हिन्दू मंदिरों में देवी देवताओं के शिल्पों को हम दो मुख्य विभागों में वर्गीकृत कर सकते हैं; वैदिक देवता और पौराणिक अवतारों की कथाओं के शिल्प। पौराणिक अवतारों के जीवन लीला के प्रसंगों के अनुसार इनमे काफी वैविध्य देखा जाता है। इन कथाओं में सबसे अधिक लीलाधारी अवतार निसंदेह ही श्रीकृष्ण का है इसलिए कृष्ण की प्रतिमाओं में विविधतासभर प्रकारांतर होता है। चलिए कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर आज बालकृष्ण के ऐसे ही तीन स्वरूपों को मंदिर कला के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।
वेणुगोपाल कृष्ण
वेणुगोपाल उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक भारत के सभी प्रदेशों के लोगों के पसंदीदा हैं। इस प्रतिमा में मेघवर्णी श्यामसुन्दर अपने प्रिय गोप-गोपियों से घिरे होते हैं। वृक्षों से आच्छादित पृष्ठभूमि में गायों तथा बछड़ों को दिखाया जाता है। दोनों हाथों में कलात्मक रूप से बांसुरी धारण किए कृष्ण के अधरों पे मंद मंद मुस्कराहट होती है तथा अधबीडे नेत्रों में प्रेम का भाव होता है। दोनों पैरों को नृत्य मुद्रा में मोडे हुए वेणुगोपाल अपने सखा गोप-गोपियों के साथ होने के कारण इन्हें “गण-गोपाल” भी कहा जाता है।
हलेबिडु के शिव मंदिर में स्थित इस वेणुगोपाल की प्रतिमा का बारीकी से निरिक्षण कीजिये, कलाकार ने किस खूबसूरती से आच्छादित पृष्ठभूमि में गोधन और गोप-गोपियों का चित्रण किया है और श्रीकृष्ण के चेहरे पर मुस्कान देखते ही बनती है। आभूषणों से सज्जित कृष्ण प्रतिमा की भाव भंगिमा दर्शनार्थी की दृष्टि को बंधे रखती है।
केरल के कुछ शिल्पों में वेणुगोपाल को शंख तथा चक्र के साथ चतुर्भुज भी दिखाया गया है। एक और रसप्रद बात यह है कि जब बहुभुज वेणुगोपाल के हाथ में बांसुरी के साथ साथ गन्ना और पुष्प भी हों तो उन्हें “मदन गोपाल” कहा जाता है।
मदन गोपाल
कालिय मर्दक कृष्ण
कालियामर्दन का प्रसंग सभी को ज्ञात है इसलिए उसकी पुनरावृत्ति ना करते हुए सीधे इसके प्रतिमा विज्ञान का विवरण देखते हैं। कालिय मर्दक बालकृष्ण को सौम्य मुद्रा में कालिय नाग के मस्तक पर नृत्य करते हुए दिखाया जाता है। बाएं हाथ में सर्प की पुच्छ पकडे कृष्ण का दूसरा हस्त अभय मुद्रा में होता है। यह एक तरह से अनिष्टों से अभय का प्रतीकात्मक चित्रण है। यदि इस प्रतिमा से कालिय नाग निकाल दें तो फिर यह प्रतिमा को “नवनीत नृत्य कृष्ण” प्रतिमा कहा जाएगा। इस प्रतिमा को ज्यादा आभूषणों से नहीं सजाया जाता। तंजौर से एल्लोरा तक के मंदिरों में इस प्रतिमा को उकेरा गया है और सभी प्रतिमाओं की समरूपता ध्यानाकर्षक है।
गोवर्धनधर कृष्ण
व्रजवासियों की रक्षा हेतु अपनी कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत धारण किए कृष्ण की विशेषता यह है कि इन प्रतिमाओं में कालिय मर्दक और वेणुगोपाल की भांति समरूपता नहीं होती। किसी स्थान पर कृष्ण दाएं हाथ से गोवर्धन उठाते हैं तो किसी मंदिर में बाएं हाथ से, इसका सबसे आश्चर्यजनक अवलोकन होयसला स्थापत्य में देखा गया है जहाँ के ही शैली की विभिन्न मूर्तियों में भी विषमताएं देखि गईं है। नुग्गेहल्ली के गोवर्धनधर कृष्ण हालेबिडु के गोवर्धनधर से एकदम अलग तरीके से बनाये गए हैं।
गोवर्धनधर कृष्ण की चर्चा पल्लव स्थापत्यकला के अप्रतिम उदहरण सम महाबलीपुरम के कृष्ण-मंडप गुफा का उल्लेख किए बिना अधूरी है। इस गुफा में ग्रेनाईट पत्थर से कृष्ण की गोवर्धन लीला को जीवंत स्वरुप देने का प्रयास किया गया है। यहां निर्भीक श्रीकृष्ण के साथ भयभीत व्रजवासियों और गायों का अद्भुत चित्रण किया गया है लेकिन इस गुफा को विशेष बनाती है इस दृश्य को जिवंत बनाने के लिए की गई कारीगरी। इसे ध्यान से देखने पर ऐसा महसूस होता है कि भित्तिचित्र को सजीव रूप देनेके लिए गुफा के ऊपरी भाग में जलस्त्रोत का निर्माण किया गया होगा और गुफा की छत में बने छेदों के माध्यम से गुफा में जलवर्षा कर के बारिश का प्रभाव उत्पन्न किया जाता होगा।
सहस्त्र वर्षों में महाबलीपुरम को भूला दिया गया, जलस्त्रोत नष्टप्राय हो गए और शिल्पों की आभा निस्तेज हो गई। जरा सोचिए, दीप प्राकट्य के समय संध्या-आरती के समय दीप प्राकट्य किया गया है और इन लघु तेजपुंजों के प्रकाश से गोवर्धन शरण व्रजवासियों के ऊपर से झरते पानी का अनुपम दृश्य और आपके समक्ष मंद हास्य करते गोवर्धनधारी की मनोरम्य प्रतिमा!
अत्यंत सजीव विवरण, धन्यवाद, इन तीनों रूपों में प्रतिमाओं के महत्व को विस्तार से समझाने के लिए.
ट्विटर की आपाधापी से दूर भारत परिक्रमा वह कोना है जहां व्यक्ति कुछ देर ठहरकर विश्राम के साथ साथ ज्ञानार्जन भी कर सकता है।