गर्मी के कारण शरीर से पसीने की नदियाँ बह रही थी। मैंने घड़ी में देखा तो दोपहर का एक बज रहा था। ऐसी गर्मी में पिताजी को लेकर सौराष्ट्र की गलियों में भटकना बीमारी को आमंत्रित करने जैसा था। अगस्त के महीने में इतनी गर्मी अपेक्षित भी नहीं थी। मैंने ऑटो रिक्शा वाले से पूछा, “अभी और कितना दूर है भाई?” उसने प्रत्युत्तर में मात्र सिर हिलाया क्योंकि गुटखा मुँह में दबाए बातचीत कर पाना उसके लिए संभव नहीं था। इशारे का मतलब क्या निकालना है यह सवारी को स्वयं तय करना था।

सौराष्ट्र क्षेत्र के प्राचीन नगरों में से एक जूनागढ़ आज अपनी विरासत बचाए रखने की जद्दोजहद करता नज़र आता है। आधुनिकता की दौड़ में पीछे छूटे बिना अपनी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करते रहना सबसे बड़ी चुनौती है। अशोक के शिलालेख और बौद्ध अवशेष हों या भवनाथ महादेव और गिरनार पर्वत के धार्मिक स्थलों का महत्व हो, जैन, बौद्ध, हिंदू संस्कृतियों के त्रिवेणी संगम स्थल पर खड़ा जूनागढ़ बस यही सब बचाने की कवायद में लगा हुआ प्रतीत हो रहा था।

उबड़-खाबड़ सड़क से होते हुए ऑटोरिक्शा आगे बढ़ रही थी। अनायास ही मेरा ध्यान ऑटो-ड्राइवर की कलाई पर बंधे एक दर्जन राखी के गुच्छे पर गया। वह देख कर मेरा मन खिन्न हो उठा, मेरी कलाई सूनी थी। मैं जानता था कि मैं राखी धारण करने की योग्यता नहीं रखता था, लेकिन… लेकिन… मैंने पूरी कोशिश की थी… मैंने पूरा प्रयास किया था उसे बचाने का..!!

दस महिने कम समय नहीं होता। शहर का कोई भी बडा अस्पताल, बडा़ डॉक्टर नही था जिससे कंसल्ट नहीं किया। कोई ऐसा देवता नहीं था जिसकी मन्नत नहीं मांगी। ऑटो रिक्शा के साथ ही मेरे विचारों की शृंखला पर भी ब्रेक लगी। संकरी सड़क पर सामने पुरानी शैली का दरवाज़ा दिख रहा था और दरवाज़े के अंदर बडे़ से आंगन में कुछ टूरिस्ट भी। दरवाज़े पर लोहे की पुरानी तख्ती पर गुजराती भाषा में लिखा हुआ था ‘नरसिंह मेहता नो चोरो’।

ऑटोरिक्शा से उतरते हुए मैंने पैसे चुकाए और आकाश की तरफ़ देखा, आकाश में काले बादल मंडरा रहे थे किन्तु फिर भी पसीना रूकने का नाम नहीं ले रहा था। पिताजी का हाथ पकड़ कर उन्हें सहारा देते हुए मैं आगे बढ़ा।

दरवाज़े से अंदर प्रवेश करते ही सामने बडा़ सा आंगन था और आंगन के मध्य में एक वृत्ताकार चबूतरा बना हुआ था। प्राथमिक अवलोकन में आंगन के चारों तरफ़ कुछ छोटे कमरे जैसी संरचना दिख रही थी। यह सब देखकर पिताजी की आँखों में चमक छा गई, आर्थराइटिस से अपंग हो चुके उनके पैरों में मानो उर्जा का संचार हो गया था।

उन्होंने उत्साह से चबूतरे की ओर अंगुली निर्देश करते हुए कहा, “यही वह स्थान है जहाँ नरसिंह भगत भजन किया करते थे।” उन्होंने नज़दीक जाकर चबूतरे को प्रणाम किया। मैं चुपचाप उनके साथ खडा़ था, मैंने प्रणाम करना आवश्यक नहीं समझा। भक्ति, भजन और भावनाओं को मैं तीन वर्ष पहले ही तिलांजलि दे चुका था। मेरा झुकाव कला की तरफ था और पुरातत्वीय महत्व के स्थल और मंदिर स्थापत्य मुझे आकर्षित करते थे।

ऐसा कतई नहीं था कि मैं पहले से नास्तिक था। किन्तु जीवन में घट चुकी घटनाओं ने मुझे आस्था से दूर कर दिया था। इश्वर का अस्तित्व स्वीकारना या ना स्वीकारना मेरे लिए प्रश्न ही नहीं था क्योंकि यदि इश्वर का अस्तित्व था तो मेरा नास्तिक बन जाना भी उसी की इच्छा का परिणाम था।

पिताजी चबूतरे (चोरे) के पास खडे़ खडे़ ही नरसिंह मेहता के भजन गुनगुनाने लगे। ‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे… ’ और ‘जळकमळ छांडी जा ने बाळा, स्वामी अमारो जागशे’ जैसी नरसिंह मेहता की रचनाओं को याद करते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

पिताजी ने एक और प्रयास करते हुए नरसिंह मेहता का मेरा बचपन का सबसे प्रिय भजन गाना शुरू किया ‘अखिल ब्रह्माण्ड मां एक तूं श्री हरि’। मैं शून्य भाव से परे देख रहा था।

मेरी निर्लिप्तता देखकर पिताजी के चेहरे पर निराशा छा गई। तीन वर्ष हो चुके थे और इन तीन वर्षों में मैंने पिताजी को हर बडे़ तीर्थ की यात्रा कराई थी। वाराणसी, अयोध्या, सोमनाथ, द्वारिका, महाकालेश्वर जैसे बडे़ तीर्थों में जा कर भी मुझे भगवान के सामने हाथ जोड़ने का मन नहीं किया था। एक समय ऐसा भी था जब मेरा वर्ष का अधिकांश समय अनुष्ठानों और उपवासों में बितता था और आज मैं भगवान के समक्ष मस्तक भी नहीं झुका पा रहा था। सब कुछ बदल चुका था, सब कुछ…!!

पिताजी का विश्वास कह रहा था कि उनके दिए संस्कार और मेरे पूर्व जन्म के कर्म व्यर्थ नहीं जाएंगे। वह हमेशा कहते कि एक ना एक दिन तुम्हें वापस आस्तिक बनना ही है। लेकिन मैं उस मार्ग को छोड़ चुका था और मेरे लिए उस रास्ते पर फिर से जाना निरर्थक था।

काले बादलों से बूंदाबांदी का आरंभ हो चुका था। मैंने पिताजी का हाथ पकड़ कर उन्हें आंगन में ही स्थित छोटे से मंदिर की ओर ले गया। वहाँ छाँव में उन्हें बरसात से भींगने से बचाया जा सकता था। जब तक हम आंगन में ही स्थित उस छोटे से मंदिर तक पहुँच पाते, मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी थी।

वह एक छोटा सा शिव मंदिर था जिसकी एक ओर भगवान द्वारिकाधीश की प्रतिमा स्थापित की गई थी। उस जर्जर मंदिर को पुष्पों से सजाया गया था। ऐसा लग रहा था कि वह कोई विवाह प्रसंग का साक्षी बना हो।

बरसात शुरू होते ही अधिकांश टूरिस्ट वहाँ से चलते बने। पुरानी इमारत के छप्पर पर बरसात की बूंदों का शोर बढ़ता जा रहा था। मंदिर में मंजीरे, ढोल, और करताल जैसे भजन कीर्तन की सामग्री पड़ी हुई थी। पिताजी अभी भी नरसिंह मेहता के भजनों में डूबे हुए थे। मेरे स्मृति पटल पर बारिश का ऐसा ही एक दिन उभर आया। उस दिन बहना को बायोप्सी के लिए ले जाना था और बारिश रूक नहीं रही थी। जब तक हम बहना को लेकर अस्पताल पहुंचते डॉक्टर जा चुके थे। उन दस महिनों में कितने ही ऐसे किस्से थे, संघर्ष, दुःख और यातनाओं से भरे।

मैं यह सब याद करना नहीं चाहता था लेकिन यादों को रोकना भी संभव नहीं था। पिताजी को वहीं एक सुरक्षित जगह पर बिठा कर मैंने जेब से मोबाइल फोन निकाला और ट्विटर एप्प देखा। पिछले तीन वर्षों में यही एक जगह थी जहाँ मैं अपनी सारी भड़ास निकाल सकता था। एक fake सोशल मीडिया अकाउंट, सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास से हासिल किया एक छद्म नाम और नास्तिकता से भरे अपरंपार पोस्ट! जब भी मुझे ईश्वर पर, समाज पर और खुद पर क्रोध आता, मैं इसी सोशल मीडिया अकाउंट से अनाप-शनाप पोस्ट कर देता।

थोड़ी देर ट्विटर टाइमलाइन स्क्रोल करने के बाद भी मुझे कुछ पोस्ट करना नहीं सूझा। मैंने फ़ोन पिताजी के हाथ में थमाया और बरसती बारिश में आंगन में निकल पड़ा। क्रोध और उद्वेग से जलते मेरे अंतर्मन पर बरसात की शीतल बूंदें जादुई असर कर रही थीं। मुख्य द्वार के बाहर सड़क पर कोई भी वाहन नहीं था। चबूतरे से होते हुए मैं दरवाज़े की ओर आगे बढ़ा।

वहाँ पहुंचते ही मैंने देखा कि वहाँ कुछ प्रौढ़ लोग खड़े थे लेकिन उनका परिवेश इक्कीसवीं शताब्दी का नहीं था। उनकी भाषा में भी चार-पाँच सौ वर्ष पूर्व बोले जाने वाली सोरठी भाषा की झलक थी। मैंने देखा तो सड़क से बाहर का दृश्य भी अचंभित करने वाला था। दरवाजे के कुछ आगे एक बड़े पेड़ के नीचे कुछ ग्वाले अपनी भैंसों के साथ आश्रय लिये खडे़ थे। बरसती बारिश में सफ़ेद वस्त्रों में गाँव के लोग हमारी ओर आगे बढ़ रहे थे। उनके चेहरों पर विशाद की रेखाएँ थीं।

मैंने महसूस किया कि दरवाजे पर खड़े प्रौढ़ भी किसी अशुभ प्रसंग में आये हों वैसा प्रतीत हो रहा था। यहाँ क्या घटना घटित हुई थी?

मैंने द्वार पर खड़े प्रौढ़ों की बात सुनने का प्रयास किया। “बहुत बुरा हुआ भाई, अभी कल ही तो इस आंगन में शामळ के ब्याह के गीत गूंज रहे थे और आज शामळ नहीं रहा।” सामने से नरसिंह मेहता स्वयं अपने युवान पुत्र का अग्नि संस्कार कर के आ रहे थे। प्रौढ़ों की बातचीत सुनते ही मेरा मन भी विशाद से भर गया।

मुझे इतना पता था कि शामळ, नरसिंह मेहता का बेटा था किन्तु पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि नरसिंह मेहता के जीवन का यह दुखद प्रकरण मुझे ज्ञात नहीं था। आगे क्या होने वाला था यह जानने के लिए मैं उन प्रौढ़ों के नजदीक जा कर खड़ा हो गया। घड़ी में शाम के छह बजे रहे थे।

बाहर से आए लोगों के साथ कृष्ण के अनन्य भक्त नरसिंह भी थे। दुबला-पतला शरीर और सफ़ेद धोती देखते ही मैं उन्हें पहचान गया। वह बिल्कुल वैसे ही लग रहे थे जैसे चित्रकार रविशंकर ने उन्हें चित्रित किया था।

वहाँ खड़े हर किसी व्यक्ति के चेहरे पर विशाद की रेखाएँ थीं लेकिन नरसिंह मेहता स्थितप्रज्ञ थे। आंगन में प्रवेश करते ही बाकी लोगों ने अपने अपने घर जाने की अनुमति मांगी। नरसिंह मेहता ने उन्हें कहा, “कीर्तन का समय हो गया है, आप सभी आज का कीर्तन सुनकर ही जाइयेगा।”

सभी लोग अवाक रह गए। “नरसिंह यह क्या बोल रहे थे… आज ही उनके पुत्र की मृत्यु हुई है, आँखों से आँसू रूकने का नाम नहीं ले रहे और इस दुःख की क्षणों में भी भगत कीर्तन करेंगे?”

सभी लोग पुतले से खड़े थे पर नरसिंह भगत अपने नित्यक्रम के लिए दृढ संकल्पित थे। वह द्वारिकाधीश मंदिर की तरफ़ आगे बढ़े और उन्होंने मेरे पिताजी से करताल मांगे।

करताल लिए नरसिंह भगत चबूतरे की ओर बढ़ रहे थे, उनके पीछे मेरे पिताजी मंजीरे लिए आ रहे थे। मैं आश्चर्यचकित यह दृश्य देख रहा था। पंद्रहवीं शताब्दी के संत भक्ति का अनुपम उदाहरण देते हुए इक्कीसवीं शताब्दी में मुझे जीवन की निरर्थकता का पाठ पढ़ा रहे थे। यही वह स्थितप्रज्ञता की पराकाष्ठा थी जिसे मैंने बचपन से हिंदू शास्त्रों में पढ़ा था। यही वह जीवन दर्शन था जिसे मैंने पढ़ा तो था किन्तु जीवन में उतार नहीं पाया था।

कितना कठिन है किसी अपने की मृत्यु का आघात सहना… कितना कठिन है ऐसी स्थिति में भी विचलित ना होना… यह परिस्थिति से मैं भी गुजरा था और नरसिंह भी, लेकिन भगत विचलित नहीं हुए थे… मैं हुआ था! मैंने बाल्यावस्था से पढ़े ग्रंथों की शिक्षा का यह वास्तविक परीक्षण था।

तभी मेरे कानों में सुरीले स्वर गूंजे,

“जे गमे जगद्गुरु देव जगदीश ने,
ते तणो खरखरो फोक करवो।”

(जगद्गुरु देव जगदीश ने जो चाहा है वही होता है, और जो हो चुका है उसका अफसोस करना व्यर्थ है।)

नरसिंह चबूतरे पर खड़े करताल बजाते हुए नाच रहे थे, नीचे खड़ी भक्त मंडली में पिताजी मंजीरे बजाते हुए भजन में मग्न थे। जैसे ही भगत नरसिंह ने भजन शुरू किया, दुःख का माहौल आध्यात्म में बदल गया। चबूतरे से नरसिंह की वाणी में साक्षात जगदीश गीता का ज्ञान दे रहे थे और नीचे खड़ा मैं विशाद योग से जूझते अर्जुन की भांति हाथ जोड़े यह सांख्य का रसपान कर रहा था। छह सौ वर्ष की समय रेखाएँ एक दूसरे को अभिसरण करते हुए एकाकार हो चुकी थीं।

नरसिंह मेहता के उपरोक्त गुजराती भजन का अंग्रेजी एवं हिंदी अनुवाद आप नीचे दिए गए वृक्ष मंदिर के लिंक पर पढ सकते हैं।

By तृषार

गंतव्यों के बारे में नहीं सोचता, चलता जाता हूँ.

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Shivsager mishra
Shivsager mishra
2 years ago

उत्तम !! हर बार की तरह

Shailendra Kumar
2 years ago

बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी शाब्दिक अभिव्यक्ति । धन्यवाद !
नरसी मेहता के भजन “जे गमे जगद्गुरु जगदीश..” की पूरी स्क्रिप्ट यदि कहीं से मिले तो भेजियेगा। कृपा होगी

Dwarika
Dwarika
2 years ago

भैया❣️

श्रीमान
श्रीमान
2 years ago

कह देना, बाहर निकाल देना अति उत्तम होता है। हमारी पहली मुलाक़ात में मैंने सब सुना था और तुम्हारे सारे आँसू देखे थे। स्वयं को क्षमा कर देना आवश्यक होता है किंतु आसान नहीं होता।
मैंने उस दिन भी कहा था और आज फिर कहता हूँ, जो हुआ उसमें तुम्हारा दोष नहीं था।

यह पढ़कर लगा कि अब धीरे धीरे समय ने तुम्हारे घाव भरना शुरू कर दिया है।

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2 years ago

[…] story in Hindi is available at this link. When I first heard the bhajan embedded in the story’s text, I did not […]

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