लखनऊ का चारबाग रेलवे स्टेशन। रोज से लगभग दोगनी भीड़ थी। हर एक पैर जल्दी – जल्दी अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा था। टिकट के लिए लगी लाइन इतनी लंबी थी कि उसने प्लेटफार्म की ओर जाने वाले मार्ग को भी छेंक रखा था।
शाम का वक्त था और आज का दिन काम का आखिरी दिन था। होली की छुट्टियांँ आज से शुरू हो रही थी। लोग अपने-अपने घर पहुंँचने के लिए ट्रेनों में सवार हो रहे थे। पूछताछ केंद्र पर जमा भारी भीड़ बता रही थी कि लोग किस कदर अपने सुकून तक पहुंँचने के लिए आतुर थे। शाम का वक्त था इसलिए स्टेशन पर छात्रों, दैनिक कामगार और ऑफिस के कर्मचारियों की भीड़ ज्यादा थी।
रोज किताबो और क्लास नोट्स से भरा बैग आज खुद को हल्का महसूस कर रहा था क्योंकि आज इसमें बस उतने कपड़े थे जिनमे चार दिन मौज में काटे जा सके। घर चलाने के लिए घर छोड़कर शहर आए मजदूरों के हाथो में भी आज घर के लिए खुशियों की पोटली थी।
किसी ने घर में बच्चो के लिए कपड़े खरीदे हुए थे तो कोई जरूरत का सामान खरीद कर ले जा रहा था। ऑफिस में पदस्थ कर्मचारियों के चेहरे पर बोनस मिलने और की खुशी और हाथो में ऑफिस से मिला गिफ्ट बता रहा था कि रोज रोज के टारगेट पूरे करने की भागदौड़ से दूर अब कुछ दिन ठहरे हुए गुजरेंगे।
मैं जब स्टेशन पहुंँचा तो मेरी ट्रेन को चलने में करीब पैतालीस मिनट शेष थे। लेकिन ट्रेन एकदम ठसाठस भर चुकी थी। बाथरूम के बाहर तक लोग अपना सामान सड्डा जमा चुके थे।
मैंने प्लेटफार्म पर खड़ी ट्रेन का आगे से पीछे तक दो बार चक्कर लगाया कि शायद कहीं खड़े होने भर की जगह मिल जाए। खिड़की से अंदर देखता तो भीड़ कुछ इस कदर दिखती जैसे किसी ने छल्ली लगाकर आदमियों को भर दिया हो।
कही बैठने तो क्या ढंग से खड़े होने की भी जगह शेष न थी। चिंता की कुछ लकीरों के साथ एक नंबर डिब्बे के सामने पड़ी पत्थर की सीट पर मैं आकर बैठ गया। अब जब लटक कर गेट पर ही जाने का विकल्प मेरे पास बचा था तो मैंने सोचा अभी से धक्का मुक्की में फसने का क्या फायदा ? ट्रेन चलने के वक्त चढ़ लिया जाएगा।
भीड़ बढ़ती जा रही थी। लोग बराबर आते जा रहे थे और किसी तरह बस खड़े होने की जद्दोजहद कर रहे थे। लड़के लड़कियांँ बच्चे आदमी बुड्ढे सबके साथ यही हाल था। ट्रेन में पैर रखने के लिए भी उन्हें मतलब भर की मेहनत करनी पड़ रही थी।
प्लेटफार्म पर बैठे-बैठे मैने इधर उधर नजर दौड़ाई। बगल वाले प्लेटफार्म पर भी भीड़ का यही हाल था और परिस्थितियांँ कुछ इसी तरह की बनी हुई थी।
ट्रेन की खिड़की से झांँकते चेहरो पर लगा रंग बता रहा था कि जो जहांँ से आया है वहांँ के रंग में रंगा है। आँफिस से लेकर कोचिंग के बाहर तक लोग अपने साथियों के साथ होली खेल कर आ रहे थे।
रंग ओढ़े आते जाते चेहरों को देख उनकी खुशी का अनुमान लगाती मेरी चेतना में अचानक जैसे किसी ने घुसपैठ की हो। मेरे सामने वाले डिब्बे की खिड़की पर अचानक छः सात लड़को का झुंड जमा हो गया।
वे सब खिड़की से इस तरह अंदर की ओर झांँक रहे थे जिससे यह अंदाजा लगाना मुश्किल नही था कि वे किसी को ढूंढ रहे है। सबके चेहरे रंग से पुते हुए थे और हाथो मे भी लगा गाढ़ा काला रंग यह बता रहा था कि वह किसी के चेहरे पर लगने वाला है।
कुछ ही देर में यह समझ आ गया कि यह सब साथ में काम करने वाले लोग है जो आज घर जा रहे है। सबने मिलकर एक दूसरे को रंग में डूबा दिया था लेकिन इनका कोई एक साथी इनके रंगव्यूह से बचकर डिब्बे की भीड़ में शरण ले चुका था और ये अब उसे ही ढूंढ रहे हैं।
बीच वाली खिड़की के सामने अचानक सभी लड़के ठहर गए और भारी चिल्ल – पों के बीच अपने साथी को बाहर बुलाने लगें। उनके लहजे में निवेदन, आदेश और चेतावनी के साथ साथ अधिकार का भी भाव झलक रहा था। लेकिन अंदर भीड़ मे शरण लिए इनका साथी टस से मस नहीं हुआ।
बाहर से बुलाने का यह प्रयास असफल हो चुका था। लड़को ने दूसरा दांँव चलाया। उनमें से एक जो सबसे ज्यादा रंगा था बोला, “तुम तीन लोग मेरे साथ आगे के गेट से आओ और बाकी लोग पीछे के गेट से अंदर जाओ।”
सभी लड़के अपने साथी को कुशल रणनीतिकार मानकर उसके आदेशानुसार अपनी पोजीशन लेने लगे। अब एक समूह बटकर दो टुकड़ियों में विभाजित हो चुका था।
दोनो टुकड़ियों ने गेट से अंदर घुसने का प्रयास किया। लेकिन भीड़ कुछ इस कदर भरी हुई थी कि बेचारे दोनो दल असफल होकर पुना उसी खिड़की पर आकर जम गए।
एक बार फिर साम दाम दंड और भेद की नीति अपनाकर अपने साथी को बाहर बुलाने का उपक्रम जारी हुआ। कभी केवल अबीर लगाने का लालच दिया जाता तो कभी ‘मिलने पर कुकुर जैसा लथेड़’ का भय। किंतु भीड़ के कवच में खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे उनके साथी पर इनके प्रयासों का कोई असर नहीं हुआ।
लड़को ने आपस में कुछ खुदरफुसर की और सब वही आपस में बातचीत करने लगे। शायद उन्होंने अपनी योजना बदल ली थी। उनमें से दो लड़के गए और कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स और पानी लाकर खाने पीने लगे।
ट्रेन ने हॉर्न दे दिया। सभी लड़के जिस एक नंबर डिब्बे के बाहर खड़े थे उसी डिब्बे में किसी तरह ठेलठालकर घुस गए। मैंने भी किसी तरह अपने खड़े होने भर की जगह बनाई और टेक लेकर खड़ा हो गया। अपने साथी को रंगने में असफल सभी लड़के मेरे ही आसपास जमा थे।
ट्रेन ने चलना शुरू कर दिया और कुछ देर में अपनी गति पकड़ ली। आसपास खड़े लड़को की बाते सुनकर पता चला कि वह सब लखनऊ की किसी कंपनी में कर्मचारी है और जिसे वे रंगना चाहते थे वह उसी कंपनी में कार्यरत है लेकिन किसी बड़े पद पर। सारे कानपुर से ही रोज अपडाउन करते है और आज सब मिलकर अपने ‘कार्यालयी सीनियर’ को रंगना चाहते थे जिसमे उनके असफल होने का दर्शक मैं स्वयंँ था।
अब उनकी योजना थी कि कानपुर उतरने पर वो अपने लक्ष्य को रंगकर स्वयं के मस्तक को विजयश्री के तिलक से रगेंगे। ट्रेन ने जैसे जैसे गति पकड़ी लोगों में थोड़ी चहलकदमी भी बढ़ गई। एक के बाद एक कई लोगों ने अपनी लघुशंका के निपटान के लिए बाथरूम का रूख किया।
धीरे धीरे सबने अपने फोन निकाल लिए और अपने आप को व्यस्त कर लिया। मैने भी फोन निकाला और फेसबुक स्क्रॉल करने लगा। बाथरूम के बाहर कुछ देर में चार पांँच लोग ऐसे एकत्रित हो गए जिन्हे अपनी अपनी लघुशंका का समाधान करना था। पूछने पर पता चला कि एक वाशरूम में पानी भरा है जिस कारण उसे बंद कर रखा गया है और एक ही शौचालय से सबको काम चलाना पड़ रहा है।
आधुनिकीकरण के बीच भारतीय रेलवे द्वारा अपनी परंपरा को बनाए रखने वाली कार्यशैली देख यह स्पष्ट हुआ कि अभी भी कई कर्मठ अफसर ऐसे बचे है जो पूरी तल्लीनता से रेलवे को विकास की दौड़ से महफूज़ रखे हैं।
अपने लक्ष्य को ढूंढते लड़को के झुंड ने पूरे डिब्बे में नजर दौड़ाई लेकिन उन्हें कहीं भी उनका साथी नही दिखाई पड़ा। उन्नाव स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो दल का नायक पुना: पूरे डिब्बे में झांँक आया लेकिन वह साथी नही दिखाई पड़ा।
समूह के सदस्यों के मुख पर निराशा के बादल छा गए। उनमें से एक लड़के ने उस लड़के को फोन मिला लोकेशन जाननी चाही। बातचीत सुनकर पता चला कि जिसकी प्रतीक्षा में यह अपने सभी घोड़े खोल रखे है वह तो पिछले स्टेशन पर ही उतर चुका है।
आखिर दल निराश हो गया और इन निराशा का फल इन्ही के एक साथी को मिला। भगोड़े लड़के की मदद करने के आरोप में सारा रंग उसे ही चुपड़ दिया गया। कुछ देर में ट्रेन कानपुर के कॉलिंग ऑन सिग्नल पर खड़ी हो गई। सभी लड़के वहीं उतर गए।
ट्रेन अभी खड़ी ही थी कि तभी अब तक पानी भरे होने के कारण बंद शौचालय का गेट खुला और एक लड़का बैग टांँगे हुए बाहर निकाला। बाहर निकलते ही उसने आसपास नजर दौड़ाई और फिर एक सुकून भरी सांँस लेते हुए मुझसे बोला, “यहांँ जो लड़के रंगे पुते खड़े थे वो चले गए क्या ?” मैंने कहा कि हांँ वो तो अभी अभी उतरे है नीचे।”
मुझे समझते देर न लगी कि यह ही वह शिकार है जिसको खोजते हुए उन लड़कों ने अपना पूरा सफर काट दिया। उस लड़के ने धीरे से बाहर झांँक कर देखा तो उसे थोड़ी और राहत मिली। उसके सभी साथी जा चुके थे।
वह उतरता उससे पहले ही मैने एक प्रश्न दागा, “पूरा सफर शौचालय में ? सही है गुरू।” उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “अभी यार अपनी गर्लफ्रेंड से मिलना है और यह सब भूत बना देते इसलिए लखनऊ में ट्रेन चलने से पहले ही शौचालय में घुस गया था। अब बचने के लिए कुछ तो करना ही था।”
उसने फोन निकाला और किसी को कॉल करके दस मिनट में अपने पहुंँचने की सूचना दी और मुस्कुराते हुए ट्रेन से नीचे उतर गया।
कुशल रणनीतिकार की रणनीति सुनकर मैं दंग था और अभी शौचालय की यात्रा में उसके अनुभवों पर विचार ही कर रहा था कि बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा। मैने बाहर झांककर देखा तो और भी दंग रह गया। हारे हुए समूह ने अभी तक हर नही मानी थी और वो सब वही छुपकर अपने साथी का इंतजार कर रहे थे।
शिकार आखिर पकड़ में आ ही गया। अभी तक मैं जिसकी चतुराई का कायल था वह अपने हाथो से चेहरे को छुपा रहा था और उनका साथी दल उसे जी भर के रंगो से सराबोर कर रहे थे। उनमें से एक लड़के ने बैग में रखी गर्म कोल्ड ड्रिंक की बॉटल निकाली और उसमे रंग की छः सात पुड़िया उड़ेल दी।
काफी छकाने के बाद चंगुल में फसे प्रतिद्वंदी पर पूरी बॉटल उड़ेल दी गई। इस प्रक्रिया के बाद उन सबके पास जितने रंग से सभी रंगों का प्रयोग उन्होंने कर लिया। अब तक विजय अनुभव कर रहे योद्धा के पास अब चुपचाप रंगवाने के अलावा कोई विकल्प भी नही बचा था। सफेद चिकन की शर्ट सफेद के अलावा बाकी सभी रंगों में रंग चुकी थी। चेहरे पर रंग की कई परते चढ़ा दी गई थी।
रंग चुकने के बाद सभी साथी आपस में मिल गए। रंगा पुता आशिक भी अब उसी सेना के शामिल हो गया था। सबने टैंपो स्टैंड की ओर रुख किया। तभी ट्रेन ने हॉर्न बजाया और मैं भी अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया। रंगव्यूह सफल हुआ।
होली की रंगत ऐसे लोगों से ही बरकरार है। धन्य है ऐसे धैर्यवान साथी जो धरती सा धैर्य धरकर अपना रंग जमा गए। धन्य है ऐसे आशिक जिसने सौ किलोमीटर शौचालय काट दिए ताकि प्रेमिका उसे उसी रूप में देख सके जिससे उसे प्यार है।
धन्य है ऐसे दोस्त जो न खायेंगे न खाने देंगे के भाव के साथ न मिलेंगे न मिलने देंगे के भाव को चरित्रार्थ कर रहे है। धन्य है यह त्योहार जिसमे सब रंग बदलते है। जय होली जियो होली।
Image credit: seniority.in
Shuru se leker ant tak ek ek shabd bandh ker rakhne ko majbur karta hai iss lekh ka, bahut waqt baad kuch aisa padha jo ek ek lafz ke sath dil ko chu gaya
Shuru se leker ant tak ek ek shabd bandh ker rakhne ko majbur karta hai iss lekh ka, bahut waqt baad kuch aisa padha jo ek ek lafz ke sath dil ko chu gaya