जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को देखने पर वह सभी एक जैसी प्रतीत होती हैं किन्तु उनका बारीकी से अवलोकन करने पर हमें तीर्थंकरों के बारे में आश्चर्यजनक जानकारियां प्राप्त हो सकती हैं।
भारतीय शिल्प स्थापत्य में हर उत्कीर्णन का, हर प्रतीक का, हर चिह्न का अपना विशिष्ट महत्व होता है। शिल्प का कोई भी भाग महत्वहीन नहीं होता।
भारतीय शिल्प कला के रत्नों को मुख्यतः हिन्दू, जैन तथा बौद्ध धर्म के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है। और इसमें भी रसप्रद बात ये है कि एक ही शब्द के तीनों धर्मों में भिन्न भिन्न शब्दार्थ हो सकते हैं।
श्रीवत्स, एक ऐसा ही शब्द है जिसका हिंदू जैन तथा बौद्ध कला में महत्व अलग अलग होता है।
जैन धर्म में आठ पवित्र प्रतीकों का वर्णन किया गया है। दिगंबर तथा श्वेताम्बर जैन श्रीवत्स, स्वस्तिक,भद्रासन, दर्पण, कलश, ध्वज जैसे चिह्नों को अपने पवित्र प्रतीक मानते हैं और इन्हें अष्टमंगल चिह्न कहा जाता है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि दिगंबर तथा श्वेताम्बर अष्टमंगल की सूची में आंशिक भिन्नता पाई जाती है।
इन्ही अष्टमंगल चिह्नों में श्रीवत्स को स्थान दिया गया है। यदि आप तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का अवलोकन करेंगे तो उनके हृदय स्थान पर एक पुष्प या रत्न जैसी आकृति का चित्रण किया जाता है, इसे ही श्रीवत्स कहा गया है।
जैनाचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ त्रिसष्टिशलाकापुरूष चरित्र में श्वेताम्बर पंथ के अष्टमंगल चिह्नों के साथ श्रीवत्स का भी वर्णन मिलता है। (त्रिसष्टि = ६३)
हेमचन्द्राचार्य बारहवीं शताब्दी के जैन दार्शनिक थे। उन्हें व्याकरण, गणित और दर्शन के लिए भी जाना जाता है।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धांत है और अहिंसा जैसे सिद्धांत का उद्भव मस्तिष्क में नहीं कोमल हृदय में होता है। आचार्य दिनकर के अनुसार उच्च कोटि के विचारों का उद्गम स्थान बुद्धि नहीं अपितु हृदय होता है और कलात्मक श्रीवत्स तीर्थंकरों के मानवता के प्रति इन्हीं विचारों का प्रतीक है।
श्रीवत्स के हिंदू तथा बौद्ध धर्म में महत्व की चर्चा हम लेखमाला के आने वाले भाग में करेंगे।