हंशेश्वरी मंदिर! यह कैसा नाम है? सुनते ही कौतूहलवश दर्शन की इच्छा हुई थी। कोलकाता से 50 किलोमीटर दूर एक छोटा सा औद्योगिक नगर है बांसबेरिया, जहाँ ट्रेन या सड़क मार्ग से जाया जा सकता है। यहीं पर छुपा है यह मंदिर रूपी रत्न जो बना तो रत्न शैली में है पर देखने में disney castle जैसा दिखता है।
मंदिर देखकर विश्वास ही नहीं हुआ था कि इतनी छोटी जगह पर इतना रहस्यमय और भव्य मंदिर मिलेगा । ईस्वी सन् 1673 में जमींदार रामेश्वर राय अपना पैतृक स्थान पाटुलि त्याग कर यहाँ बसने आए थे और उन्हें तत्कालीन मुगल सम्राट औरंगज़ेब ने यहां चार सौ बीघा ज़मीन और राजा की उपाधि दी थी।
उसी कुल के राजा नृसिंह देब राय को अपने काशी प्रवास (1792 से 1798) के समय कुण्डलिनी जागरण और षटचक्र भेदन में अद्भुत रूप से रुचि हुई थी। राजा नृसिंह देब राय ने अपनी आगामी लंदन यात्रा स्थगित कर बांसबेरिया में इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित एक विशाल मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ कर दिया।
जनश्रुति है कि महाराज ने एक लाख रुपए देकर चुनार (काशी के निकट) से श्वेत प्रस्तर (संगमरमर) क्रय किए थे । विशिष्ट शिल्पियों को दूर-दूर से बुलाया गया था। राजा नृसिंह देब राय अपने जीवन काल में यह निर्माण पूर्ण न कर सके।
सन् 1802 ई में उनके मरणोपरांत विधवा रानी शंकरी ने मन्दिर निर्माण जारी रखा । सन् 1814 ई में इस मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।
तेरह मीनारों वा रत्नों से सुसज्जित यह मंदिर पाँच तल ऊँचा है। केंद्रीय मीनार की ऊंचाई 90 मीटर है। प्रत्येक रत्न का ऊपरी सिरा प्रस्फुटित पद्म पुष्प के आकार में है।
तांत्रिक नियमों पर आधारित यह मंदिर मनुष्य शरीर की संरचना और विशिष्ट नाड़ियों (इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, वज्रा और चित्रिणी) को ध्यान में रखकर बनाया गया है। मीनारों के अंदर मनुष्य शरीर की सरंचना बनी है।
केंद्रीय मीनार के अंदर धातु के उगते सूर्य अपनी सहस्त्र अराओं के साथ सुशोभित हैं। मंदिर का रखरखाव अब भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन है जिन्होंने ऊपर के तलों को जनसाधारण के लिए बंद कर दिया है।
मंदिर की केंद्रीय मीनार के ठीक निचले भाग में एक श्वेत प्रस्तर (संगमरमर) का शिवलिंग स्थापित है। मंदिर में देवी की प्रतिदिन विधिवत पूजा होती है।
माँ यहाँ दक्षिणा काली रुप में पूजित हैं किंतु दीपावली की अमावस्या को उनके एलोकेशी रूप का पूजन होता है। मंदिर की परिक्रमा करने पर कोनों पर छोटे-छोटे शिव मंदिर मिल जाते हैं।
अन्य काली विग्रहों की तरह इस विग्रह में देवी अपनी जीभ नहीं काट रहीं अपितु अतिशय आनंद में हैं, मानो चित्ताकाश में शिव के साथ युति में आनंदमग्ना हों (जैसा कि द्वादश दल पद्म वाले अनाहत चक्र में शिव शक्ति की युति पर होता है), कदाचित साधकों/भक्तों को संदेश दे रही हों कि अपनी वासनाओं और अंहकार का मुण्डपात करने पर तुम सब भी इसी आनंद के अधिकारी होगे।
नीलवर्णा माता का अनूठा विग्रह नीम की लकड़ी का बना है। एक सहस्त्रदल नीलकमल पर एक रक्तवर्णी अष्टदल कमल है। उसके ऊपर छह त्रिकोणात्मक श्वेत प्रस्तर के टुकड़ों पर लेटे हुए श्वेत शिव जी हैं।
शिव के नाभि स्थान से एक द्वादश दल रक्तकमल की उत्पत्ति हुई है जिस पर त्रिनयनी, चतुर्भुजा माँ का विग्रह विराजता है। इनकी ऊपरी वाम भुजा में एक रक्तवर्णी तलवार है और निचली भुजा में कटा हुआ नर मुण्ड है।
दक्षिण भुजाओं में ऊपरी भुजा अभय मुद्रा में तथा निचली भुजा वरद मुद्रा में है। देवी की बैठी अवस्था में उनका दक्षिण पद शिव के वक्षस्थल पर टिका है। वाम पद मुड़ कर दक्षिण जंघा पर टिका है।
हंशेश्वरी मंदिर और विग्रह इतने विशिष्ट हैं कि मैं कई वर्षों से इनके बारे में और जानकारी एकत्र करने की चेष्टा कर रही थी।
विकिपीडिया और गूगल जो नहीं कर पाए वो भगवत्पाद आदि शंकराचार्य की सौन्दर्य लहरी के अड़तीसवें श्लोक ने कर दिया-
समुन्मीलत् संवित्कमल मकरंदैक रसिकं
भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम्।
यदालापा दष्टादश गुणित विद्या परिणर्ति
यदादात्ते दोषाद् गुणमखिलम् अद्भुयः पय इव।।
पूर्ण रूप से खिले हुए ज्ञानरूपी कमल के मात्र आनंदरूपी मकरंद को चाहने वाले एक मात्र रसिक, उन आनंद भोगने वाले महापुरुषों के मानस सरोवर में तैरते हुए अवर्णनीय हंसों के जोड़े का मैं भजन करता हूँ जिनके मधुर संवाद का परिणाम अट्ठारह विद्याओं की व्याख्या है (चार वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त,ज्योतिष, छंद, पूर्व व उत्तर मीमांसा, न्याय, पुराण, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, गांधर्व विद्या तथा नीति)
शक्ति एवं शिव का भजन, चिंतन, मनन एवं पूजन अनाहत चक्र पर देवी हंशेश्वरी व हंशेश्वर रूप में होता है।
अद्भुत