सन १९०७, ब्रिटिश राज का समय काल।
स्थान: चमोली, उत्तराखंड

बर्फाच्छादित पहाड़ों एक फिरंगी डॉक्टर का आगमन हुआ। व्यवसाय से डॉक्टर होने के बावजूद वह एक साहसी पर्वतारोही के रूप में भी प्रसिद्ध था और शायद इसी कारण तत्कालीन वाइसरॉय मिन्टो ने उसे इस कार्य के लिए चुना था।

वाइसरॉय मिन्टो

सशक्त और ऊँची कदकाठी के इस पर्वतारोही ने चमोली जिले के उत्तुंग शिखरों का आरोहण आरंभ किया। वह पहाड़ों पर चढ़ता और क्षितिज पर धरती के अंतिम छोर तक देखता रहता। आख़िर क्या ढूँढ रहा था वह?

यह वो समय था जब प्रथम विश्वयुद्ध की चिंगारी भड़काने के लिए समय को बस मौके की तलाश थी। रूस की त्झार सरकार भारतवर्ष में प्रवेश करने के लिए आतुर थी। ब्रिटिश साम्राज्य को यह भनक लग चुकी थी।

उत्तराखंड के इन शिखरों से तिब्बत में हो रही हलचल का मुआयना लेना आसान था और इसी कार्य के लिए पर्वतारोही डॉक्टर टॉम ज्यॉर्ज लांगस्टाफ को गुप्त रूप से नियुक्त किया गया था। यूरोप की अजेय मानी जाने वाली आल्प्स पर्वत शृंखला पर विजय प्राप्त कर चुके लांगस्टाफ के सामने हिमालय चुनौती बन कर खडा़ था।

डॉ लांगस्टाफ के अलावा वाइसरॉय मिन्टो ने अन्य पर्वतारोहियों को भी तिब्बत, नेपाल और चीन पर नज़र रखने के लिए नियुक्त किया हुआ था। पीर पंजाल और काराकोरम के शिखरों पर भी ब्रिटिश आँखें तैनात थी।

चीन और तिब्बत के मार्ग पर हो रही सैन्य व जासूसी हलचल का ब्योरा दिल्ली दरबार तक पहुँचाना उसका मुख्य कार्य था। किन्तु डॉ लांगस्टाफ भी यह नहीं जानता था कि भारत के हिमाच्छादित शिखरों पर कौनसा भयावह रहस्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा है!

दिल्ली से रानीखेत की यात्रा सुगम थी लेकिन उसके पश्चात लोहाज़ंग से होते हुए वान गाँव तक का रास्ता दुर्गम था। डॉ लांगस्टाफ अपने तीन भारतीय मजदूरों के साथ जब वहाँ पहुँचा तब उसके सामने त्रिशूल प्रथम, त्रिशूल द्वितीय और त्रिशूल तृतीय नाम से पहचाने जाने वाले तीन शिखर उसकी राह रोके खड़े थे।

नंदादेवी के इस प्रदेश को भगवान शिव और उनके परिवार का क्षेत्र माना जाता है।

इन तीनों शिखरों में से सबसे उत्तुंग था “त्रिशूल प्रथम” और इसीलिए डॉ लांगस्टाफ ने उसका आरोहण करने का निश्चय किया। यह तो सर्वविदित है कि पर्वतों का आरोहण कठिन होता है और अवरोहण आसान लेकिन लांगस्टाफ के लिए त्रिशूल प्रथम शिखर का अवरोहण कठिन होने वाला था।

त्रिशूल पर्वत शृंखला के तीन शिखर

डॉ लांगस्टाफ के पीछे उसके सामान का बोझ ढो रहे पहाड़ी भारतीय मजदूरों के लिए भी यह अवरोहण नया अनुभव बनने वाला था। दुर्गम माने जाते त्रिशूल शिखरों के पीछे वह लोग कभी नहीं गये थे। उन्हें नहीं पता था कि पर्वतों की दूसरी तरफ़ क्या था जो उनकी प्रतीक्षा कर रहा था!

अवरोहण करते हुए डॉ लांगस्टाफ ने देखा कि उसके सामने अस्थिपिंजर पड़े हुए थे। एक दो नहीं, सैंकड़ों की संख्या में इन कंकालों को देख कर लांगस्टाफ का माथा भन्ना गया।

बारीकी से अवलोकन करते हुए उसने पाया कि इन कंकालों की स्थिति बिलकुल भी वैसी नहीं थी जैसी अमुमन पहाडों पर जान गँवाने वालों के कंकालों की होती है। एक जगह ऐसी थी जहाँ खोपड़ियों का ढेर लगा हुआ था तो दूसरे स्थान पर टांगों की हड्डियों को जमा किया गया था। कुछ हड्डियां ऐसे ही बिखेर दी गई थीं तो कुछ हड्डियों को सुव्यवस्थित ढंग से सजाया गया था।

यह क्या जगह थी? किसके थे यह कंकाल? कितने वर्ष पुराने थे इनके अवशेष? किसने किया था इनका संहार? क्या सैंकड़ों लोग बर्फ़बारी में मारे गये थे? यदि ऐसा था तो क्या प्रकृति ने उनके कंकालों से अंगों की हड्डियों को श्रेणीबद्ध कर के रखा था?

क्या यहाँ कोई भीषण युद्ध हुआ था और यह सभी वीरगति को प्राप्त कर चुके योद्धाओं के अवशेष थे? नहीं यह भी संभव नहीं था, इन अस्थिपिंजरों में कुछ कंकाल शिशुओं के भी थे, आख़िरकार कोई बालकों को युद्ध में क्यों ले आयेगा भला?

सुव्यवस्थित ढंग से पहाड़ पर पाये गये इन कंकालों का आँखोदेखा ब्योरा डॉ लांगस्टाफ ने दिल्ली लिख कर भेज दिया लेकिन दमनकारी ब्रिटिश सरकार को इन कंकालों का रहस्य जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। लांगस्टाफ का पत्रव्यवहार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया लेकिन कहानी यहाँ समाप्त नहीं हुई, यह भयानक कंकालों तक पहुंचने वाला डॉ लांगस्टाफ एकमात्र व्यक्ति नहीं था।

Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x