सन १९४२,
स्थान: चमोली, उत्तराखंड (ब्रिटिश पराधीन भारत)
द्वितीय विश्वयुद्ध अपने चरम पर था। भारत की ब्रिटिश सत्ता जपानी सैन्य आक्रमणों के भय से आशंकित थी। आरपार का युद्ध लड़ रही जापान की सेना किसी भी दिशा से भारत पर आक्रमण कर सकती थी।
एक तरफ जर्मनी ने ब्रिटेन के नाक में दम कर रखा था तो दूसरी तरफ ब्रिटेन के सबसे बड़े दास-संस्थान भारत पर जापान मंडरा रहा था। ब्रिटिश दमनकारी नीति ने भारतीय सशस्त्र क्रांति को एक दशक पूर्व ही समाप्त कर दिया था लेकिन सुभाष चंद्र बोस की अगुआई में भारतीय फिर से सशस्त्र आंदोलन की राह पर चल पड़े थे। वहीं दूसरी ओर गांधीजी भी भारत छोडो़ आंदोलन का आगाज करने के लिए तैयार थे।
इन्हीं दिनों एक पत्र ने चहुंँओर से घिरे अंग्रेजों के दिल्ली मुख्यालय में हलचल मचा दी। पत्र नंदादेवी नेशनल पार्क के फाँरेस्ट अधिकारी एच के मधवाल का था।
मधवाल के पत्रानुसार उन्होंने त्रिशूल II पर्वत की ढलान पर अस्थि-पिंजरों को देखा था और इन कंकालों की संख्या सैंकड़ों में थी। नंदादेवी क्षेत्र में त्रिशूल पर्वत की ढलान पर रूपकुंड तालाब के पास मिले कंकालों को सन १९०७ में डॉ लांगस्टॉफ के बाद भुला दिया गया था और ब्रिटिश सरकार के लिए यह पूरी तरह से नयी खबर थी। खबर मिलते ही दिल्ली में अनुमानों और आशंकाओं का दौर चल पड़ा।
क्या यह कंकाल जापानी सिपाहियों के थे जो भारत पर आक्रमण के उद्देश्य से आये थे और बर्फ में दफ्न हो गये थे ? क्या बड़ी से बड़ी सेना को परास्त कर देने वाले जापानी सिपाही हिमालय के पहाड़ो से पराजित हुए थे ?
मधवाल के अनुसार इन कंकालों में से कुछ को सुव्यवस्थित ढंग से सजा कर रखा गया था। अब प्रश्न यह भी था कि कंकालों को इस तरह से समुह में सजा के रखने का क्या मतलब था?
प्रश्न अनेक थे और उत्तर एक भी नहीं था। आनन फानन में भयाक्रांत अंग्रेजों ने नृविज्ञान के विशेषज्ञों की एक टीम को त्रिशूल पर्वतीय क्षेत्र में इन कंकालों का अध्ययन करने के लिए भेजा लेकिन इन नृविज्ञानियों के रिपोर्ट में कुछ ऐसा था जिसने रहस्य को और भी जटिल बना दिया।
एक तरफ ब्रिटिश सत्ता के लिए रूपकुंड के यह कंकाल राजनैतिक पहेली थी तो दूसरी ओर आम जनमानस में कंकालों की खबरों को अफवाह बनते देर न लगी।
पहाड़ों में बसने वाले भारतीयों के अनुसार यह पहाड़ों की संरक्षक नंदादेवी का प्रकोप था। पर्वतीय क्षेत्रों में अतिक्रमण करने वाले पर्यटकों को देवी के क्रोध ने नेस्तनाबूद कर दिया था।
चमोली जिले के अल्मोड़ा में नंदा देवी का पौराणिक स्थान है। लोक मान्यता के अनुसार नंदादेवी इस प्रदेश की तथा इसके शासकों की संरक्षक देवी है।
पौराणिक कथाओं में नंदादेवी को पार्वती जी के अवतार के रूप में वर्णित किया गया है। अल्मोड़ा के नंदादेवी मंदिर के प्रमुख आकर्षणों में से एक यहाँ बारह वर्ष में एक बार लगने वाले नंदा देवी राज जाट यात्रा का भी समावेश होता है।
इस यात्रा में नंदादेवी त्रिशूल पर्वत पर स्थित अपने द्वितीय निवास स्थान पर स्थानांतरित की जाती हैं और इसी कारण त्रिशूल शिखर पर पर्यटन के उद्देश्य से जाने वाले लोग देवी के प्रकोप के भोगी बनने की मान्यता जनमानस में दृढ़ हुई।
लेकिन क्या यही एकमात्र कारण था या सच में यह कंकाल आक्रमणकारी जापानी सैनिकों के थे?
नृविज्ञानियों के रिपोर्ट के अनुसार यह अस्थि पिंजर उंँची कद-काठी के मनुष्यों के थे और जापानी नागरिकों के बौने कद से यह बिल्कुल मेल नहीं खाते थे। इसके अतिरिक्त भी एक बात यह थी कि इनके कपाल का आकार भी जापानी चेहरों से भिन्न था। कंकालों का रहस्य और गहराता जा रहा था।
हमने शृंखला के पहले भाग में पढ़ा कि डॉ लॉंगस्टाफ ने इस घटना से वर्षों पहले सन १९०७ में ही इन कंकालों की खोज कर ली थी लेकिन दुर्गम क्षेत्र में बिखरे पडे कंकालों का रहस्य तब भी अनसुलझा था और १०४२ में भी अनसुलझा ही रहा।
कौन थे वह दुर्भागी लोग जो वर्षों से अपनी मृत्यु का रहस्य समेटे कंकाल रूप में वहाँ प्रतीक्षा कर रहे थे? क्या इन कंकालों का रहस्य कभी उजागर होने वाला था या इनकी नियति में हमेशा के लिए रहस्यों के घेरे में रहना लिखा था? जानने का प्रयास करेंगे, अगली कड़ी में…!!!
» सभी तस्वीरें गूगल से साभार
- संदर्भ
- www.bbc.com
- सफारी (गुजराती पत्रिका)