आज #प्रभास को एक वर्ष पूर्ण हो रहा है, पिछले वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर मैंने आपके सामने यह कृति रखी थी और इस एक वर्ष में आप सभी के स्नेह ने मेरे यत्नों को सफल बना दिया। »»»
प्रभास पढ़ने के बाद पाठकों द्वारा मुझसे अनेकों प्रश्न पूछे गए जिनमें सबसे अधिक पूछे जाने वाला प्रश्न था, “मैंने पहली पुस्तक के रूप में प्रभास को ही क्यों चुना?”
यह वो प्रश्न है जिसका उत्तर संक्षेप में देना मेरे लिए संभव नहीं है। प्रभास की कहानी शुरू होती है जब मैं स्कूल में पढ़ने वाला एक विद्यार्थी मात्र था। मेरी माँ शिक्षिका थीं और तीन वर्षों से वह पक्षाघात और हृदयरोग से जूझ रहीं थीं। उनका शरीर अशक्त जरूर था लेकिन उनके हौसले नहीं।
वह शहर से बारह किलोमीटर दूर एक गाँव की सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाती थीं। उनकी अशक्त स्थिति के कारण पिताजी उन्हें अपने बजाज स्कूटर पर छोड़ने जाया करते थे। उस दिन जब पिताजी उन्हें स्कूटर पर ले जा रहे थे तब माँ हम दोनों भाई बहन के भविष्य की योजना बना रहीं थीं।
उन्होंने पिताजी से कहा, “तृषार को कला और स्थापत्य में रूचि है, उसे हम चित्रकार बनाएंगे। दोनों बच्चों को कम से कम स्नातकोत्तर डिग्री तक पढ़ाना है।”
माँ को संगीत में बहुत रूचि थी वह हम दोनों भाईबहन को संगीत की शिक्षा भी दिलवाना चाहती थीं। इसके अलावा उन्होंने पिताजी के समक्ष सोमनाथ ज्योर्तिलिंग के दर्शन की भी इच्छा व्यक्त की।
जब मेरे मातापिता के बीच स्कूटर पर यह संवाद चल रहा था तब मैं स्कूल में था। गणित का वर्ग चल रहा था तभी प्रिंसिपल सर ने मुझे बुलावा भेजा। पिछले वर्षों में माँ के बिगडते सुधरते स्वास्थ्य के कारण कुछ क्षणों के लिए मैं अघटित आशंका से कांप उठा।
जब मैं प्रिंसिपल की केबिन में पहुँचा तब उन्होंने मेरा एक बड़ी मुस्कान के साथ स्वागत किया, “तृषार, तुम फिर से एक बार चित्रकला प्रतियोगिता जीते हो, तुम जिस प्रतियोगिता में भाग लेते हो उसमें किसी अन्य स्कूल को जीतने के विकल्प ही बंद हो जाते हैं।”
उनके चेहरे पर गर्व के भाव थे। कुछ क्षणों पहले मेरे मन में उठी आशंकाएँ आनंद में परिवर्तित हो चुकी थीं। घर पहुंचते ही मैंने पुरस्कार टेलिविज़न के पीछे छुपा दिया। मैं मम्मी को सरप्राइज़ देना चाहता था लेकिन मेरे भाग्य में कुछ और ही लिखा था।
वहाँ दूसरी ओर गाँव के सरकारी विद्यालय में दैनिक प्रार्थना के बाद पिताजी अपने ऑफ़िस के लिए जा रहे थे। विद्यालय में क्लासरूम की कमी के कारण नजदीकी मंदिर के प्रांगण में ब्लैकबोर्ड लगाया गया था और माँ वहीं बच्चों की क्लास ले रही थी।
पिताजी ने स्कूटर का किक लगाया और माँ की तरफ़ देखा, माँ उनकी ओर देख के मुस्कुराईं और दूसरे ही क्षण माँ वहीं मंदिर के प्रांगण में मूर्च्छित हो कर गिर पड़ीं। पिताजी के साथ विद्यालय के अन्य शिक्षक भी वहाँ दौड़ पड़े। कुछ देर में पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। माँ को दूसरी बार हृदयरोग का दौरा पड़ा था।
माँ को मैं वह पुरस्कार कभी दिखा नहीं पाया। पिताजी के कंधों पर दो बच्चों के साथ-साथ माँ के अधूरे स्वप्नों को पूर्ण करने का भी भार था। रिश्तेदारों के लाख समझाने पर भी उन्होंने दूसरी बार विवाह नहीं किया।
पिताजी ने पूरा प्रयास किया माँ के स्वप्नों को साकार करने का, हम दोनों भाइ बहन ने स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की, बहना शास्त्रीय गायन और वादन संगीत में प्रवीण हो चुकी थी।
अथक प्रयासों के बावजूद मैं चित्रकार नहीं बन पाया। माँ का सोमनाथ महादेव के दर्शन का स्वप्न भी पूरा नहीं हो पाया। बहना ने उनकी सभी इच्छाओं को पूर्ण किया था लेकिन दुर्भाग्य से वह भी अल्पायु थी। दुर्दांत रोग ने उसे भी मुझसे दूर कर दिया।
बहना की एक वर्ष की व्याधि और मृत्यु ने मुझे तोड़ दिया। जीवन के अन्यायपूर्ण घटनाक्रम ने मेरे मानस को घृणा से भर दिया था। मेरा इश्वर पर से विश्वास उठ चुका था। नास्तिकता ने मेरे मन में घटाटोप वृक्ष का रूप ले चुके आस्था के वृक्ष को सुखा दिया था।
तीन वर्ष तक मैंने अपने अश्रुओं से मृतप्राय हो चुकी आस्था को सींचा, आस्था के नष्टप्राय पेड़ पर फिर से श्रद्धा की कोंपलों ने जन्म लिया।
इसके बाद का घटनाक्रम मेरे लिए बहुत संघर्षपूर्ण रहा। २०२० से २०२२ में व्यक्तिगत संबंधों में और व्यावसायिक रूप से मैं खत्म होता चला गया और इसका सीधा असर मेरे स्वास्थ्य पर भी पडा़।
लेकिन इन दिनों मैं अकेला नहीं था, सोशल मीडिया पर बने सहृदय स्वजनों ने मेरा भरपूर साथ दिया। इन मित्रों ने कभी मुझसे मेरे दुःखों का कारण नहीं पूछा, और ना मैंने बताया, मित्रता का यह संबंध कारणों के आधीन नहीं था। सभी का नाम लिख पाना मेरे लिए संभव नहीं होगा लेकिन २०२२ के आरंभ में मैं फिर से संघर्षों के लिए तैयार था।
ट्विटर के आप सभी मित्रगण मेरा लिखा पसंद करते थे, मुझे सतत् प्रोत्साहित करते थे। लेखन में मैं कितना सफल हुआ यह मैं नहीं जानता लेकिन जब पुस्तक लिखने की बात आई तो मेरे मन में सबसे पहले माँ का सोमनाथ दर्शन का अधूरा स्वप्न ही था।
मैं माँ को कभी सोमनाथ नहीं ले जा पाया लेकिन पाठकों को सोमनाथ की शब्द-यात्रा करा के माँ को श्रद्धासुमन अर्पित करने का यह अवसर था और इसीलिए मैंने अपनी पहली पुस्तक के रूप में #प्रभास को चुना!