गतांक से आगे…
मसूद भन्ना उठा, “यदि यह शख़्स शिवाजी नहीं था तो असली शिवाजी कहाँ है? क्या वह अभी भी घेरे में ही है या भागने में कामयाब हो गया है?” दूसरे ही क्षण मसूद अपनी छावनी से बाहर था। घोड़े पर सवार महाकाय सिद्दी मसूद के हाथ में शिवा काशीद के रक्त से सनी तलवार थी जिसके रक्त की प्यास अभी भी बुझी नहीं थी। आषाढ़ी पूर्णिमा का पूर्वार्ध समाप्त हुआ लेकिन उत्तरार्ध अभी बाकी था।
हिंदवी स्वराज्य की अभिलाषा में, शिवा काशीद का रक्त मातृभूमि के चरणों को पखार रहा था। शिवा के रक्त की एक एक बूंद पन्हाळगड़ की भूमि पर बहते हुए आने वाले बलिदानियों में आवेश का संचार कर रहीं थीं।
सिद्दी मसूद के मस्तिष्क में पन्हाळगड़ का पूरा नक्शा चकराने लगा। शिवाजी महाराज को आश्रय के लिए नजदीक में एक ही स्थान था विशालगढ़ और वहां तक पलायन करने के लिए बस एक ही मार्ग था, ‘घोडखिंड़’। सिद्दी मसूद जानता था कि पन्हाळगड़ से विशालगड़ तक जाने वाले घाट को घोडखिंड़ के नाम से जाना जाता था और उसके सिपाहियों ने विशालगढ़ को पहले ही घेर रखा था।
यदि शिवाजी को विशालगढ़ पहुंचने से पहले पकड़ लिया जाए तो बाजी अब भी जीती जा सकती थी। लेकिन जैसे ही मसूद के सैन्य ने घोडखिंड में प्रवेश किया, सामने मराठों की छोटी सी टुकड़ी को पाया। करीब तीन सौ बांदल सिपाहियों का नेतृत्व कर रहा था एक कद्दावर मराठा। उसके मस्तक का मुंडन और पीछे शिखा देख कर सिद्दी मसूद को लगा कि यह तो ब्राह्मण है, क्या ही कर लेगा लेकिन उसके चेहरे का ब्रह्मतेज और उसकी आंखों की निडरता उसके मंसूबों की साक्षी दे रहे थे।
दोनों हाथों में दांडपट्टा लिए घोडखिंड़ के मार्ग में अवरोध बन कर खड़े उस त्रिपुंड धारी ने सैन्य के पीछे खड़े मसूद को ललकारा, “कायरों की भांति अपनी सेना के पीछे क्यूं छुपा है? यदि माता का दूध पिया है तो आ सामने और कर दो दो हाथ।” मसूद इस ब्राह्मण सेनापति की मूर्खता पर मुस्कुराया, दस हजार की विशालकाय सेना के सामने तीन सौ सिपाहियों की क्या ही औकात थी। लेकिन यह सोचना मसूद की गलतफहमी थी, सामने खड़ा हर एक मराठा सौ सिपाहियों के बराबर था और बाजीप्रभु से बाजी जीतना इतना आसान नहीं था।
मसूद के सैन्य की ओर से पहला हल्ला हुआ… किराये के सिपाहियों के सामने शिवराय के स्वामी निष्ठ मावळे टकराए। मराठों ने तलवारों को टकराने का अवसर भी नहीं दिया और कुछ ही देर में बीजापुर के सिपाहियों के शरीर घाट के मार्ग पर गाजर-मूली की तरह काट कर इधर-उधर बिखरे पड़े थे।
लग रहा था मानो गरजते बादलों से बिजली और बांदलो की रक्तरंजित तलवारें अंधेरे में चमकने की प्रतिस्पर्धा कर रहीं थीं। मसूद की सेना में यह दृश्य देख कर भय व्याप्त हो गया। मराठों की सरफ़रोशी के आज तक उन्होंने किस्से सुने थे और आज वही मृत्युंजय मराठे उनके सामने यमराज बन कर खड़े थे।
जैसे ही सिद्दी मसूद के सिपाही आगे बढ़ते, शिवाजी महाराज के मावळे पन्हाळा की कंदराओं में से आक्रमण करते। अंधेरे में कौन सी दिशा से शक्तिशाली वार होगा यह बीजापुर के सिपाही समझ पाते उससे पहले उनका मस्तक धड़ से अलग हो जाता। पर्वत का एक एक पेड़ और खाई का एक एक पत्थर मावळों को पहचानता था, दूसरी तरफ खुले मैदान में लड़ने के लिए प्रशिक्षित म्लेच्छों के लिए यह भूगोल मोक्षपटम् (सांप-सीढ़ी) सी थी जिसमें उनके सामने हर क़दम पर सांप थे और मराठों के हर दांव पर सीढ़ी थी।
तीन नाकाम कोशिशों के पश्चात म्लेच्छों की हताश सेना अपनी सूझ-बूझ खो चुकी थी। उनके सामने साक्षात महादेव तांडव कर रहे थे। बरसात धुंआधार जलप्रपात में परिवर्तित हो गई थी। इस ‘करो या मरो’ की स्थिति में स्वयं सिद्दी मसूद ने मोर्चा संभाला, घोड़े पर तेज़ी से आगे बढ़ते हुए उसकी तलवार ने प्रकाश की गति से वार करना शुरू किया, अफ्रिकन मूल के कद्दावर और विकराल मसूद ने संकरी घाटी में मृत्यु का काला कारनामा लिख दिया।
सिद्दी मसूद का यह रूप बीजापुर की सेना में प्राण फूंकने के लिए काफी था। अगले कुछ क्षणों में उनके हल्ले ने मराठों को पीछे हटने पर विवश कर दिया। जब तक मराठे संभल पाते, काफी क्षति पहुंच चुकी थी।
हल्ला थोड़ा धीमा पड़ते ही कुछ मराठा सैनिकों ने देखा कि उनके सेनापति बाजीप्रभु देशपांडे अधमरी अवस्था में एक पेड़ के आधार से खड़े थे। उनके देह पर असंख्य घाव थे, उनका सफेद उपवस्त्र खून से सना हुआ था लेकिन फिर भी उन्होंने दोनों हाथ में दांडपट्टे का शस्त्र वैसे ही थामा हुआ था।
हिंदवी स्वराज्य के तीन सिपाहियों ने उन्हें सहारा देते हुए रणभूमि से दूर ले जाने का यत्न किया लेकिन इस अवस्था में भी बाजीप्रभु मोर्चा छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने महाराज को वचन दिया था कि ‘जब तक वह सुरक्षित रूप से विशालगड़ नहीं पहुंच जाते, मसूद को घोडखिंड़ पार नहीं करने दूंगा।’
घाट के मार्ग पर बरसात का पानी और मनुष्य रक्त नदी की भांति बह रहा था। बाजीप्रभु ने सहारा देने वाले तीनों सिपाहियों को परे हटाते हुए कहा, “इस देह में जब तक रक्त की एक भी बूंद बाकी है तब तक मसूद का एक भी सिपाही यहां से आगे नहीं बढ़ पाएगा।”
ब्राह्म मुहूर्त का समय हो चला था, महादेव को संध्या वंदन करते हुए इस क्षीण अवस्था में भी बाजीप्रभु ने हूंकार किया, “हर… हर…” पीछे से हिंदवी स्वराज्य का प्रतिसाद मिला, “महा…देव…!!!”
साक्षात वीरभद्र से मराठे म्लेच्छों पर टूट पड़े। स्नायुओं के कटने की और हड्डियों के टूटने की आवाजों के बीच मसूद के सिपाहियों की भीषण चित्कारों से घाटी गूंज रही थी। तभी विशालगड़ से तोप चलने की आवाज उठी… यह संकेत था, बाजीप्रभु के स्वामी, हिंदवी स्वराज्य के ध्रुवतारक शिवाजी महाराज के सुरक्षित विशालगड़ पहुंच जाने का… बाजीप्रभु ने प्रण पूरा किया। अपने महाराज को अंतिम प्रणाम करते हुए उनका शरीर ज़मीन पर गिरा…!!
बरसात थम चुकी थी। क्षितिज से झांकते सूर्य नारायण ने इस वीर योद्धा को अन्तिम विदा दी। बाजीप्रभु के बलिदान ने फिर से एक बार साबित किया कि युद्ध सैन्य शक्ति से नहीं रणनीति, आत्मविश्वास और शौर्य से जीते जाते हैं।
उपसंहार:
मसूद ने पन्हाळगड़ तो जीत लिया था लेकिन वह शिवाजी महाराज को पराजित नहीं कर पाया। शिवा काशीद, बाजीप्रभु देशपांडे और तानाजी मालुसरे जैसे स्वामीभक्तों के होते हुए शिवाजी महाराज को जीतना असंभव था। शिवाजी महाराज ने इस पावन बलिदान की स्मृति में घोडखिंड़ का नामकरण ‘पावनखिंड़’ किया।
एक ओर मराठा सेना की क्षति तीन सौ थी तो दूसरी तरफ बीजापुर के पांच हजार सिपाही मारे गये थे। एक ओर स्पार्टा के तीन सौ सिपाहियों को विश्व भर में आज भी याद किया जाता है तो दूसरी तरफ इस कृतज्ञ राष्ट्र ने बाजीप्रभु के तीन सौ बलिदानियों को भुला दिया।
बहुत उत्कृष्ट वर्णन तृषार भाई..❣️
यैसे ही बिसर गए बलिदानों को हम तक लाते रहिये