महाराष्ट्र के पाली गाँव में कल्याण नाम के बडे़ व्यापारी अपनी पत्नी ईंदुमती के साथ रहा करते थे। उन्हें गाँव का सफलतम व्यापारी माना जाता था। उनका पुत्र गणेश भक्त था और अपने ही पुत्र की गणेशोपासना से कल्याण क्रोधित होते थे।
एक दिन की बात है। संध्या समय हो चुका था, सूर्य अस्त हो गया था लेकिन बल्लाळ समेत नदी तट पर खेलने गये गाँव के अन्य बच्चे अभी तक घर नहीं लौटे थे। बल्लाळ की संगति में गाँव के सभी बच्चों को गणपति उपासना का रंग लग चुका था।
जब कल्याण को बच्चों की इस प्रवृत्ति का पता चला तो वह गुस्से से आग बबूला हो उठा। उसे लगा कि अपने पुत्र के कारण गाँव के सभी बच्चे बिगड़ रहे हैं। बच्चों को ढूँढते हुए वह नदी तट पर पहुँचा, वहाँ का दृश्य देख कर उसके क्रोध की कोई सीमा ना रही।
नदी किनारे पर एक पत्थर को ही स्वयंभू गणेश प्रतिमा मान के उसका शृंगार किया गया था। बल्लाळ पुष्प, वस्त्र और दीपक से उस प्रतिमा के समक्ष बैठकर गणेश पुराण का पाठ कर रहा था और गाँव के सभी बालक भूख प्यास भुल कर गणेश उपासना में तल्लीन थे।
क्रोध से चिल्लाते हुए कल्याण जब वहाँ पहुंचा तो सभी बच्चे भय के मारे भाग खड़े हुए लेकिन एकनिष्ठ बल्लाळ गणेश जी के सामने अडिग बैठा रहा। यह देख कर कल्याण और भी कुपित हो उठा। उसने पूजा सामग्री को उठा कर नदी में फेंक दिया। स्वयंभू गणेश जी की मूर्ति को खंड खंड तोड़ दिया।
यह सब देख कर बालक बल्लाळ बहुत दुखी था। उसने प्रतिकार किया तो कल्याण ने उसे निष्ठुरता से मार मारते हुए नजदीकी पेड पर रस्सी से बांध के लटका दिया।
“अब देखता हूँ कौन सा भगवान तुम्हें बचाने के लिए आता है?” कहते हुए कल्याण ने अपने पुत्र को भूखे प्यासे मरने के लिए वहीं त्याग दिया।
रात गहराती जा रही थी और बल्लाळ भूखा प्यासा अपने आराध्य का स्मरण कर रहा था। उसे अपने गजानन पर पूरा विश्वास था। तभी भक्तवत्सल गणपति एक साधू के वेश में वहाँ प्रकट हुए और उन्होंने बल्लाळ को पेड से उतारा। उसके घावों पर औषधि का लेप किया और अपनी झोली में से फल निकाल कर उसे खाने को दिये।
बल्लाळ अपने भगवान को पहचान चुका था। उसने गणेश जी को अपने मूल रूप में दर्शन देने की विनती की। बाल बल्लाळ की निर्दोष भक्ति से प्रसन्न हो के भगवान पाली गाँव में सदा के लिए अपने स्वयंभू रूप में बस गये।
इतिहास
वर्तमान काष्ठ से बने बल्लाळेश्वर गणेश मंदिर का निर्माण सन 1640 में छत्रपति शिवाजी महाराज के सरदार मोरेश्वर विट्ठल दिघे ने कराया था। बाजीराव पेशवा के भाई चिमाजी अप्पा ने वसई अभियान की सफलता के पश्चात पंचधातु के घंट का उपहार दिया था।
बल्लाळ ने जिस मूर्ति का नदी किनारे अनुष्ठान किया था वह आज धुंडीराज गणेश के नाम से प्रसिद्ध है और बल्लाळेश्वर गणपति से पहले इस विग्रह के दर्शन का महत्व माना गया है।