18वीं शताब्दी का भारत

मुगलिया साम्राज्य के ढलते दिन और मराठों का स्वर्णिम काल, छत्रपति शिवाजी राजे के पश्चात मराठे ऐसा योद्धा और सेनानायक ढूंढ रहे थे जो छत्रपति शिवाजी द्वारा देखे गए स्वराज के सपने को पूर्ण कर सके। कालांतर यह खोज समाप्त होती है और बाजीराव के रूप में मराठों को एक ऐसा दुर्दांत योद्धा मिलता है जिसने अटक से कटक तक भगवा फहरा दिया।

बाजीराव अर्थात ऐसा योद्धा जो अपने बाहुबल और युद्ध कौशल से बड़ी से बड़ी शत्रु सेना को ठिकाने लगा देता था।

चलिए आज बात करते है पेशवा बाजीराव प्रथम की..

पेशवा बाजीराव प्रथम (श्रीमन्त पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट) (1700 – 1740) एक महान सेनानायक थे। वे 1720 से 1740 तक मराठा साम्राज्य के चौथे छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा (प्रधानमन्त्री) रहे। बाजीराव का जन्म चितपावन कुल के ब्राह्मण परिवार में हुआ और इनको ‘बाजीराव बल्लाळ’ तथा ‘थोरले बाजीराव’ के नाम से भी जाना जाता है। इन्हे मिली ‘अपराजित हिन्दू सेनानी सम्राट’ की उपाधि बाजीराव के पौरुष को स्पष्ट करती है।

बाजीराव के पिता पेेशवा बालाजी विश्वनाथ भी छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा थे।

“पूत रा पग पालण दिखे।” बचपन से ही बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरन्दाजी, तलवार, भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का शौक था।

कालांतर में जब बाजीराव के पिता का अचानक निधन हो गया तो मात्र बीस वर्ष की आयु में बाजीराव को शाहूजी महाराज ने पेशवा बना दिया।

इस समय भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। मुगल भारत के देवस्थान तोड़ते, जबरन पन्थ परिवर्तन करते, महिलाओं व बच्चों को मारते व भयंकर शोषण करते थे।

ऐसे में श्रीमन्तबाजीराव पेशवा ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे। मानते भी क्यों न श्रीमन्तबाजीराव पेशवा में शिवाजी महाराज जैसी ही वीरता व पराक्रम तो था।

इतिहास के उन महान योद्धाओं में बाजीराव का नाम आता है जिन्होंने कभी भी अपने जीवन में युद्ध नहीं हारा। यह उनकी महानता को दर्शाता है।

अमेरिकी इतिहासकार “बर्नार्ड माण्टोगोमेरीके अनुसार बाजीराव पेशवा भारत के इतिहास का सबसे महानतम सेनापति थे।”

पालखेड़ा का युद्ध (1728 ईस्वी)

बाजीराव प्रथम की सबसे बड़ी जीत 1728 में पालखेड़ा की लड़ाई में हुई जिसमें उन्होंने हैदराबाद के निजाम चिनक्लिच खान की सेनाओं को पूर्णतया दलदली नदी के किनारे ला खड़ा किया, ऐसी परिस्थिति में निजाम के पास आत्मसमर्पण के अलावा कुछ नहीं बचा था। 6 मार्च 1728 को उन्होंने मुंगी शेवगाव की सन्धि की।

इस संधि ने निजाम हैदराबाद के साथ मराठों को दक्खन में सरदेशमुखी और चोथ को लेने का अधिकार दे दिया। बाजीराव ने शाहु को मराठा साम्राज्य का वास्तविक छत्रपति घोषित कर दिया और सम्भाजी द्वितीय को कोल्हापुर का छत्रपति।

बाजीराव की दिल्ली पर चढ़ाई

उसके बाद बाजीराव ने कई और लड़ाई लड़ी परन्तु 1737 में बाजीराव ने दिल्ली पर चढ़ाई करी, मात्र 500 घुड़सवार लेकर बाजीराव इस युद्ध में गए थे मगर बाजीराव का खौफ इतना भयंकर था कि उनके भय से दिल्ली का बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला डरकर महिलाओं की वेशभूषा धारण कर कहीं छुप गया था।

मुगल खजाना लूट कर बाजीराव वापस पुणे की ओर वापस लौटे। मोहम्मद शाह रंगीला ने साआदत अली खान और हैदराबाद के निजाम को पत्र लिखा कि आप बाजीराव को पुणे से पहले ही रोक ले। बाजीराव का सामना भोपाल के निकट निजाम से हुआ, जिसमें बाजीराव की सेना ने दोनों की सेनाओं को हरा कर दोराहा भोपाल की सन्धि की इससे मालवा का सम्पूर्ण क्षेत्र मराठो को प्राप्त हो गया और मराठों का प्रभाव सम्पूर्ण भारत में स्थापित हो गया।

बाजीराव ने सन 1730 मे पुणे में शनिवार वाड़ा का निर्माण करवाया और पुणे को राजधानी नियुक्ति की।

बाजीराव ने हिन्दुपद-पादशाही का वादा किया और सभी हिन्दुओं को एक कर विदेशी शक्तियों के खिलाफ लड़ने का बीड़ा उठाया। उन्होंने 1739 में पुर्तगालियों को बेसिन में पराजित कर वसई की सन्धि कर ली जिसके तहत पुर्तगालियों के अधिकांश क्षेत्र पर हिंदवी स्वराज्य स्थापित हो गया।

बुंदेलखंड विजय

बुंदेलखंड पर महाराज छत्रसाल का राज था, एक मुस्लिम सेनापति मोहम्मद खान बंगस ने बुंदेलखंड को घेर लिया। छत्रसाल ने बाजीराव से मदद मांगी, बाजीराव आए और बंगस की सेना को पराजित कर महाराजा छत्रसाल को बचा लिया और वापस उन्हें उनका बुन्देलखण्ड राज्य लौटा दिया।

इससे प्रसन्न होकर राजा छत्रसाल ने अपनी पुत्री मस्तानी का विवाह बाजीराव से कर दिया साथ ही चार जागीरें भी तोहफे में दी। वो चार जागीरें सागर, कालपी, हृदयनगर और झांसी थी।

अपने यशोसूर्य के मध्यकाल में ही 28 अप्रैल 1740 को असाध्य रोग के कारण बाजीराव की असामयिक मृत्यु हो गई। मस्तानी से उनके सम्बन्ध के कारण पारिवारिक कलह के चलते श्रीमन्त साहेब के अंतिम दिन क्लेशमय बीते।

उनके निरन्तर अभियानों के परिणामस्वरूप निस्सन्देह मराठा शासन को अत्यधिक भार वहन करना पड़ा। हिंदवी साम्राज्य सीमातीत विस्तृत होने के कारण असंगठित रह गया, मराठा संघ में व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाएँ प्रस्फुटित हुईं तथापि श्रीमन्तबाजीराव पेशवा की लौह लेखनी ने निश्चय ही मराठा इतिहास का गौरवपूर्ण परिच्छेद रचा।

सर रिचर्ड टेपिल लिखते है कि “सवार के रूप में बाजीराव को कोई भी मात नहीं दे सकता था। युद्ध में वह सदैव अग्रगामी रहता था। यदि कार्य दुस्साध्य होता तो वह सदैव अग्नि-वर्षा का सामना करने को उत्सुक रहता। वह कभी थकता न था। उसे अपने सिपाहियों के साथ दुःख-सुख उठाने में बड़ा आनन्द आता था।

विरोधी म्लेच्छ राज्यों और राजनीतिक क्षितिज पर नवोदित यूरोपीय सत्ताओं के विरुद्ध राष्ट्रीय अभियानों में सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा उसे हिन्दुओं के विश्वास और श्रद्धा में सदैव मिलती रही।

वह उस समय तक जीवित रहा जब तक अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक और अटक से कटक नदी तक सम्पूर्ण भारतीय महाद्वीप पर मराठों का भय व्याप्त न हो गया। उसकी मृत्यु डेरे में हुई, जिसमें वह अपने सिपाहियों के साथ आजीवन रहा।”

आजीवन युद्धरत पेशवा या लड़ाकू पेशवा के रूप में तथा हिन्दू शक्ति के अवतार के रूप में मराठे उनका स्मरण करते हैं। उस गौरक्षक ब्राह्मण पेशवा का समस्त हिन्दू धर्म आभारी रहेगा ,जब भी इतिहास में महान योद्धाओं की बात होगी तो निस्सन्देह महान पेशवा श्रीमन्तसाहब बाजीराव के नाम से लोग ओत-प्रोत होंगे।

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