महाराष्ट्र के पूना में गणेशोत्सव की तैयारियाँ पुरजोर चल रही थी। शाम होते ही हर गली, हर चौराहे पर लोग जुटने लगते और उत्सव की योजनाओं के कार्यान्वयन में लग जाते। क्या अमीर, क्या गरीब, क्या पुरुष, क्या महिला, सभी पूरे तन, मन, धन से लगे हुए थे।
लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू किया गया यह उत्सव कोई धार्मिक त्योहार नहीं था। इस त्योहार के साथ सभी जाति, धर्म, समुदाय के लोग जुड़े हुए थे। भारतीय समाज में स्वाधीनता की चेतना जागृत करने के लिए यह उत्सव एक बहुत बडे़ अभियान के रूप में बदलता जा रहा था।
अपने पराधीन नागरिकों को एकजुट होते हुए देखकर ब्रिटिश सरकार अपने साम्राज्य की जड़ों में नमक जैसा महसूस कर रही थी। किसी भी तरीके से इस मौन क्रान्ति को रोकना आवश्यक था।
पूना का अंग्रेज़ जिलाध्यक्ष अपने दफ़्तर में खंड के एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगा रहा था। उसके चेहरे पर तनाव की रेखाएँ स्पष्ट दिखाई दे रही थी। तभी केबिन के दरवाज़े पर चपरासी ने दस्तक दी। ब्रिटिश जिलाध्यक्ष जिसका इंतज़ार कर रहा था वह आगंतुक आ पहुँचे थे।
अगले कुछ ही पलों में जिलाध्यक्ष ने बड़ी ही चतुराई से अपने चेहरे से चिंता की लकीरों को सामान्य भाव में बदल लिया। आगंतुक ने कमरे में प्रवेश करने की अनुमति मांगी, “क्या मैं अंदर आ सकता हूँ जनाब?” उसका लहज़ा और परिवेश उसके समाज के एक सम्मानित मुस्लिम होने की साक्षी दे रहे थे।
चेहरे पर सत्कार के साथ जिलाध्यक्ष ने उन्हें बैठने का अनुरोध किया तभी केबिन की खिड़की से बाहर सड़क पर कुछ युवाओं की टोली ‘गणपति बप्पा मोरया’ और ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए गुजरी।
जिलाध्यक्ष ने कुछ गुस्से से चपरासी को खिड़की बंद करने का आदेश दिया और आगंतुक की ओर देखा। आगंतुक मुस्कुरा रहा था। उसकी दाढ़ी से झांक रहे कुछ सफ़ेद बालों से होते हुए एक सौम्य मुस्कान और तेजतर्रार आँखों की निडरता और ख़ुमारी, बंद होती हुई खिड़की को देख रही थी।
जिलाध्यक्ष ने आगंतुक मुस्लिम नेता के समक्ष बड़ी ही कुटिलता से अपनी भूमिका रखने की शुरुआत की, “हमें ख़बर मिली है कि इस वर्ष गणेशोत्सव में आप केसरी अखबार के दफ़्तर में व्याख्यान देने वाले हैं, क्या यह सच है?”
प्रत्युत्तर में उसी सौम्य मुस्कान के साथ कहा गया, “लोकमान्य के आमंत्रण को मैं कैसे टाल सकता था?”
“लेकिन यह तो हिंदूओं का त्योहार है.. ”
“क्या हिंदू हमारे भाई नहीं हैं?”
“पर… सैयद साहब… लेकिन…”
“क्या आप एक भाई को अपने भाई के घर त्योहार में जाने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं?”
सीधा आक्रमण होते ही जिलाध्यक्ष थोड़ा हड़बड़ाया, “क्या आप जानते नहीं कि गणेशोत्सव मुसलमानों के ख़िलाफ़ है? फिर भी आप उसमें सम्मिलित होने जा रहे हैं?”
“जिलाध्यक्ष महोदय, क्या आप बता सकते हैं कि यह त्योहार मुसलमानों के ख़िलाफ़ कैसे है?”
सैयद साहब की दलील सुनकर जिलाध्यक्ष का अबतक बड़ी मुश्किल से दबाकर रखा क्रोध बाहर आ गया, “ऐसा ही है तो आप हिंदू क्यों नहीं हो जाते?”
सैयद साहब ने बड़ी ही शांति से मगर कठोर लहज़े में उन्हें उत्तर देते हुए कहा, “ऐसा होना ना होना मेरी मर्ज़ी पर निर्भर करता है… मेरे निजी मसले में आपको दख़ल देने की ज़रूरत नहीं…!!!”
यदि भारत के सभी धर्म समुदाय में ‘एकता’ हो तो ‘सशस्त्र क्रांति’ कर के ब्रिटिश सत्ता को गिराना इतना कठिन नहीं था और इस बात को अंग्रेज ब-खूबी समझ चुके थे।
खिलाफत आंदोलन और गांधीजी के सत्याग्रह के रूप में ब्रिटिश सत्ता के यह दोनों उद्देश्य सफल हुए!
बंगाल विभाजन जैसे अनेकों प्रयासों के बावजूद भारतीय जनमानस में व्याप्त सौहार्द को ब्रिटिश भ्रष्ट नहीं कर पाये थे।
इन दोनों समस्याओं का हल यही था कि तुष्टिकरण और विभाजन की रणनीति से समाज में वैमनस्य फैलाया जाए और सशस्त्र विद्रोह के स्थान पर अहिंसक आंदोलनों को बढावा दिया जाए।
मुलाक़ात समाप्त हो चुकी थी। सैयद साहब कमरे से बाहर जा रहे थे, तभी ब्रिटिश जिलाध्यक्ष ने पूछा, “सैयद साहब, क्या मैं आपके व्याख्यान का विषय जान सकता हूँ?”
सैयद साहब व्याख्यान का विषय “हिंदू मुसलमान-आपसी संबंध” बताते हुए कमरे से रवाना हो गए। अंग्रेज़ों का भारत के दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने का षड्यंत्र और मंसूबा धरा का धरा रह गया। उनके जाते हुए कदमों में एकता, निडरता और स्वाधीनता की झलक थी।
संदर्भ: गणेश अङ्क (गीता प्रेस)
(तस्वीरें गूगल से साभार)