पौराणिक कथा

गणेश पुराणानुसार मिथिला के राजा चक्रपाणि और रानी उग्रा को सूर्य के वरदान से पुत्र प्राप्ति हुई। समुद्र तट पर त्याग दिये गये इस पुत्र का नाम सिंधु रखा गया। सूर्य के वरदान से सिंधु को अमृत का अक्षय पात्र हासिल हुआ था और इसी कारण वह अमरता धारण कर चुका था।

अमरत्व प्राप्त कर चुके सिंधु ने पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल, तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था और सिंधु के अत्याचार से त्रस्त देवगणों ने इस त्रास से मुक्ति के लिए गणेश जी का आह्वान किया।

गुणेश ने मयुर वाहन पर आरूढ़ हो कर सिंधु से युद्ध किया। भीषण संग्राम में उन्होंने सिंधु के सेनापति कमलासुर के तीन टुकड़े कर दिए और सिंधु को मार के उसके शरीर में छुपे अमृत पात्र को निकाल लिया। इस प्रकार से त्रिलोक में सभी को प्रताड़ित करने वाले सिंधु का अंत हुआ।

मयुर वाहन पर युद्ध लडने वाले गणेश जी को मयुरेश्वर नाम से प्रसिद्धि मिली। युद्ध के पश्चात उन्होंने अपने मयुर वाहन को कार्तिकेय को उपहार में दे दिया। मयुरेश्वर के मंदिर के प्रथम निर्माण का श्रेय ब्रह्माजी को जाता है।

एक अन्य कथानुसार इस स्थान की महानता मुद्गल पुराण के छठे खंड में वर्णित है। ऋषि भृशुंडी के कहने पर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शक्ति और सूर्य नाम के पांच देवताओं ने इस स्थान पर अनुष्ठान किया और यहां गणेश पीठ की स्थापना की।

स्थानिक मान्यताओं के अनुसार इस जगह पर मोरों का आधिपत्य होने के कारण इसे मोरगांव और यहाँ स्थित विनायक को मोरेश्वर नाम दिया गया।

पुराण: गणेश पुराण, मुद्गल पुराण

इतिहास और महत्व

यह महाराष्ट्र के साढ़े तीन गणेश पीठों में से एक है। इसे गणपति का आद्य स्थान माना जाता है। मोरगांव क्षेत्र का प्रबंधन चिंचवड़ देव स्थान द्वारा किया जाता है। यहां चिंचवड़ से साल में दो बार गणेश की पालकी आती है। यह चिंचवड़ के महान गणेश उपासक श्री मोर्या गोसावी का जन्म स्थान है।

लोकोक्तियों के अनुसार समर्थ रामदास ने मयूरेश्वर के दर्शन करते हुए इसी जगह पर ‘सुखकर्ता दुखहर्ता’ आरती की रचना की थी जो आज गणेश आराधना में विश्वभर में ख्यात हो चुकी है। गणेश जयंती तथा गणेश चतुर्थी में मोरेश्वर को तोपों की सलामी दी जाती है और उसके पश्चात गांव में गणेश जी की शोभायात्रा का आयोजन होता है।

स्थापत्य तथा भौगोलिक स्थान

मंदिर परिसर में शमी, मंदार, बेल के पेड़ हैं। मंदिर के केंद्र में मयूरेश्वर की बाईं सूंड की मूर्ति है। इस मूर्ति की तीन आंखें हैं और आंखों में हीरे जड़े हैं। मूर्ति के बगल में रिद्धि-सिद्धि की पीतल की मूर्तियाँ हैं।

इस मंदिर स्थापत्य का विशेष लक्षण इसके चारों दिशाओं में स्थित प्रवेशद्वार में देखा जा सकता है।

मंदिर के पूर्व दिशा में प्रवेश द्वार पर बल्लाळेश्वर गणपति के साथ श्री राम तथा माता सीता की प्रतिमाएँ हैं जो धर्म का प्रतिनिधित्व करती हैं।

मंदिर के दक्षिण द्वार पर विघ्नेश्वर अपने माता पिता शिव और पार्वती के साथ स्थित हैं जो अर्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं।

मंदिर के पश्चिमी दरवाजे पर चिंतामणि गणेश काम और भोग के देवता कामदेव तथा रति के साथ विराजमान हैं। स्वाभाविक रूप से यह जीवन के तीसरे पुरुषार्थ काम का प्रतिनिधित्व करते हैं।

मंदिर के उत्तर भाग में प्रवेश करने पर आपको महागणपति मोक्ष का उपदेश देते हुए वराह अवतार और भू देवी के साथ द्रष्टिगोचर होते हैं। और यही मंदिर का मुख्य प्रवेशद्वार भी है।

महाराष्ट्र के स्थापत्य के विशिष्ट लक्षण समान दीपमाला भी यहाँ देखी जा सकती है। मंदिर में नंदी, मूषक तथा कूर्म की प्रतिमाएँ भी हैं। कहा जाता है कि नजदीकी शिव मंदिर से अस्थायी रूप से लाये गए नंदी जी ने बाद में इस स्थान से वापस जाने से मना कर दिया था और उन्हें स्थायी रूप से इसी मंदिर में स्थापित कर दिया गया।

इस मंदिर के सभामंडप में विट्ठल नाथ जी और खंडोबा के साथ महान गणेश भक्त मोरया गोसावी की प्रतिमाएँ भी स्थापित की गई हैं।

Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x