सन् १९४५, नवम्बर या दिसम्बर का एक दिन। मुंबई के तटवर्ती इण्डियन रॉयल नेवी के ठिकाने एमएमआईएस तलवार पर नीरव शांति पसरी हुई थी। सर्दियों की शुरुआत का खुशनुमा मौसम और समुद्र तट की हवा का आह्लादक अनुभव लेते हुए करीब इक्कीस वर्ष का टेलिग्राफर ड्यूटी पर तैनात था।
तभी टेलिग्राफ कक्ष में आगंतुक ने प्रवेश किया। टेलिग्राफर के चेहरे पर आनंद की रेखाएं उभरीं। आगंतुक का नाम सलिल शरण था और वह कुछ वर्ष मलाया में गुजार कर वापस स्वदेश लौटा था। वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के मलाया में किए गए पराक्रमों का भी साक्षी रह चुका था।
दोनों मित्रों में बातचीत शुरू हुई। आज़ाद हिन्द फौज के कारनामों का वर्णन सुनकर युवा टेलिग्राफर का गर्म खून उबालें मारने लगा लेकिन पराकाष्ठा की घड़ी तब आई जब सलिल ने उसे दिवास्वप्न में डूबे जवाहर लाल नेहरू को जगाने के लिए सुभाष बाबू ने लिखे पत्र की प्रति दिखाई।

सुभाष बाबू ने कहा था कि “कायरतापूर्ण विजय से लाख गुना बेहतर है शौर्यपूर्ण पराजय!” सलिल की बातें सुनकर टेलिग्राफर की रगों में कुछ कर गुजरने की तीव्र भावना दौड़ने लगी। शायद यही वह क्षण था जब उसने विद्रोह का मन बना लिया था। इस युवा टेलिग्राफर का नाम था ‘बलाई चंद्र दत्त’
अंग्रेजों की रॉयल इण्डियन नेवी के सिपाहियों के पास विप्लव करने के पर्याप्त कारण थे। उनके दिलों में विरोध का बारूद भरा हुआ था, आवश्यकता थी तो बस एक चिंगारी की।
दोनों ही विश्वयुद्ध में भारतीयों ने अपने शौर्यपूर्ण पराक्रमों से अंग्रेजी सरकार के मस्तक पर कीर्ति-मुकुट स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी किन्तु कृतघ्न अंग्रेजों ने इसके बदले में भारतीय सिपाहियों को तिरस्कार और घृणा के अलावा कुछ नहीं दिया था।
बलाई चन्द्र दत्त इन सभी अन्यायों का साक्षीदार रहा था। निष्ठावान भारतीयों को विश्वयुद्ध से पूर्व बड़े बड़े वायदों से सेना में भर्ती किया गया था लेकिन गर्ज सरी और वैद्य बैरी की लोकोक्ति के अनुसार युद्ध समाप्त होने के बाद यह भारतीय सिपाही अंग्रेजों की आंखों में खटक रहे थे।

अंग्रेजों के विरुद्ध भरा हुआ अग्नि दिन-ब-दिन ज्वालामुखी बनता जा रहा था और वह किसी भी समय स्फोटक रुप धारण कर सकता था। विशाखापट्टनम, कलकत्ता, मुंबई और कराची के बंदरगाहों पर अंग्रेज सैन्याधिकारी और भारतीय सिपाहियों में तनातनी होना आम बात हो चुकी थी।
***
सन् १९४५, दिसम्बर का पहला दिन। एचएमआईएस तलवार को आम जनता के लिए प्रदर्शित करने का आयोजन किया गया था। बलाई चन्द्र दत्त और उनके साथी टेलिग्राफ ऑपरेटर आर के सिंह ने इस अवसर का भरपूर लाभ लिया। अंग्रेजों द्वारा भारतीय सिपाहियों पर किए जाने वाले अन्यायपूर्ण व्यवहार को प्रजा जनों तक पहुंचाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिल पाता।
दोनों टेलिग्राफ ऑपरेटरों ने बंदरगाह पर “Quit India” और “Kill the British” के पोस्टर लगा दिए। रॉयल इण्डियन नेवी के ध्वज को फाड़ कर गोदी की कचरा पेटी में फेंक दिया। इन दोनों युवा टेलिग्राफ ऑपरेटरों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। चिंगारी लग चुकी थी, आग फैलना निश्चित था।
दोनों को गिरफ्तार कर उन पर अशिस्त की धाराएं लगाई गई। जब आर के सिंह से इस प्रकार के व्यवहार की स्पष्टता मांगी गई तब उस गुस्साए युवक ने अपनी बैरट (टोपी) को जमीन पर फेंक दिया और लात मार दी। ब्रिटिश सत्ता के अपमान का प्रथम अध्याय लिखा जा चुका था।
इस घटना के पश्चात सिंह ने इस्तीफा दे दिया। अंग्रेजों के लिए यह धैर्य की परीक्षा थी लेकिन वह लोग नहीं जानते थे कि यह तो बस शुरुआत मात्र थी। असली खेल तो अब शुरू हुआ था।
अंग्रेजों ने समझा कि यह एक छोटी सी घटना है, भारतीयों में विद्रोह की भावना जगाने के लिए यह घटना कोई भूमिका नहीं बना पाएगी और सदैव की भांति उसे भूला दिया जाएगा। लेकिन यह घटना सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज का पुनरुत्थान थी और अब दोनों विद्रोही टेलिग्राफर सुभाष बाबू के गर्वित सिपाही थे।
एक ओर नौसेना के सिपाही अपने अधिकारों के लिए सर उठा रहे थे तो दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू और जिन्नाह जैसे नेता सत्ता प्राप्ति के लिए अंग्रेजों से वार्तालाप कर रहे थे। जिन्ना का ध्येय स्पष्ट था… विभाजन! और नेहरू का भी… सत्ता।
जब दिल्ली में कुटिल अंग्रेज भारत के नेताओं को अपने पीछे दौड़ा रहे थे तब राष्ट्र के तटवर्ती बंदरगाहों पर असंतोष और विप्लव की ज्वाला जल रही थी। इन सिरफिरे देशभक्तों को सत्ता की नहीं स्वतंत्रता की चाहत थी।
***
१९४६, फरवरी, कमांडिंग अफसर आर्थर किंग का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था क्योंकि अत्याचारों से त्रस्त नौसैनिकों ने उसकी कार के बोनट पर “Quit India” लिख दिया था।

भारतीय नौसेनिक बार-बार अंग्रेजी अफसरों की अवज्ञा कर के उन्हें छेड़ते रहते थे। कभी यूनियन जैक फाड़ देते। कभी ‘Quit India’ ‘Revolt Now’ और ‘Kill British’ जैसे स्लोगन और पोस्टर लगा देते। कभी सेल्यूट नहीं करते और कभी तो गुस्से में अंग्रेजों को गाली बक देते।
नौसैनिकों का गुस्सा अकारण नहीं था। विश्वयुद्ध से पूर्व किए गए वचनों से ब्रिटिश शासन ने मुंह फेर लिया था और ऊपर से ब्रिटिश अधिकारी बार-बार भारतीयों का अपमान किया करते। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाहियों के विरुद्ध दिल्ली में चल रही अदालती कार्यवाही का भी गुस्सा स्वाभाविक था।

इस घटनाक्रम को फ्री प्रेस जर्नल के पत्रकारों ने नीडरता से प्रकाशित किया। रात ढलने तक आल इंडिया रेडियो और ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन को भी इस खबर को प्रसारित करने पर विवश होना पड़ा। जनता और नौसैनिकों के गर्म रक्त में इन खबरों से उबाल उठा।
(क्रमशः)
Ref:
- Mutiny of the innocents By B C Dutt
- Safari Magazine (Gujarati Monthly)
- https://indianexpress.com/article/explained/rin-upsurge-when-indian-naval-sailors-rose-in-revolt-against-the-raj-6274531/
- https://swarajyamag.com/columns/the-forgotten-naval-mutiny-of-1946-and-indias-independence