श्री विघ्नेश्वर गणपति, ओझर
पृथ्वीलोक के एक छोटे से राज्य के राजा अभिनंदन ने देवराज इंद्र के सिंहासन पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए एक महान यज्ञ का आयोजन किया। यदि यह यज्ञ संपन्न हो जाता तो इंद्रलोक और स्वर्ग से इंद्र देव का निष्कासन होने से कोई भी नहीं रोक सकता था।
किन्तु जैसे हर पौराणिक कथा में होता आया है, इंद्र ने अभिनंदन के इस यज्ञ को बाधित करने के लिए षड्यंत्र का आश्रय लिया। साम दाम दंड भेद किसी भी प्रकार से शत्रु को पराजित करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य था।
अभिनंदन के यज्ञ को बाधित करने के लिए उन्होंने विघ्नासुर नामक असुर को भेजा। अपने नाम के अनुरूप ही वह असुर यज्ञ में विघ्न डालने आ धमका।
लेकिन फिर से एक बार वही हुआ जो होता आया है, विघ्नासुर ने यज्ञ भंग कर दिया लेकिन वह उसके बाद भी नहीं रूका। यज्ञ भंग कर के उसने इंद्रलोक को अपना अगला लक्ष्य बनाया।
देवराज इंद्र समेत सभी देवतागण भयभीत हो उठे। इस विघ्नासुर नामक विघ्न से देवताओं को मात्र गणेश जी ही बचा सकते थे। देव गणों ने गणपति बप्पा की आराधना की और विघ्नासुर का वध किया।
विघ्नासुर की अंतिम इच्छा को मानते हुए वह विघ्नेश्वर के रूप में जिस स्थान पर विराजे उस स्थान पर अष्टविनायक क्षेत्र के सातवां मंदिर स्थित है।
बाजीराव पेशवा के भाई चिमाजी अप्पा ने पुर्तगाली सेना को वसई के अभियान में परास्त करने के पश्चात इस मंदिर का जिर्णोद्धार कराया था। दुर्ग के रूप में निर्मित इस पूर्वाभिमुख मंदिर में पाषाण में उत्कीर्ण चोपदार-भालदार गणेश जी के द्वारपाल हैं। इस मंदिर में गणेश जी अपनी दोनों पत्नियों रिद्धि सिद्धि के साथ विराजमान हैं।
श्री महागणपति, रांजणगाँव
गृत्समद ऋषि के पुत्र त्रिपुरासुर ने तपस्या से विशिष्ट शक्तियां प्राप्त कर ली थीं। इन्हीं शक्तियों का उपयोग करते हुए उसने महाबली देवताओं को भी पराजित कर दिया था। अहंकार से चूर त्रिपुरासुर ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा दिया था।
त्रिपुरासुर का अंत मात्र महादेव ही कर सकते थे। इस विनाशकारी राक्षस से रक्षा के लिए देवताओं ने महादेव के शरण में आश्रय लिया। त्रिपुरासुर से युद्ध से पूर्व भोलेनाथ ने रांजणगाँव में विनायक का अनुष्ठान किया।
रांजणगाँव के महागणपति को सभी अष्टविनायक क्षेत्रों में सर्वशक्तिशाली माना जाता है।
कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन महादेव ने त्रिपुरासुर का वध किया और इसी कारण इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा कहा जाता है।
जिस स्थान पर स्वयं महागणपति विराजमान हों वहाँ पार्थिव मूर्ति की क्या आवश्यकता… इसी कारण रांजणगाँव में गणेश चतुर्थी के पर्व पर पार्थिव मूर्तियों की प्रथा नहीं है, सभी ग्राम्य जन मंदिर में ही गणोशाराधना करते हैं।
महाराष्ट्र के गणेश भक्त शासक पेशवाओं ने इस मंदिर के जिर्णोद्धार और रखरखाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैहै और इसका प्रमाण इस मंदिर के स्थापत्य कला में भी झलकता है।