कैला शहर या कैलाश हर, सुन कर ही कैसा शिवमय प्रतीत होता है न, और है भी। भारत के सुदूर पूर्व राज्य त्रिपुरा में स्थित यह शहर बांग्लादेश की दक्षिणी सीमा पर है।

इससे लगभग दस किलोमीटर दूर उत्तर पूर्व की जंपूई पहाड़ियों के घने जंगलों के बीच स्थित है एक रहस्यमय शिव तीर्थ उनोकोटि। उनोकोटि एक बांग्ला शब्द है जिसका अर्थ है एक कोटि से एक कम।

उनोकोटि जाने के लिए सिलचर, आसाम या अगरतला, त्रिपुरा से रेलमार्ग अथवा सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। अगरतला से लगभग 178 किलोमीटर दूर घने जंगलों के बीच पहाड़ियों में यह एक ऐसा अद्भुत स्थान है जहाँ जाकर आनंद शान्ति और उत्तेजना से मनुष्य अभिभूत हो जाते हैं। नेत्र विस्फारित दृष्टि से चहुँ ओर शिव पर्वत को देखते रहते हैं। पूरे पर्वत का एक पटल वृहद शिव उकेरणों से भरा पड़ा है।

सबसे बड़े शिव उकेरण को उनोकोटिश्वर काल भैरव कहते हैं।इनकी ऊँचाई साढ़े तेरह मीटर है। इनके जटाजूट ही साढ़े तीन मीटर ऊँचे हैं।

इस शिव उकेरण के वाम भाग से एक प्रपात बहता है जो पर्वत पर पूर्व से पश्चिम की ओर बहते हुए दो कुंडो में एकत्र होता है और नीचे बहता चला जाता है। पूरे पर्वत पर यह जल का एक मात्र स्त्रोत है।

इनमें से उपर वाले कुंड को सीता कुंड कहते हैं। महादेव के दक्षिण दिशा में एक सिंहवाहिनी देवी मूर्ति और वाम भाग में एक और देवी मूर्ति है जो गंगा की मूर्ति प्रतीत होती है।

अजस्त्र मूर्तियों और bas relief शिल्प से पूरा पर्वत भरा पड़ा है। पुरातत्व विभाग को लगभग एक किलोमीटर की परिधि में बहुत से शिल्प व मूर्तियाँ मिली हैं।

शिव दर्शन के लिए इस केंद्र संरक्षित स्थान पर कोई टिकट नहीं है किन्तु अपना नाम और पता लिखवाना पड़ता है। उनोकोटि तीर्थस्थल होने के कारण परिसर में जल की बोतल, फूल प्रसाद सामग्री के अलावा कुछ भी ले जाना निषेध है। प्लास्टिक की बोतल फेंकना भी निषेध है।

सीता कुंड में स्नान करने की अनुमति है। एक स्थानीय पुरोहित दोपहर ढलने तक लाल धोती कुर्ता पहने उनकोटिश्वर के सामने बैठे मिलते हैं।

उनकोटि में अशोकाष्टमी पर अप्रिल-मई के महीने में एक मेला लगता है जब बहुत से से तीर्थयात्री यहाँ पुण्यलाभ करने आते हैं।
उनोकोटि के शिल्प देखने के लिए पहले पर्वत से उतरना पड़ता है।

लगभग पचास सीढ़ी उतर कर उनोकोतिश्वर के दर्शन होते हैं। लगभग इतनी ही सीढियाँ और उतर कर आप उनके सामने पहुंच जाते हैं व सीता कुंड के जल से हस्त, मुख प्रक्षालन अथवा स्नान कर सकते हैं।

यहाँ शिव के नंदी भी विराजमान हैं किन्तु आश्चर्य यह है कि वह शिव को नहीं उत्तर दिशा को देख रहे हैं, मानो कैलाश की याद सता रही हो। नंदी का एक और शिल्प है जो किलकते/कौतुक करते प्रतीत होते हैं।

यहाँ से दो तरफ़ सीढ़ियाँ जाती हैं। पर्वत की तलहटी को जानें वाली सीढ़ियों से एक बृहद गणेश उकेरण और दो गज के सिर वाले देवताओं के उकेरण के पास पहुंचा जा सकता है। इन उकेरणों के दाहिने भाग में एक देवी मूर्ति भी दिखती है।

इन मूर्तियों के सामने ही प्रपात का जल दूसरे छोटे कुंड में एकत्र होता है। ऊपर वाली सीढ़ियों से चढ़ने पर टीन की छत छवाए, छोटे एक मंदिर में त्रिदेव की मूर्ति देव रुप में स्थापित है,जो एक चौकोर स्तंभ के तीन पटलों पर उकेरी गई है।

इस मंदिर से पर्वत शिखर तक जाने की सीढ़ियाँ हैं। शिखर पर एक अस्थाई संग्रहालय बना है जिसमें बहुत सारी मूर्तियों का संग्रह है। इनमें से गणेश जी, वीर हनुमान और शिव पार्वती की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं।

मूर्तियों का शिल्प अपेक्षाकृत सुंदर है। पुरातत्व विभाग इन्हें 11वीं से 12वीं ईस्वी के बीच का बताता है। शिखर पर एक खुले छोटे मंदिर में शिव पार्वती और बाल गणेश पूजे जाते हैं।

शिखर से एक पथ पर्वत के पीछे को जंगल चला जाता है। इस पर तीन शिवलिंग स्थापित हैं। यहां भी दैनिक पूजा के प्रमाणस्वरूप रक्त जवा पुष्प, बुझा दीपक व धूप मिले।

उनोकोटि में धनुर्धारी श्री विष्णु का उकेरण भी देखने को मिला जो सिंह वाहिनी देवी मूर्ति के दायीं ओर स्थित हैं। पुरातत्वविदों के अनुसार उनोकोटि के शिल्प 8वीं से 9वीं ईस्वी शताब्दी के बीच बनाए गए थे। किसने बनवाए? किनसे बनवाए? क्योंकर बनवाए? कैसे बनवाए – सभी प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं।

जनश्रुति के अनुसार एक बार महादेव अपने साथ एक कोटि देवी देवताओं को ले कर कैलाश से काशी की ओर चले। रघुनंदन पर्वत (उनोकोटि का प्राचीन नाम) तक पहुंच कर सभी क्लांत हो गए और महादेव से रात्रि विश्राम की अनुमति मांगी।

महादेव ने सभी को दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व प्रस्थान का आदेश दिया और सब सो गए। दूसरे दिन महादेव तो उठ कर चल पड़े किन्तु बाकी सब को निद्रामग्न देख कर महादेव क्रोधित हो उठे। उन्होंने सभी देवी देवताओं को अनंत समय तक प्रस्तर खंडों में परिवर्तित होने का शाप दे दिया।

एक दूसरी जनश्रुति में कुल्लू कामार नामक एक मूर्तिकार ने एक बार शिव पार्वती को मेरु पर्वत की यात्रा करते देखा तो उनके साथ ही कैलाश लौटने की इच्छा प्रकट की।

महादेव ने शर्त रखी कि यदि वे रात भर में एक कोटि देवी देवताओं की मूर्तियाँ बना दें तो उन्हें वे कैलाश ले चलेंगे। कहना बाहुल्य ही होगा कि कुल्लू ऐसा नहीं कर सके और उनकी बनाई मूर्तियाँ यहाँ वहाँ पड़ी रह गईं।

त्रिपुरी राजमाला पुस्तक के अनुसार त्रिपुरा नरेश किसी समय तिब्बत में कैलाश के पास ही वास किया करते थे। जब वे त्रिपुरा आए तो वे अपने साथ महादेव को भी लाना चाहते थे किन्तु महादेव इसके लिए तैयार नहीं थे।

बहुत वर्षों की तपस्या के बाद महादेव प्रसन्न हुए और उन्होंने त्रिपुरा नरेश को बाकी सभी देवी देवताओं के साथ उनके राज्य में आने का वचन दिया। वे सभी अपनी उपस्थिति का प्रमाण मूर्तियों के रुप में छोड़ गए।

त्विमा (गंगा) की किसी भौतिक मूर्ति का प्रावधान न होने के कारण वे प्रपात रुप में शिव जटाओं के पास बहती रहीं। त्रिपुरी भाषा में उनोकोटि को सुबराई खुंग कहते हैं और महादेव को सुबराई राजा। उनके अनुसार कैलाश के बाद उनोकोटि महादेव का दूसरा घर है।

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