पृथ्वीराज चौहान, नाम सुनते ही उस प्रतापी सम्राट का स्मरण हो आता है जिसने इस भारत भूमि की रक्षार्थ अपना सर्वस्व निछावर कर दिया ।
चलिए आपको ले चलते है उसी दौर में और सुनते है उस महाप्रतापी अंतिम हिन्दू सम्राट की कहानी ..
सोमेश्वर चौहान और कर्पूरी देवी
12 वी शताब्दी का भारत, राजस्थान के तपते धोरों में अजमेर में चौहान वंश का शासन। महाराज सोमेश्वर की असमय मृत्यु और तुर्कों के लगातार होरहे आक्रमणों से समस्त अजमेर और भारत को आने वाले खतरे का आभास हो रहा था।
युवराज पृथ्वीराज अभी छोटे थे, सभी मंत्रियों में दुविधा थी की इस संकट की घड़ी में कौन राज्य को संभालेगा।
लेकिन भारत आभारी है उस क्षत्राणी का जिसने इस परिस्थिति में साम्राज्य को टूटने नहीं दिया, जी हां मैं बात कर रहा हूं पृथ्वी की मां कर्पूरी देवी की जो चेदी वंश की राजकुमारी थी, वो पृथ्वीराज की संरक्षिका बनी। मात्र 11 वर्ष की उम्र में पृथ्वीराज चौहान सन 1177 में राजा बने, जहां मध्य काल में विश्व के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की स्तिथि दयनीय थी, यह वो दौर था जब भारत में महिलाएं शासन व्यवस्थाएं सम्हाला करती थी।
चौहान राज्य की सीमाएं दिल्ली तक थी, जैसे जैसे पृथ्वीराज बड़े हों रहे थे उनकी ख्याति बढती गई।
महोबा (तुमुल) के युद्ध (सन् 1182) में उन्होंने चंदेल राजा परमार्दीदेव चंदेल को बुरी तरह हराया था।
यह युद्ध परमार्दिदेव चंदेल के दो सेनापतियों आल्हा और ऊदल की वीरता के लिए भी याद किया जाता है।
कालांतर में गुजरात के चालुक्य राजा भीम ॥ को हराया और इस तरह पृथ्वीराज नामक सूर्य का भारतभूमि पर उदय हुआ।
चौहान गहड़वाल विवाद
पृथ्वीराज चौहान और कन्नौज के राजा जयचंद आपस में दूर के रिश्तेदार हुआ करते थे, पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर की मृत्यु के बाद कन्नौज नरेश जयचंद ने दिल्ली पर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न किया परंतु सभी मंत्रियों ने और सभासदों ने पृथ्वीराज चौहान को सही उत्तराधिकारी मानते हुए दिल्ली में उनका राज्य अभिषेक कर दिया, इस घटना के पश्चात जयचंद और पृथ्वीराज के बीच आपसी मतभेद चरम पर पहुंच गए।
चंदबरदाई (पृथ्वी भट्ट) की पुस्तक पृथ्वीराजरासो के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने राजा जयचंद की बेटी संयोगिता का अपहरण कर उनसे विवाह कर लिया था उससे भी दोनो राज्यों के बीच कटुता चरम पर पहुंच गई थी।
कई इतिहास कार इसका खंडन करते है और इस बात को जनमानस से उपजी कहानी के सिवा और कुछ नही मानते। हालांकि दशरथ शर्मा अपनी पुस्तक दी अर्ली चौहान डायनेस्टीज में इस बात को सच मानते है।
समय का चक्र चलता रहता है और सम्राट पृथ्वीराज का अधिकार क्षेत्र अटक नदी तक बढ़ जाता है, उधर सुदूर पश्चिम में एक सुलतान मुहम्मद गौरी का उदय हो चुका था ये लोग काबिलाई थे जिनका न ईमान था न युद्ध करने के कोई नियम थे, मकसद था तो सिर्फ अपने मत-पंथ का प्रचार प्रसार करना और धर्मांतरण करना।
सन 1188 आते आते मोहम्मद गौरी के आक्रमण आज के पंजाब तक शुरू हो गए थे, सन 1191 में उसने तबरहिंद (भटिंडा) पर कब्जा कर लिया और यही तराइन के प्रथम युद्ध का कारण बना।
तराइन का प्रथम युद्ध
तराइन के रणभूमि में लडा गया यह युद्ध आने वाली कई शताब्दियों तक याद रखा जाने वाला था, एक तरफ हाथी पर सवार सम्राट पृथ्वीराज चौहान और उनके सेनापति चामुंडराय और दूसरी ओर धूर्त मुहमद गौरी, उस वक्त अफगान सेनाएं युद्धों में अश्वों का इस्तेमाल करना शुरू कर चुकी थी जबकि भारतीय राजा अभी भी हाथी दस्ता आगे रखा करते थे।
भीषण युद्ध में पृथ्वीराज अपनी पूर्ण सैन्य शक्ति के साथ युद्ध लड़ रहे थे, अपनी कूटनीति और सैन्य पराक्रम के बल पर पृथ्वीराज ने तुर्क सेना को गाजर मूली की तरह काट दिया और गौरी को गिरफ्तार कर के अजमेर ले आया गया।
वहां कई दिनों को उसे कैद रखा गया, चंदबरदाई अपनी पुस्तक ने लिखते है की बंधनावस्था में गौरी अपने प्राणों को भीख मागता था। चूंकि सनातन संस्कृति यह कहती है की अगर शत्रु अपने प्राणों की भीख मांगे और अधीनता स्वीकार कर ले तो उसे प्राणदान दे दिया जाए और भारतीय राजाओं के लिए सनातन मूल्यों का पालन ही धर्म था। इसी आधार पर गौरी को मुक्त कर दिया गया।
लेकिन धूर्तता अफगानों की रगो में बहती है, ठीक एक साल की पूरी तैयारी के बाद वापस मुहम्मद गौरी अपनी सेना लिए भारत की सीमा पर खड़ा था। उसने पृथ्वीराज को दूत के माध्यम से धर्मांतरण और शरणागति या युद्ध की चुनौती दी।
तराईन का द्वितीय युद्ध
वास्तव में इसे युद्ध न कहकर विश्वासघात या धोखा कहे तो ज्यादा उचित होगा। दोनो की सेनाएं एक बार फ़िर आमने सामने थी लेकिन गौरी ने कुटिल चाल चलते हुए पृथ्वीराज को संदेश भिजवाया कि वह क्षमा चाहता है की वह फिर से युद्ध करने यहां आ गया, लेकिन अब वह वापस नहीं जा सकता क्यूं की उसके भाई ने गजनी में सत्ता अपने हाथ में ले ली है, यदि वह वापस लौटा तो उसे वहाँ मार दिया जाएगा, इसीलिए वो बस कुछ दिन यहां रखके लौट जाएगा।
पृथ्वीराज ने उसकी बात तो मान ली पर अपनी सेना सहित वही डेरा डाले रहा, कई माह बीत गए दोनो ओर से कोई हलचल नहीं हुई, गौरी बड़ी ही शांति से वही डेरा डाले रुका रहा।
चूंकि सम्राट पृथ्वीराज का साम्राज्य बड़ा था और उसकी अन्य सीमाओं पर भी छोटे मोटे आक्रमण होते रहते थे इसलिए पृथ्वीराज ने अपनी सेना की कुछ टुकड़ियों को राज्य कई अन्य सीमाओं की तरफ भेजना शुरू कर दिया और सैन्य का एक भाग स्वयं के साथ लेकर वही रुका रहा।
गौरी इसी मौके की फिराक में था, साथ ही जयचंद जो कन्नौज के राजा थे वह भी गौरी को मदद पहुंचा रहे थे। जयचंद की मदद से गौरी और मजबूत हो गया था!
अचानक एक रात एकाएक पृथ्वीराज की छावनी को चारों और से घेर लिया गया, और सोते हुए राजपूत सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया, सम्राट पृथ्वीराज ने अपनी सेना के साथ इस छल का डटकर मुकाबला किया पर वह प्रयास पर्याप्त नहीं थे।
चौहान सम्राट यह युद्ध हार चुके थे, उन्हें सिरसा के समीप सरस्वती में गिरफ्तार कर लिया गया।
एहसन निजामी अपनी पुस्तक ताज उल मासिर में लिखता है कि पृथ्वीराज ने कुछ दिनों मोहम्मद गौरी के अधीन शासन किया था, किन्तु भारतीय इतिहासकार इस बात को मान ने से इंकार करते हैं।
चंदबरदाई के अनुसार गौरी पृथ्वीराज को अपने साथ बंदी बनाकर गजनी ले गया और वहां ले जाकर उसने पृथ्वीराज की आंखें आंखे नोच ली। और इस घटनाक्रम के दौरान स्वयं चंदबरदाई भी वही मौजूद थे।
जब सम्राट को मौत के घाट उतारा जा रहा था तब कवि चंद गौरी से कहते हैं कि सुलतान आप ने इनको मार दिया तो आप एक शानदार कला को देखने से वंचित रह जाओगे, गौरी उससे पूछता है की वह कौनसी कला है जो सिर्फ इसी व्यक्ति के पास है?
कवि चंद कहते है की सम्राट पृथ्वीराज चौहान शब्दभेदी बाण चलाने की कला को जानते हैं यानी जिस और से शब्द बोला जाए सम्राट उसी और सटीक निशाना साध सकते हैं। गौरी को यह सुनकर आश्चर्य हुआ की ऐसा भी कुछ हो सकता है।
अगले दिन दरबार लगा, सम्राट के हाथ में तीर कमान थे और जब उन्हें निशाना लगाने को कहा गया तभी कवि बोले,
चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण
ता ऊपर सुल्तान है , मत चुके चौहान ।।
यह सुनते ही सम्राट ने तीर चलाया और तीर सीधा गौरी को भेदता हुआ चला गया। इसके पश्चात पृथ्वीराज और चंदबरदाई को वहीं मौत के घाट उतार दिया गया।
अब ये कहानी कितनी सच है कितनी झूठ ये तो इतिहास के गर्भ में है परंतु तराइन के दूसरे युद्ध में हार से भारत पर विदेशी शासन की ऐसी श्रृंखला प्रारंभ हुई जो 1947 में जाकर समाप्त हुई। इस युद्ध ने भारतीय उपमहाद्वीप के आने वाले समय को पूरा पलट के रख दिया।
पृथ्वीराज चौहान को उनकी वीरता के कारण दल पुंगल की उपाधि दी गई है, ऐसा राजा जिसने अपनी वीरता से इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिख दिया, भारत भूमि सदा आभारी रहेगी उन वीरों की जिन्होंने इस धरती की रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।