महात्मा गाँधी केवल स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता ही नहीं, बल्कि सभ्यता-संस्कृति, साहित्य, कलाओं के मर्मज्ञ समीक्षक भी थे। दरअसल, उनका राजनीतिक आंदोलन अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने के लिए अधिक था।
यही वजह है कि राजनीतिक चिंतन के अलावा वे साहित्य और कलाओं के बारे में भी गहन चिंतन-मनन किया करते थे। प्रसिद्ध गायक दिलीप कुमार राय से बातचीत करते हुए सन उन्नीस सौ चौतीस में गाँधी जी ने कहा कि “वही काव्य और वही साहित्य चिरजीवी रहेगा जिसे लोग सुगमता से पचा सकेंगे। ऐसे साहित्य का सृजन वहीं कर सकता है जिसने साहित्य के विषय से साक्षात्कार कर लिया है। अर्थात जो इसे जीता है।”
गाँधीधी जी के विचारों का साहित्य व उस समय के साहित्यकारों पर गहरा प्रभाव पड़ा। गाँधी विचारो कि खाद पानी पाकर साहित्य की बगिया वर्तमान में भी पुष्पित पल्लवित हो रही है।
गाँधी जी के संसर्ग में अनेकोनेक साहित्य के मनीषियों को रहने सुअवसर मिला। जो भी उनके संसर्ग में रहा उसने खुद की चेतना को मंजा हुआ तथा और चमकदार पाया।
गाँधी के विचार पारस थे जिसने भी उनके वचनों को गुना उसका हृदय स्वर्णाभा सा चमक उठा।
हिंदी साहित्य के पुरोधा भी सदी के महामानव के विचारो से प्रभावित हुए बिना न रह सके। हिंदी कथा साहित्य में सर्वोच्च स्थान रखने वाले उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने गाँधी जी से प्रभावित होकर नौकरी से इस्तीफा दे दिया था।
आठ फरवरी उन्नीस सौ ग्यारह को महात्मा गाँधी गोरखपुर आए। प्रेमचंद उन दिनों गोरखपुर में ही रह रहे थे सो वो पत्नी और बच्चों के साथ गाँधी जी का भाषण सुनने गए।
प्रेमचंद जी की पत्नी शिवरानी देवी स्वयं लिखती हैं, ‘असहयोग का जमाना था। गाँधी जी गोरखपुर में आए। आप(प्रेमचंद) बीमार थे, फिर भी मैं, दोनों लड़के, बाबूजी मीटिंग में गए। महात्माजी का भाषण सुनकर हम दोनों बहुत प्रभावित हुए। हाँ, बीमारी की हालत थी। विवशता थी। मगर तभी से सरकारी नौकरी के प्रति एक तरह की उदासीनता पैदा हुई।’
प्रेमचंद को चालीस रुपये वेतन मिलता था। इसमें से दस रुपये वह अपनी चाची को भेज देते थे। बेहद तंगी थी। इसके बावजूद गाँधी जी के भाषण के प्रभाव में उन्होंने नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया लेकिन यह निर्णय इतना आसान नहीं था।
प्रेमचंद ने अपनी पत्नी शिवरानी देवी से इस विषय पर राय मांगी। नौकरी छोड़ना एक बड़ा फैसला था वो भी तब जब घर के सारे खर्चे तनख्वाह के नोटों से चलने हो। लेकिन ये गाँधी जी का प्रभाव ही था कि शिवरानी देवी ने नौकरी छोड़ने के लिए सहमति दे दी।
शिवरानी देवी लिखती है, “मैंने उनसे कहा, छोड़ दीजिए नौकरी को। पच्चीस वर्ष की नौकरी छोड़ते हुए तकलीफ तो होती ही थी। मगर नहीं! यह जो मुल्क पर अत्याचार हो रहे थे, उसको देखते हुए वह शायद नहीं के बराबर था। छोड़ दीजिए नौकरी क्योंकि इन अत्याचारों को तो अब सबको मिलकर मिटाना होगा और यह सरकारी नीति अब सहनशक्ति के बाहर है”
शिवरानी देवी की सहमति मिलने के अगले दिन प्रेमचंद ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और सरकारी मकान भी छोड़ दिया।
फिराक़ गोरखपुरी ने प्रेमचंद के नौकरी से इस्तीफा देने के बारे में लिखा है, ‘यदि वह नौकरी करते रहते तो निश्चित है कि आज वह अपने महकमे में काफी तरक्की कर चुके होते और उनकी गिनती इस सूबे के शिक्षा विभाग के बड़े अफसरों में होती लेकिन सन 1919 के असहयोग आंदोलन के समय, जब उनकी अवस्था 30 वर्ष से कुछ अधिक हो चुकी थी, मेरे यूपी सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ने के कुछ ही हफ़्तों बाद वह भी सरकारी नौकरी से अलग हो गए।’
हिंदी के आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु किशोरावस्था में ही गाँधी से प्रभावित थे। रेणु जब हाईस्कूल के विद्यार्थी थे तब महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही पूरा बाजार बंद हो गया और स्कूल के छात्रों ने हड़ताल कर दी।
रेणु हड़ताल के साथ पिकेटिंग भी कर रहे थे। दूसरे दिन स्कूल की तरफ से हड़ताली छात्रों के लिए आठ आने की सजा मुकर्रर की गई। छात्रों को माफ़ी की दरख्वास्त पर माफ करने का विकल्प दिया गया। लेकिन रेणु पर हेडमास्टर साहब से अशोभनीय व्यवहार के लिए सारे स्कूल के छात्रों के सामने पांचवीं घंटी के बाद दस बेत लगाने की आतिरिक्त सजा मुकर्रर की गई।
रेणु ने माफी मांगने से इंकार कर दिया। नियत समय पर सभी छात्र एकत्रित हो गए। सजा देने के लिए मास्टर साहब भी शेरवानी पहने और बेंत घुमाते हुए आ पहुंचे।
बेंत मारने से पहले मास्टर जी ने अंग्रेजी में कुछ कहा और फिर चिल्लाए – स्ट्रेच योर हैंड! रेणु ने जवाब दिया – व्हिच हैंड! लेफ्ट ऑर राइट ? भीड़ से कई आवाजे एक साथ आई – शाबाश! मास्टर साहब ने जब राइट कहा तभी रेणु ने हाथ पसारा। मास्टर साहब ने मारना शुरू किया – वन! रेणु ने नारा लगाया वन्दे मातरम्! ….टू! रेणु ने नारा लगाया ‘महात्मा गाँधी की जय’।
छुट्टी को घंटी बाजवा दी गई लेकिन भीड़ बढ़ती चली गई और नारे बुलंद होते गए। इसके बाद सारा कस्बा जमा हो गया। लोगो ने रेणु को कंधे पर उठाकर जुलूस निकाला। लगभग हूबहू यह घटना रेणु के उपन्यास ‘कितने चौराहे’ में भी आती है। रेणु का यह आत्मबल गांधी के प्रभाव का ही परिणाम था।
आधुनिक युग की मीरा कहीं जाने वाली महादेवी वर्मा का जीवन भी गाँधी जी के विचारो से आलोकित था। उन्नीस सौ बत्तीस का समय था। महादेवी ने ऑक्सफोर्ड में छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किया। जो स्वीकार भी हो गया।
इसके बाद महादेवी छात्रवृत्ति लेने को लेकर असमंजस में पड़ गई। अपने मन की दुविधा लेकर वह महात्मा गाँधी से मार्गदर्शन लेने अहमदाबाद आई। महादेवी ने गाँधीजी से पूछा, ‘‘बापू मैं विदेश जाऊं या नहीं ?’’
गांधीजी कुछ देर चुप रहने के बाद बोले, ‘अंग्रेजों से हमारी लड़ाई चल रही है और तू विदेश जाएगी? अपनी मातृभाषा के लिए काम करो और बहनों को शिक्षा दो।’
यहीं से महादेवी के जीवन की राह बदल गई। उसके बाद हिंदी की आधुनिक मीरा महादेवी वर्मा ने महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक निर्भरता के लिए बहुत काम किया।
कालक्रम की दृष्टि से हिंदी साहित्य में छायावाद का आरंभ और गाँधी जी का दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश वापसी साथ-साथ होता है। इस समय का भारत परंपरागत जड़ता एवं ब्रिटिश शासन की क्रूर-नीति के कारण दोहरे शोषण का शिकार था।
गाँधी जी के स्वदेश आगमन के साथ ही स्वाधीनता आंदोलन का जो बीज भारत में पनप रहा था, देश के कोने-कोने में पहुँचने लगा। स्वाधीनता आन्दोलन के निर्माण में गाँधी जी के व्यक्तित्व एवं उनके विचार का अहम् योगदान था। वे राजनीति से ज्यादा अध्यात्म के निकट थे। उनकी दृष्टि राजनीतिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि समस्याओं तक जाती थी। इसलिए उनका प्रभाव राजनीति के अतिरिक्त वैचारिक और सांस्कृतिक जीवन पर भी पड़ा।
गाँधी जी के इसी व्यक्तित्व के कारण, उनके एक आह्वान पर भारत की बयार बदल जाती थी। फिर इस बयार से पन्त जी कैसे वंचित रह सकते थे?
सन् 1921 में महात्मा जी के भाषण से प्रभावित हो पन्त जी ने कॉलेज छोड़ दिया। पंत जी कि युगांत आदि रचनाओं में गांधीवादी विचारधारा का पुट साफ देखा जा सकता है।
इसके अलावा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और भारत के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर में एक समानता थी। दोनों के लिए देश किसी भौगोलिक संरचना से कहीं ज्यादा महत्व रखता था। दोनों के लिए देश का मतलब सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं था।
दिनकर के लिए गाँधी मानवता की सबसे बड़ी मिसाल थे। दिनकर ने गांधी के लिए कई कविताएं लिखी। वह महात्मा गांधी के विचारों से इतने प्रभावित थे कि 1947 में ‘बापू’ नामक उनकी काव्य संग्रह छपी जिसमें उन्होंने बापू को समर्पित चार कविताएं लिखीं थीं।
शरीर से बेहद कमजोर एक व्यक्ति अपने अहिंसा के दम पर आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। उसकी ताकत को राष्ट्रकवि ने भी पहचाना और लिखा। दिनकर में गाँधी की विराटता के प्रति आकर्षण कभी कम नहीं हुआ। वे गाँधी की विराटता से अभिभूत थे।
कव्य-संग्रह में गाँधी की विराटता के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करते हुए दिनकर कहते हैं ‛बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी, पर कहने दे / लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे।’
दिनकर के लिए गाँधी गरिमा के महासिंधु थे। क्योंकि वे एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में सत्य और अहिंसा के बल पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को न सिर्फ चुनौती दे रहे थे, बल्कि उसे शिकस्त भी दे रहे थे।
दिनकर ने ‛बापू’ में लिखा था- ‛विस्मय है, जिस पर घोर लौह-पुरुषों का कोई बस न चला / उस गढ़ में कूदा दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला।’ किन्तु ‛बापू’ संग्रह के प्रकाशन के छह
महीने के भीतर दिनकर के ‛दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला’ धार्मिक उन्मादियों के हाथों मार दिया गया।
गाँधी की हत्या से दिनकर को बहुत गहरा आघात पहुँचा। गाँधी जी की मृत्यु के अगले दिन दिनकर आत्मग्लानि भरे स्वर में कहते हैं –लौटो, छूने दो एक बार फिर अपना चरण अभयकारी/रोने दो पकड़ वही छाती, जिसमें हमने गोली मारी।
गाँधी जी के देहावसान के बाद भी हिंदी साहित्य उनके विचारो की उंगली थाम निरंतर आगे बढ़ रहा है। हिंदी साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा होगी जिसमें गाँधीवादी साहित्य न रचा गया हो।
समाज में जब भी शोषण सर उठाएगा किसी न किसी गांधी के सामने उसे झुकना ही होगा और साहित्य विचारो के बापू की उंगली थामे निरंतर आगे बढ़ता रहेगा।