देखें तो भी भैरव आम-जन के देवता हैं।
भैरव की कथा विविध प्रकार के पौराणिक ग्रन्थों में अलग अलग तरह से कही गई है इसके अतिरिक्त उनके विग्रहों के प्रकार तथा विशिष्टताओं का वर्णन भी आगम ग्रंथों में प्राप्त होता है और इस लेख शृंखला में हम इन्हीं कथाओं तथा विग्रहों की वैविध्यता पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे!
ब्रह्माजी ने समस्त सृष्टि का निर्माण किया और रूद्र को पृथ्वी की रक्षा के लिए नियुक्त किया। ब्रह्माजी अपनी ही बनाई रचना पर गर्वित थे, अहंकार के मद में चूर ब्रह्माजी का पाँचवा मस्तक अपने निर्माण को देखता और स्वयं की ही प्रशंसा करता।
ब्रह्माजी ने अपने इस पाँचवे मस्तक का निर्माण ही इसीलिए किया था कि वह अपने निर्माण पर गर्व कर सकें, ब्रह्माजी के गर्व का खंडन करना हो तो उनके धड़ से इस मस्तक को अलग करना पड़ता लेकिन यह भीषण कार्य कौन करता?
ब्रह्माजी के इस अहंकार को समाप्त करना आवश्यक था, सृष्टि की रक्षा का दायित्व रूद्र के कंधों पर था तो यह कार्य भी उन्हें ही करना था। उन्होंने अपने बाएँ अंगूठे के तीक्ष्ण नाखून से ब्रह्माजी का पाँचवा मस्तक काट दिया।
हालाँकि यह मस्तक अहंकार का प्रतीक था और अहंकार किसी भी रूप में आपसे जुड़ा हो उससे मुक्ति पाना इतना आसान नही होता। रूद्र ने ब्रह्माजी को गर्वहीन कर दिया लेकिन यह अब वही गर्व उनके हथेली पर जा चिपका।
रूद्र सजग थे, उन्हें पता था कि इस प्रतीक से मुक्त होना होगा। रूद्र ने ब्रह्माजी से इसका उपाय पूछा, तब ब्रह्माजी बोले, “महेंद्रगिरि पर्वत पर बारह वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात रूद्र को इस मस्तक से मुक्ति मिलेगी।”
ब्रह्माजी के आदेश का पालन करते हुए रूद्र ने गले में अस्थि माला धारण कर ली, केश से बना यज्ञोपवीत और भस्म का शृंगार कर कापालिक का रूप धर लिया। उनके एक हाथ में ब्रह्माजी के मस्तक रूपी खप्पर था।
कठोर जीवन का निर्वहन करते हुए रूद्र ने बारह वर्षों तक तीर्थाटन किया और अंततः काशी क्षेत्र में उन्हें ब्रह्माजी के उस मस्तक से मुक्ति मिली।
काशी में जिस स्थान पर ब्रह्माजी का पाँचवा मस्तक गिरा उस स्थान को आज भी कपाल-मोचन के नाम से जाना जाता है। रूद्र की तपस्या पूरी हुई और उन्होने गंगा में स्नान किया, काशी में विश्वेश्वर की पूजा की और कैलाश वापस लौट आए।
ब्रह्मशिरच्छेदक रूद्र के उपरोक्त कापालिक रूप का वर्णन और कथा वराह पुराण का एक भाग है। वराह पुराण के अतिरिक्त कूर्म पुराण तथा शिव महापुराण जैसे ग्रन्थों में भी भैरव का वर्णन किया गया है जिसके विषय में हम आने वाले भागों में चर्चा करेंगे।
ब्रह्मशिरच्छेदक रूद्र का विग्रह कैसा हो इस विषय में भी श्रीतत्वनिधि में निम्नलिखित वर्णन मिलता है। रूद्र के इस विग्रह की व्याघ्रचर्म धारी प्रतिमा धवल सफेद रंग की होनी चाहिए, प्रतिमा के त्रिनेत्र, चार भुजाएँ और मस्तक पर एक जटामकुट चित्रित किया जाना आवश्यक है।
गौरवर्ण त्रिनेत्रं च जटामौलिविराजितम् ।
ताटङ्कं कुण्डलं सव्यवामश्रुत्योश्च बिभ्रतम् ॥
व्याघ्रचर्माम्बरधरं चतुर्भुजसमन्वितम् ।
वज्रं परशुपूर्वांसं वामे ब्रह्मकरोटिकम् ॥
अपरे शूलहस्तं च शेषं पूर्वोक्तवत्कुरु ।
दाहिने हाथ में वज्र/परशु और बाएं हाथ में ब्रह्माजी का पांचवा मस्तक खप्पर के रूप में दर्शाया जाना चाहिए। इसके उपरांत भैरव विग्रहों के विविधतम प्रकारों का विस्तृत वर्णन भी आगम के रूपमण्डन तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराण जैसे अन्य ग्रंथों में किया गया है जिसके विषय में चर्चा आने वाले अंकों में की जाएगी।
जय भैरव बाबा की