सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात भारतवर्ष में व्याप्त शक्ति का शून्यावकाश राजनैतिक उठापटक के लिए कारणभूत बना। वहीं दूसरी तरफ़ अरब की भूमि पर इस्लाम का उदय हुआ। ईजिप्ट, सिरिया, पर्शिया और जेरूसलम जैसे प्रदेशों पर अरबों की सेना ने रक्त-तांडव मचा दिया था।
आठवीं शताब्दी के शुरू होते ही अब उनकी कुदृष्टि भारत के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र सिंध पर थी। धन और वैभव से भरा-पूरा भारतीय उपमहाद्वीप एक ओर राजनैतिक संकट से घिरा हुआ था तो दूसरी तरफ़ लूट के बहाने अपने धर्म-प्रसार की मंशा रखने वाले गिद्ध इसका लाभ उठाने को आतुर थे।
शुरू के दो अरब आक्रमणों को सिंध के राजा दाहिर ने खदेड़ कर भगा दिया। तीसरे आक्रमण के लिए हजाज़ ने अपने दामाद मुहम्मद बिन क़ासिम को चुना। महज़ सत्रह वर्ष की आयु का क़ासिम कट्टर उन्मादी था। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था और उसने वही किया।
जब वह सिंध की सीमा पर आया तो उसके साथ छह हज़ार घुड़सवार, तीन हज़ार पैदल सिपाही और छह हज़ार ऊंटसवार सेना थी। क़ासिम ने सर्वप्रथम आक्रमण सिंध के बंदरगाह पर किया लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। यही वह समय था जब भारत का प्रथम देशद्रोही सरहद पर खड़े शत्रु से जा मिला था- सिंध का एक अनजान नागरिक अपनी ही सेना की रणनीति क़ासिम के सामने उजागर कर आया।
किसी भी देश के लिए सैन्य-रणनीति का गुप्त रहना बहुत आवश्यक होता है लेकिन भारत इतना भाग्यशाली नहीं था। सिंध के बंदरगाह देवल का पतन हुआ और मुहम्मद बिन क़ासिम ने नगर में प्रवेश किया।
देवल के नागरिकों के सामने मात्र दो विकल्प थे, धर्म परिवर्तन या मृत्यु! सहस्रों नागरिकों की निर्मम हत्या कर दी गई। मृत्यु का यह विभत्स खेल तीन दिन तक चला। देवल के पश्चात निरून, सीसम और सेहवन नगरों की भी यही गति हुई। जिन्होंने शरणागति स्वीकार नहीं की उनका नरसंहार होना निश्चित था।
उन दिनों आक्रांताओं द्वारा लूट के बाद सशक्त लोगों की हत्या, महिलाओं तथा बालकों का बलात् धर्म परिवर्तन कर दास बना देना और फिर नगर को आग के हवाले कर देना आम बात थी।
एक के बाद एक सिंध प्रांत के नगरों का पतन हो रहा था फिर भी राजा दाहिर निश्चिन्त था। सिंधु नदी के तट पर रावेर में वह अपने पचास हज़ार प्रशिक्षित सिपाहियों के साथ मुहम्मद बिन क़ासिम की प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन राजा दाहिर का यही अतिआत्मविश्वास उसके पराजय का कारण बना। दाहिर एक पराक्रमी योद्धा था लेकिन इस युद्ध में भाग्य उसके पक्ष में नहीं था।
मुहम्मद बिन क़ासिम रावेर की सीमा पर पहुंचा। भीषण युद्ध शुरू हुआ। दाहिर अपनी पूरी शक्ति के साथ युद्ध में सम्मिलित हुआ। लेकिन वह जिस हाथी पर सवार था उसकी अंबारी पर आग लग गई। भयभीत हाथी रणभूमि छोड़कर भागने लगा। जब तक हाथी को नियंत्रित किया जाता, देर हो चुकी थी।
सिंध की सेना अनुशासनहीन हो कर बिखर चुकी थी। वीरतापूर्ण बलिदान देते हुए दाहिर ने अपने प्राण रणभूमि पर ही त्याग दिए। गर्वित महारानी ने जौहर किया और दो राजकुमारियों को क़ासिम ने बंधक बनाकर अरब भेज दिया।
सिंध की पराक्रमी सेना से लड़ते हुए आठ महीने से अधिक समय बीत चुका था लेकिन अभी भी मुहम्मद बिन क़ासिम की महत्वाकांक्षा संतुष्ट नहीं हुई थी। अब बारी थी सिंध के सबसे संपन्न नगर मुलतान की। वही मुलतान जिसके सूर्य मंदिर की कीर्ति भारतवर्ष में फैली हुई थी।
मुलतान नगर एक अभेद्य किले में सुरक्षित था। मुलतान को परास्त करना आसान काम नहीं था लेकिन फिर से एक बार वही हुआ जो भारत में आज भी हो रहा है। चंद सिक्कों के लिए शत्रु सेना से जा मिलने वालों की इस देश में कमी नहीं। उस द्रोही ने क़ासिम को मुलतान की जल आपूर्ति का स्रोत बता दिया। क़ासिम ने मुलतान का जलस्रोत ही काट दिया। बिना पानी मुलतान के नगरजन कब तक लड़ाई जारी रख सकते थे।
भारत के लिए द्रोहियों की कहानी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज भी चंद रुपयों के लिए, अपने मज़हब से वफ़ादारी निभाने के बहाने कुछ गद्दार विदेशियों की गोद में बैठ जाते हैं।
मुलतान का पतन हुआ। नगरजनों ने शरणागति स्वीकार कर ली। किले के प्रवेश द्वार खोल दिये गये और क्रूर शत्रु ने इस वैभवशाली नगर में प्रवेश किया। ऊँचे-ऊँचे भवन, समृद्ध प्रजा और सुसंस्कृत समाज, यह सब क़ासिम ने सिर्फ़ कहानियों में सुना था।
जब उस सत्रह वर्ष के नवयुवक ने मुलतान सूर्य मंदिर को देखा तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। इतना भव्य स्थापत्य उसने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। सूर्य मंदिर में केशमुंडन कर, हाथों में पुष्प मालाएँ और इत्र लिए आ रहे निशस्त्र श्रद्धालुओं को दूसरा अवसर देने का प्रश्न ही नहीं उठता था। भव्य मंदिर परिसर में रक्त की नदियाँ बहने लगीं।
भगवान सूर्य के सात विशालकाय अश्वों के शिल्पों को ध्वस्त कर जब वह आततायी मंदिर के गर्भगृह में पहुँचा, वहाँ पर कोई उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसका सशक्त शरीर और उसके राजसी वस्त्र देखते ही क़ासिम ने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाली… लेकिन वह कोई जीवित व्यक्ति नहीं था… कौन था वह?
उसे भयभीत करने वाला कोई व्यक्ति नहीं था, वह थी आदमकद भगवान सूर्य नारायण की प्रतिमा। पूर्णकद की उस प्रतिमा का आकार और साजसज्जा किसी को भी भ्रमित करने के लिए काफ़ी थी।
भव्य मंदिर और कलात्मक प्रतिमा देखते ही मुहम्मद बिन क़ासिम के अंदर का बुतशिकन जाग उठा… जैसे ही उसने सूर्य प्रतिमा को खण्डित करने हेतु अपनी तलवार उठाई, किसी ने उसे रोकते हुए कहा, “रूको बुतशिकन, तुम सोने के अंडे देने वाली मुरगी को हलाल करने की मूर्खता कर रहे हो…!!”
उन दिनों मुलतान का यह सूर्य मंदिर समस्त भारतवर्ष के लिए एक बडा़ तीर्थ स्थान था। कोने-कोने से भक्त सूर्य नारायण का अनुष्ठान करने के लिए यहाँ खिंचे चले आते थे और यही भक्त अपने साथ धन, रोजगार और मूल्यवान वस्तुएँ भी लाते थे।
क़ासिम को बताया गया कि यदि इस मंदिर को ध्वस्त ना किया जाए तो इससे होने वाली अर्थ प्राप्ति का लाभ अरब सैन्य को और मजबूत करने के लिए किया जा सकता था।
क़ासिम के लिए यह असह्य था, उसके सामने सूर्य प्रतिमा थी लेकिन वह उसे तोड़ नहीं सकता था। निराश मन से जब वह मंदिर के बाहर निकला तब वहाँ गौशाला में गायों के रंभाने की आवाज सुनाई दे रही थी। उसकी आँखों में चमक आ गई।
वह मूर्ति को खंडित नहीं कर सकता था पर अपमानित तो कर ही सकता था। और फिर वह हुआ जो भारत में कभी नहीं हुआ था। सूर्य मंदिर के नाट्य मंडप में गौहत्या की गई। हिंदू धर्म में गौ, गंगा और गायत्री को अति पवित्र माना जाता है लेकिन आज सूर्य के देवस्थान में गाय के रक्त की नदियाँ बह रही थी।
मुहम्मद बिन क़ासिम इतने से संतुष्ट नही हुआ। पराजय और पराधीनता में बस यही अंतर होता है, रणभूमि में किसी को पराजित किया जा सकता है लेकिन पराधीन बनाने के लिए शत्रु के आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और गौरव को छीन लिया जाता है। क़ासिम ने वही किया। उसने निश्चेत गाय के मृतदेह से गोमांस का एक हिस्सा अपनी तलवार से खींच लिया और गर्भगृह में सूर्य के विग्रह के गले में टांग दिया। उस अभागे दिन सूर्यास्त सिंध में हुआ था किन्तु अंधेरा समस्त भारतवर्ष में छा गया था…
मुहम्मद बिन क़ासिम ने मंदिर ध्वस्त नहीं किया लेकिन उसके बाद आने वाले आक्रांताओं ने इसे बारंबार अपना लक्ष्य बनाया। इतने आक्रमणों के बावजूद सूर्य मंदिर के अवशेषों में सूर्य पूजा जारी रही। अंत में औरंगज़ेब ने इस देवालय को पूरी तरह से ज़मींदोज़ कर दिया और वहाँ जामा मस्जिद का निर्माण कराया। १९४७ में भारत का यह महत्वपूर्ण भाग पाकिस्तान के हिस्से में चला गया और इसी के साथ भारतवर्ष ने सिंध प्रांत हमेशा के लिए खो दिया।
इतिहास को इतना रोचक बनाकर हम तक पहुंचाने के लिए बहुत धन्यवाद
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