कौडिन्यपुर के निःसंतान राजा को पुत्रप्राप्ति की कामना थी और ऋषि विश्वामित्र ने उनको गणेश मंत्र से गणेशोपासना का सुझाव दिया। भक्तवत्सल गणपति ने राजा की मनोकामना पूर्ण की, कौडिन्यपुर को रूक्मांगद जैसे रूपवान राजकुमार का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
एक समय की बात है। शिकार पर वन में भटक रहे रूक्मांगद पर एक तपस्वी ऋषि की पत्नी मोहित हो गई। ऋषि पत्नी ने राजकुमार के समक्ष प्रणय निवेदन किया किन्तु रूक्मांगद ऐसे किसी भी अवैध संबंध के लिए तैयार नहीं था।
त्यक्त ऋषि पत्नी की कामेच्छा का लाभ उठा कर देवराज इंद्र ने राजकुमार का रूप धारण कर आश्रम में प्रवेश किया। ऋषि पत्नी के साथ इंद्र द्वारा छल से बनाए गए इस संबंध से मुकुंदा को पुत्र प्राप्ति हुई जिसका नाम गृत्समद रखा गया।
गृत्समद बडा होता गया। असत्य कब तक छुपा रह सकता है जो इस प्रसंग में छुपा रहे पाता! गृत्समद को अपनी माता के कृत्यों का पता चलते ही उसने क्रोधित हो के अपनी ही माता को कंटकमय वृक्ष बन जाने का श्राप दिया। वह स्वयं एक ऋषि था, उसका श्राप व्यर्थ कैसे जाता!
ऋषि पत्नी मुकुंदा का शरीर कंटकमय वृक्ष में परिवर्तित हो गया। यह देखते ही गृत्समद को अपने क्रोध पर नियंत्रण ना रख पाने का पश्चाताप हुआ। अपनी ही माता को श्रापित करने की ग्लानि में उसने ॐ गं गणपतये नमः के जाप से कठोर तपस्या की।
गणेश जी उसकी तपस्या से प्रसन्न हो के उसके समक्ष प्रकट हुए। उन्होंने गृत्समद के सर पर वरद हस्त रखते हुए वरदान मांगने को कहा। प्रत्युत्तर में गृत्समद ने अपनी तपोभूमि पर गणेशजी को स्वयंभू रूप में बस जाने का निवेदन किया जिसे गणपति बप्पा ने सहर्ष स्वीकारा।
मान्यतानुसार जिस स्थान पर गणेश जी ने गृत्समद को वरदान दिया वहाँ दर्शन करने से भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है। पुत्रेच्छा प्राप्ति के लिए भी निःसंतान दंपत्ति यहाँ दूर दूर से चले आते हैं।
इतिहास और स्थापत्य
लोकोक्तियों के अनुसार गणपति जी ने एक भक्त को स्वप्न में संकेत दिया और सन १६९० में तालाब से स्वयंभू मूर्ति प्राप्त हुई। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मराठा सूबेदार रामजी महादेव बिल्वलकर ने इस स्थान पर शिखरबद्ध मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर प्रांगण में शिवालय और नवग्रह मंदिर के उपरांत चारों दिशाओं में गजराज की प्रतिमाएँ मुख्य आकर्षण हैं।