नर्मदा तट पर स्थित छोटे से मंदिर में घंटनाद हो रहा था। नदी के प्रवाह की ध्वनि ‘गायति रेवा रव मधुरम्’ की पंक्तियों को सार्थक करते हुए अकबर के किले से लगे हुए घाट पर मंद मंद बह रही थी। कुछ भक्त मंदिर में प्रातः काल के दर्शन के लिए जुटे हुए थे तो घाट पर साधु-संन्यासी नर्मदा के जल में डुबकी लगाते हुए ‘नर्मदे हर’ की गर्जना कर रहे थे। पूर्व से उदयमान सूर्य समस्त प्रदेश को अपनी उर्जा से भरता जा रहा था।

घाटों से आगे बढ़ते हुए ढलान के उपरी भाग में दूध सी सफेद, एक छोटी सी हवेली जैसी इमारत का एकमात्र द्वारपाल नदी की ओर जाने वाले मार्ग पर दृष्टि गड़ाए खड़ा था। इमारत के आसपास वट, पीपल और आम्र के पेड़ों पर पंछियों का मधुर गुंजन सुनाई दे रहा था। प्रवेश द्वार के बिल्कुल सामने कलात्मक काष्ठ स्तंभों से सजे सामान्य से दरबार में नीरव शांति पसरी हुई थी। नर्मदा के घाट से महल तक सभी पशु-पक्षी और मनुष्य अपनी दिनचर्या का आरंभ कर रहे थे किन्तु उन सभी के शारीरिक और मानसिक आयामों में उथल-पुथल मची हुई थी। गाँव से बड़े और नगर से छोटे इस राज्य के अस्तित्व पर अनिश्चितता और पतन का साया मंडरा रहा था।

महल के दक्षिणी हिस्से में स्थित एक छोटे से खंड में करीब चालीस वर्षिय सांवली महिला धवल वस्त्र धारण किए पूजार्चना में मग्न थीं। खुले द्वार से नदी तक से बहती हुई ठंडी हवा का खंड में संचार हो रहा था। महिला के होंठों पर महामृत्युंजय मंत्र का जाप था और उनकी कोमल उंगलियों में बिल्वपत्र थे। वैधव्य के सफेद वस्त्र और सामान्य कद-काठी के बावजूद उनके व्यक्तित्व में गरिमा और दृढ़संकल्प झलक रहा था। खंड के मध्य में स्थापित महादेव का लिङ्ग और पिछली दीवार पर लगी गणपति की प्रतिमा इस सती की भक्ति की मुग्धता से प्रशंसा कर रहे थे।

महिला ने बिल्वपत्र को नर्मदा जल में भिगोते हुए शिवलिङ्ग के शिरोवर्तन पर चढ़ाया। तभी खंड के दरवाजे पर द्वारपाल ने कदम रखा। उसके चेहरे पर चिंता के भाव थे। पूजा मग्न महिला ने सर उठा उसकी तरफ देखा, वह थोड़ा हिचकिचाया। पूजा के समय किसी भी प्रकार की रूकावट अक्षम्य थी किन्तु द्वारपाल के पास और कोई चारा भी तो नहीं था। उसने कांपते स्वर से कहा ‘महारानी साहेब, पुणे से राव आए हैं… आपसे तत्काल मिलना चाहते हैं।’

द्वारपाल की घबराहट और संकोच को महारानी ने भांप लिया। उन्होंने सौम्य मुस्कान से उसको प्रत्युत्तर देते हुए कहा “उन्हें प्रतीक्षा खंड में बिठाओ, पूजा संपन्न कर के हम उनसे मिलते हैं।” लेकिन धैर्यहीन आगंतुक प्रतीक्षा करने के लिए राजी नहीं था। द्वारपाल के पीछे-पीछे वह भी पूजा खंड में आ धमका। उसको देखते ही द्वारपाल और महारानी के चेहरे पर नाराजगी उभरी। बिन-बुलाए अतिथि की यह चेष्ठा महारानी की पूजा-अर्चना में ख़लल डाल रही थी।



“गंगाधर राव, आप प्रतीक्षा खंड में बैठिए,” महारानी ने सत्तावाही स्वर में आदेश दिया “हम पूजा के बाद चर्चा करते हैं।”

किन्तु आगंतुक प्रतीक्षा करने को राज़ी नहीं था। “महारानी साहेब, आपने मेरे प्रस्ताव पर विचार किया?” उसके शब्दों में अहंकार के छींटें थे। “आप एक महिला हैं और राज्य शासन चलाना आपके लिए उपयुक्त नहीं होगा।”

रानी साहेब शांत भाव से शिवलिङ्ग पर नर्मदा जल से अभिषेक करतीं रहीं। उनके चेहरे पर ना तो क्रोध था और ना ही डर था। उनकी निडर लेकिन शांत भाव-भंगिमा राव को और उकसा रही थी।

“मेरा मानना है कि,” उसने अपना प्रस्ताव दोहराते हुए कहा, “किसी गुणी बालक को दत्तक ग्रहण कर के हम राजगद्दी पर बिठा दें, उसके वयस्क होने तक राज्य शासन का उत्तरदायित्व मैं संभाल लूंगा…!!”

कुछ क्षणों का अंतराल रखते हुए कुटिलता से उसने आगे कहा, “वंशहीन होळ्कर को उत्तराधिकारी भी मिल जाएगा और उसके सत्तासीन होने तक शासन मैं चलाऊंगा तो आप भी निश्चिंत हो कर शिवाराधना कर पाएंगे।”

महारानी की पूजा संपन्न हो चुकी थी। उन्होंने महादेव के सामने मस्तक झुकाया, मानो वह अपने भोलेनाथ से इस संकट से उबरने का उपाय पूछ रहीं थीं। मालवा का विशालकाय होळ्कर साम्राज्य जिसे मल्हार राव ने अपने पुरूषार्थ और बाहुबल से पल्लवित किया था उसपर संकट के बादल मंडरा रहे थे। अपने श्वसुर की इस विरासत की राजनैतिक गिद्धों और सरहद पर घात लगाए बैठे भेड़ियों से रक्षा करने की जिम्मेदारी अहिल्याबाई पर आ पड़ी थी।

पूजा संपन्न कर के वह खंड से बाहर आईं, राव ने उनका अनुसरण किया। उनके हाथ में एक शिवलिङ्ग था। इस लिङ्ग को वह हमेशा अपने पास रखतीं। महारानी जहां-जहां जाती यह शिवलिङ्ग उनके साथ मार्गदर्शक बन कर जाता। पूजा खंड से बाहर कदम रखते ही अहिल्याबाई ने राव की ओर निर्भीकता से देखा, उनकी आंखें सौम्य होते हुए भी राव को डरा रही थीं। वह झेंप गया फिर भी उसने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी। पुत्र की मृत्यु के बाद निस्संतान हो चुकी महारानी को साम-दंड-भेद से अपने प्रस्ताव को मनवा कर वह सत्ता हासिल करने के प्रयास में था। उसने कहा “राज्य बड़ा है और जिम्मेदारियां भी कठिन हैं, आप कहां यह सब निर्वहन कर पाएंगी?आप तो…”

अब तक मौन रहकर उसका व्यर्थालाप सुन रहीं अहिल्याबाई ने दरबार की ओर आगे बढ़ते हुए राव की बात आधे से काटते हुए कहा, “राज्य के उत्तरदायित्व और रक्षा की चिंता आप ना करें राव…” उनके शब्द कठोर हुए, “बारह वर्ष की आयु में जब एक छोटे से गाँव की लड़की का विवाह मालवा नरेश ने अपने बेटे से कराया था तब से आज तक हमने राज्य व्यवस्था की जटिलताओं को बारीकी से देखा है। पति की युद्ध में अकाल मृत्यु के पश्चात जब हमने सती होने का निर्धार किया था तब हमारे श्वसुर ने हमें रोक लिया था। उनको विश्वास था कि उनकी पुत्रवधू अहिल्या मालवा क्षेत्र पर किसी की कुदृष्टि नहीं पड़ने देगी।”

चर्चा करते हुए दोनों राज दरबार की सीढ़ियों तक पहुंच गए थे। राजसी ठाठ के विपरित यह दरबार किसी सामान्य से मंत्रणा कक्ष जैसा लग रहा था जिसके पिछले भाग के केंद्र में राजगद्दी थी और उसके दोनों तरफ दरबारियों के बैठने की व्यवस्था की गई थी।

सत्ता हथियाने को आतुर राव ने स्थिति को भांपते हुए अपना दांव बदला। अब तक सुझाव और प्रस्ताव की भाषा में बात कर रहे गंगाधर राव ने अहिल्याबाई को डराने के उद्देश्य से कहा, “महारानी साहेब, पुणे से राघोबा दादा भी यही चाहते हैं कि आप सत्ता से परे हट कर धर्म-कर्म में ध्यान लगाएं…” गहरी सांस भरते हुए वह बोला, “आप तो जानती ही हैं कि राघोबा दादा ने ठान ली तो वह कर के ही रहेंगे।”

महाराष्ट्र के छोटे से गांव चौंडी से बाल्यावस्था में ही अहिल्याबाई यहां मालवा क्षेत्र में आ गई थीं। मल्हार राव ने अपने पुत्र खंडेराव के लिए उनको पुत्रवधू के रूप में चुना था लेकिन अहिल्याबाई के लिए वह श्वसुर से अधिक पिता तुल्य बन चुके थे। मालवा की महारानी होने के बावजूद अहिल्याबाई ने सिर्फ दुःख देखे थे। वृद्धावस्था में जब मल्हार राव ने गद्दी अपने पुत्र को सौंपना चाहा तब खंडेराव की युद्ध में मृत्यु हो गई। कुछ वर्ष बाद वृद्ध मल्हार राव का भी देहांत हो गया। पुत्र मालोजीराव के वयस्क होने तक राज्य का भार अहिल्याबाई के कंधों पर आ गया लेकिन मानसिक रूप से असंतुलित मालोजी कभी सत्ताधीश हो ही नहीं पाए। युवावस्था में ही उनका भी निधन हो गया। मालोराव के निधन के पश्चात राज्य में फैली अराजकता और चोर-डाकूओं को अहिल्याबाई ने राजदंड का उचित उपयोग करते हुए नियंत्रित किया। अहिल्याबाई ने अपनी आंखों के सामने अपने पति, पिता तुल्य श्वसुर और पुत्र को मृत्यु की गोद में समाते हुए देखा।

अब वंशहीन होळ्कर राज्य के अस्तित्व की डोर अहिल्याबाई के हाथों में थी। गंगाधर राव समझा कर, डरा कर और षड्यंत्र रच कर उनको अपने आधिपत्य में लाने की कोशिश कर रहे थे। वह दोनों अब राज दरबार के सिंहासन के सामने खड़े थे। राव ने महारानी की ओर कुटिल दृष्टि से देखा। महारानी अहिल्याबाई क्या दांव खेलने वाली हैं इसका राव को रत्तीभर भी अंदाजा नहीं था।

राजगद्दी के सामने खड़ी महारानी बोलीं, “आपसे किसने कहा कि यह राज्य वंशहीन है। इस राज्य के राजा की पुत्रवधू, उनके पुत्र की पत्नी और उनके पौत्र की माता होने के अधिकार से आज, इसी क्षण, मैं अहिल्याबाई होळ्कर मेरे कुलदेवता भगवान शिव को महेश्वर की सत्ता सौंपती हूं। अब इस राज्य का हर निर्णय स्वयं महादेव लेंगे।” राव कुछ समझ पाता उससे पहले उन्होंने अपने हाथ में थामे शिवलिङ्ग को सिंहासन पर विराजमान कर दिया।




समग्र भारतवर्ष के खंडित देवालयों के पुनरोद्धार का भगीरथ कार्य करने वाली अहिल्याबाई होळ्कर के जीवन के अन्य प्रसंग इसी शृंखला के आने वाले भाग पढ़ने के लिए हमारे ट्विटर अकाउंट @b_parikrama को फॉलो करें। यदि आपको यह लेख ज्ञानवर्धक और रोचक लगा हो तो आप लेखक के सोमनाथ क्षेत्र के इतिहास पर लिखे लघुकथा संग्रह “प्रभास” को अमेज़न किंडल स्टोर पर प्राप्त कर सकते हैं।

By तृषार

गंतव्यों के बारे में नहीं सोचता, चलता जाता हूँ.

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