मदुरान्तकम् एक प्राचीन तीर्थस्थल कहा जाता है। यह एक शैव स्थल भी है और वैष्णव स्थल भी! शैवों का स्थल यानि शिवालय मदुरान्तकम् के रेलवे स्टेशन के पास स्थित है और यहाँ के प्रसिद्ध वैष्णव मंदिर एरि कात्त रामर से कुछ 1.5 कि.मी. की दूरी पर है। शिवालय करीब 1200 वर्ष पुराना है जिसका प्रमाण मंदिर की दीवार पर उकेरे शिलालेखों से मिलता है।

मन्दिर का विस्तार

यह एक प्राचीन और मनुष्य प्रकृति के लिए प्राकृतिक रूप से शान्त स्थान है। केवल मदुरान्तकम ही नहीं अपितु दक्षिण भारत के शैवों के लिए यह मंदिर विशेष स्थान माना जाता है। मन्दिर की विशाल पुष्करिणी के विपरीत मन्दिर का राजगोपुरम पूर्व दिशा की ओर है। मुख्य द्वार पर बायीं ओर गणपति मानो भक्तों के स्वागत को बैठे हैं।

प्रवेश करते ही सामने विशाल ध्वज स्तंभ धर्म, समृद्धि और प्रतिष्ठा की पट्टियों के साथ सुशोभित है। बलीपीठ के नीचे एक गोलाकार पत्थर रखा है जो कदाचित किसी पुरानी सेना द्वारा प्रयोग में लाया जाने वाला गोला लगता है। ध्वज स्तंभ के आगे मण्डप में प्रदोष-नंदी की विशाल मूर्ति स्थित है। भवन के दो भाग हैं। पहले भाग में बायीं ओर देवी की सन्निधि है और भीतरी भाग में गर्भगृह और उसका परिक्रमा प्रागंण ! भवन में प्रवेश करते ही शरीर में अद्भुत् शान्ति का अनुभव होता है।

गर्भगृह प्रागंण के द्वार पर अंदर की ओर सूर्य भगवान का विग्रह है। गर्भग्रह के बाहर नृत्य मण्डप के आगे नंदी विराजमान हैं। बायीं ओर ‘ नर्तन विनायक’ का विग्रह है। द्वार के दोनों ओर गण द्वारपालकों की विशाल मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह की सभी दीवारों पर विस्तृत शिलालेख हैं। इन सबका संग्रह तथा अनुवाद चेन्नई के एक पुस्तकालय में उपलब्ध हैं।

चित्र: “Mani Talks” यूट्यूब चैनल

यहाँ मूलवर स्वामी है श्वेतारण्येश्वर तथा देवी हैं श्री मीनाक्षी अम्मन।

गर्भगृह में प्रवेश करने पर एक वीथिका और बायीं ओर एक उपकक्ष है। गर्भगृह में स्वामी श्वेतारण्येश्वर, कुछ 5 फुट ऊँचाई के विशाल शिवलिंग स्थापित हैं! मूलवर शिवलिंग के पीछे ५१ दीपक रखने का पत्थर का आला अद्वितीय है जिस की ज्योति से गर्भगृह प्रकाशित रहता है। गर्भगृह के उपकक्ष में नटराज का सुन्दर विग्रह अपनी पत्नी शिवगामी के साथ विराजमान है।

बताते हैं इसी विग्रह के समीप एक सुरंग है जो एरि कात्त रामर मंदिर तक गई है। अब यह सुरंग स्थाई रूप से बंद है। उस वीथिका में अन्य कई धातु के उत्सव विग्रह रखे हैं, जो इस शिवालय की प्राचीनता और उत्सवों के इतिहास के साक्षी प्रतीत होते हैं।

मन्दिर की भीतरी प्रदक्षिणा करने चले तो सबसे पहले चार नायनमार अडियार के छोटे विग्रह है – सुन्दर, माणिकवाचक, ज्ञानसम्बंध तथा नावुककर । वैष्णवों के आलवार की तरह, ये शिव तीर्थ करते तथा स्तुति गाते थे और जहां ये तीर्थ करते थे, वह स्थल विशेष माने जाते है। कुल 63 नायनमार हुए हैं। जिन चार ने यहाँ तीर्थ किया है, उनमें मुख्य सुंदरमूर्ति हैं।इस कारण से यह विशेष स्थल हो जाता है। प्रदक्षिणा पथ पर आगे चलें तो दक्षिणामूर्ति (शिव का गुरु रूप) की छोटी सन्निधि है। उसी के समीप महागणपति का विग्रह है जो गर्भगृह की बाहरी दक्षिणी दीवार पर स्थापित है। पीछे पश्चिम की ओर महाविष्णु , उत्तर की ओर ब्रह्मा स्थित हैं।

प्रांगण के उत्तर पश्चिमी छोर पर मुरगन स्वामी की सन्निधि अर्थात् कार्तिकेय का विग्रह, अपनी पत्नियों वल्ली तथा देवियानी के साथ स्थित है। इस विग्रह रूप में कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर छह मुख तथा बारह हाथ के रुप में विराजमान हैं।

प्रदक्षिणा पथ पर पूर्व की ओर आते हुए चतुर्भुजी दुर्गा का छोटा विग्रह है, इन्हें विष्णुदुर्गा कहा जाता है क्योंकि इन्होंने दो हाथों में शंख और चक्र धारण किये हुए हैं। उनके समक्ष एक छोटी सन्निधि में चण्डिकेश्वर काल भैरव विराजमान है जो दुर्गा के द्वारपाल संरक्षक जैसे रूप में स्थित है। परिक्रमा में उनके दर्शन करके उन्हें दोनों हाथ फैला कर दिखाते हैं, यह संकेत करते हुए कि हम मंदिर से कोई वस्तु ले कर नही जा रहे।

इस कक्ष की एक विशेषता है कि यहाँ एक सोम गणपति ( अर्थात् शिव पार्वती के मध्य गणपति) का एक छोटा सा विग्रह है। यहाँ अधिकतर ‘ सोम स्कन्द ‘ अर्थात् शिव पार्वती के मध्य बैठे कार्तिकेय के विग्रह पाये जाते हैं, सोम गणपति विलक्षण बताया जाता है।

आगे चलने पर गर्भगृह के प्रागंण के उत्तर पश्चिमी छोर पर चतुर्भैरव के विग्रह विद्यमान है।ये चतुर्भैरव के विग्रह इस मंदिर के महत्वपूर्ण विग्रह है। यह भक्तों में लोकप्रिय है और नियमित रूप से यहाँ धूप-दीप होता है ।

प्राचीन चार भैरव के विग्रह यहाँ स्थापित हैं। चण्डिकेश्वर काल भैरव , अष्टांग भैरव, उन्मत्त भैरव तथा स्वर्ण आकर्षण भैरव ।चार भैरवों की एक साथ उपस्थिति भी इस शिवालय को विशेष बनाती है।

गर्भगृह प्रागंण से बाहर निकलकर बाहरी भाग में बायीं ओर अम्बा मीनाक्षी की सन्निधि है, जिनके समीप बाहर की ओर एक विशाल शिवलिंग हैं जिन्हें पाण्डीश्वर नायनर कहा जाता है । इनकी स्थापना अम्बा मीनाक्षी के विग्रह के साथ हुई थी। माँ का विग्रह अत्यन्त सुन्दर है। कुछ छह फ़ीट ऊँची अम्बा के विग्रह के दर्शन के पश्चात् उनसे दृष्टि हटाना कठिन होता है।

पाण्डुरेश्वर शिवलिंग के समीप और गर्भगृह के द्वार पर एक देवी की मूर्ति है। मंदिर के वृद्ध अर्चक शन्मुखम जी बताते हैं कि यह माता भुवनेश्वरी की प्राचीन खण्डित मूर्ति है जो पहले श्वेतारण्येश्वर के बायीं ओर के उपकक्ष में स्थापित थी। परन्तु आरकोट के निजाम के सैनिकों द्वारा खण्डित करी गयी ( प्रधान अर्चक जी ने ऐसी किसी बात का समर्थन नहीं किया) | खण्डित मूर्ति की शास्त्रीय विधि से पूजा नहीं होती अत: अब यह केवल अन्य साधारण प्रतिमाओं की तरह विद्यमान है। मंदिर के सभी विग्रह प्राचीन मूर्ति कला का उत्कृष्ट नमूना हैं।

इस परिसर का स्थल वृक्ष शिव का प्रिय कचनार पुष्प का वृक्ष है – वेनकुक्कुमदारई ( आशा है नाम सही लिखा गया है, bauhinia acuminata) । इसी कारण शिव को यहाँ श्वेतारण्यर कह जाता है जबकि इनका प्रचलित नाम वेंकटीश्वरर है। कचनार का स्थल वृक्ष मन्दिर के प्रागंण में उत्तर – पश्चिम दिशा में स्थित है। वैसे प्रागंण के तीन-चार नागलिंग अथवा नागचम्पा के विशाल व सुन्दर वृक्ष भी बरबस ही आकर्षित करते हैं। मन्दिर के प्रांगण में पूर्वी कोने पर नवग्रह के विग्रह हैं।

मन्दिर के सामने विशाल व मनोरम पुष्करणी ( सरोवर) है जिसका नाम ‘ विषहर तीर्थम है’ ! ऐसी मान्यता है कि इस सरोवर में स्नान करने से त्वचा की और कई अन्य व्याधियाँ ठीक हो जाती हैं।

ऐसा पूरी तरह संभव है क्योंकि मदुरान्तकम की गंधक भूमि है, गंधक के गुण त्वचा के रोगों के उपचार के लिए प्रसिद्ध है।

सरोवर के इस नाम की कथा इस मन्दिर के निर्माण से जुड़ी है। पुष्करणी के तट पर खुले आकाश तले पीपल व नीम के वृक्ष-जोड़े के नीचे गणपति विनायक की प्रतिमा है।

इतिहास

इस क्षेत्र व नगर का विस्तार चोल राजाओं ने उस समय कराया जब यह चोलों के अधिकार में था। इस शिवालय का निर्माण गण्डरादित्य चोला ने करवाया था। वास्तव में इसी शिव मन्दिर के कारण ही इस स्थान को मदुरान्तक चतुर्वेदी मंगलम कहा जाता था। इस मन्दिर में परान्तक चोला प्रथम (907-955 ईस्वी),गण्डरादित्य चोला (947- 957 ईस्वी), कुलोत्तुंग (1070-1120 ईस्वी) तथा विक्रम पण्ड्‌या (1323- 1330 ईस्वी) के नाम के कई शिलालेख हैं। कुल 27 शिलालेख यहाँ मिलते हैं जिनमें चोल, पण्ड्‌या, विजयनगर के राजाओं और नायकों के योगदान के उल्लेख हैं।

बताया जाता है कि यह मंदिर स्वयं शिव के आदेश से बना है। जब चोल राजा इस क्षेत्र पर अपने अधिकारियों के द्वारा शासन करते थे, उन्हें विचार स्वप्न आया कि शिव महादेव ने उन्हें कुछ कहा है। मनन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि इस क्षेत्र में कोई शिवालय नहीं है। इस क्षेत्र में पाँच पंखुड़ी वाले श्वेत कचनार पुष्प का वन है और यह पुष्प शिव को बहुत प्रिय है।

शिव ने राजा से इच्छा करी कि यहीं मंदिर का निर्माण कराये। शिव ने इस प्रिय स्थान के लिए पाषाण या पत्थर का मन्दिर बनाने के लिए कहा। यहां उपलब्ध ना होने के कारण राजाने अन्य दूर के स्थानों से पत्थर मंगवाये और इस मन्दिर का निर्माण करवाया। महादेव के आदेश पर ही यह मन्दिर राजा द्वारा यहाँ बनवाया गया है।

एक समय तमिल राज्य का पण्ड्‌या राजा यहाँ आया करता था जो किसी त्वचा के रोग से पीड़ित था। उसने देखा एक कुत्ता जिसे कोई त्वचा का रोग था, पुष्करणी के जल में  गिर गया, जब वो कुत्ता बाहर आया तो कुछ ही समय में उसका रोग समाप्त हो गया। राजा ने सोचा कि शायद उसका रोग भी उस जल में स्नान कर ठीक हो जाये। ऐसा सोचकर उसने भी पुष्करणी के जल में स्नान किया। उसका रोग ठीक हो गया। कृतज्ञ राजा ने तब यहाँ रहकर मीनाक्षी अम्बा की सन्निधि का निर्माण करवाया तथा पाण्डीश्वर के साथ उनकी स्थापना करी। इसी लिए इसे विषहर तीर्थ कहा जाता है।

एक समय पर इस स्थान पर चारों वेदों का पाठ होता था इसलिए इसे चतुर्वेदी मंगलम भी कहा जाता था। (इससे जुड़ी पास के तीन स्थलों तथा चार वेद रूपी पर्वतों की भी एक रोचक कथा है।) स्थल के अर्चक का नित्य चतुर्वेदी पाठ अनिवार्य हुआ करता था । उस वेद पाठ को सुन कर शिव प्रसन्न होते थे ऐसा शिव ने मदुरान्तक राजा के स्वप्न में बताया था।

इसलिए राजा ने कुछ क्षेत्र केवल अर्चक के रहने के लिए दान दिया था क्योंकि इस स्थान के स्वामी शिव ही कहे जाते हैं। इस क्षेत्र के पुराने गाँव का नाम कडप्पेरि हुआ करता था। राजा के वित्तीय आलेखों में वित्त संख्या 192 कडप्पेरि नामक इस गाँव को समर्पित थी। (मदुरान्तकम की वित्तीय संख्या 191 थी) । ब्रह्मोत्सव आदि बहुत से धार्मिक उत्सव भी यहाँ मनाये जाते थे जिसकी व्यवस्था राजा करता था ।

कुछ 100-150 वर्षो पहले तक कुंभाभिषेक हुआ करता था परन्तु उसके बाद के इन वर्षो में इसके होने के प्रमाण नहीं मिलते | मूल मंदिर बहुत पुराना है जिसे भक्त राजाओं तथा जन साधारण दोनों ने समय समय पर जीर्णोद्वार द्वारा अच्छी अवस्था में रखा है।

मन्दिर की वर्तमान स्थिति

आधुनिक काल में भी वर्ष 2006 में मदुरान्तकम तथा तमिलनाडु और आस-पास के स्थानों में रहने वाले सामान्य भक्तों द्वारा जीर्णोद्वार के बाद कुंभाभिषेक का पुनः आरम्भ हुआ जो वर्ष 2011 के बाद से बंद है। उस समय लगभग 1.5 करोड़ की लागत का वहन भक्तों ने किया था । मंदिर के जीर्णोद्धार का कुछ आवश्यक कार्य अभी भी बाकी है , जिसके पूर्ण होने पर ब्रह्मोत्सव का पुनः आयोजन हुआ करेगा।

इस समय भी लगभग एक करोड़ की लागत का कार्य किया जाना बाकी है। भक्तों ने दान इकठ्ठा कर अम्बा के गर्भगृह के तल की क्षति और क्षय को ठीक करवाया है। चोला राजाओं की इन मन्दिरों के निर्माण व विग्रह स्थापना में रूचि थी। उसके रख रखाव के लिए उन्होंने स्वामी (ईश्वर) के नाम से आस पास भूमि को मोल लिया था। किन्तु इस समय में उस भूमि से किसी प्रकार की आय प्राप्त नहीं होती इसलिए अब भक्त जन आगे आकर यथाशक्ति पूजन-अर्चन सामग्री और उत्सवों में योगदान देते हैं और पूरे उत्साह से सम्मिलित होते हैं। प्रदोष के नंदी अभिषेकमें सभी थोड़े-थोड़े दूध और पुष्प के योगदान से सामूहिक सामगी का ढेर लगा देते हैं।

वर्तमान प्रधान अर्चक के पिता के प्रधान अर्चक रहने तक यहाँ नित्य वेद पाठ हुआ करता था और शिवलिंग को यज्ञोपवीत चढाया जाता था।

प्रतिदिन मंदिर प्रागण आदि की स्वच्छता का कार्य करने भक्तगण ही आते हैं। बिना किसी अपेक्षा के मंदिर के प्रागंण की साफ सफाई का कार्य पूरी श्रद्धा से अधिकतर स्त्रियाँ ही करती दिखाई पड़ती हैं। पारंपरिक अर्चक परिवार के मुख्य अर्चक अब वयोवृद्ध हैं। नित्य पूजा -पाठ करने वाले अर्चक भी वृद्ध है। उनका पुत्र मुख्य दिवसों पर बृहत पूजा आदि करने को सदा उपस्थित रहता है।

इस भव्य शिवालय के प्रागंण ने इससे कहीं अच्छे, सम्पन्नता के दिन देखे हैं। वर्तमान में इसकी अवस्था को अच्छा रखने का अर्चक व भक्त यथासम्भव प्रयास कर रहे हैं। यह इस शिवालय की विलक्षणता है। किन्तु इच्छा होती है इसका और अच्छे से पोषण हो,  जिसके लिए संसाधनों और अर्थ की आवश्यकता स्पष्ट दिखती है।

उत्सव परंपरा

मास में दो बार प्रदोष के अवसर पर मंदिर में नंदी अभिषेक तथा प्रदोषनायनार परिक्रमा का आयोजन होता है। प्रदोषनायनार अर्थात् नंदी पर सवार शिव पार्वती का उत्सव विग्रह , विशेष तमिल शिव स्तुति गाते हुए इस विग्रह के साथ मंदिर की प्रदक्षिणा करी जाती है।! इस अवसर पर बाहर के क्षेत्रों से भी भक्त जुटते हैं और लगभग 100-200 जन दर्शन व समारोह में भाग लेते हैं। इस अवसर पर प्रवेशद्वार पर स्थित प्रदोष नंदी के विशाल विग्रह का विधिवत् अभिषेक किया जाता है।

कृष्णाष्टमी का दिन इस मन्दिर में चार भैरव रूपों को समर्पित है , उस दिन उनकी विशेष पूजा होती है।

प्रदोष, आडी पूरम (श्रावण पूर्णिमा), महाशिवरात्रि तथा कृष्णाष्टमी पर भैरव पूजन, ये चार पूजा बड़े स्तर पर करी जाती हैं। मंदिर में विद्यमान मीनाक्षी अम्बा वरदायक शक्ति मानी जाती हैं। विवाह आदि में विलम्ब होने की बाधा को दूर करने यहाँ माँ के आशीर्वाद वर पाने के लिए दूर दूर से भक्त आते हैं।

मदुरान्तकम के इस श्वेतारण्यर मंदिर में नियमित रूप से प्रार्थना करने पर अत्याधिक शान्ति का आगमन होता है, ऐसी यहाँ की मान्यता है। लेखक का अनुभव भी ऐसा ही रहा है।

एक भक्त के द्वारा निर्मित यह लघु चलचित्र इस मन्दिर के पूर्ण व सुंदर दर्शन कराती है। प्रधान अर्चक स्वामी कुमार आनंद सरस्वती इसमें तमिल भाषा में इसके बारे में बता रहे हैं. भाषा न भी समझे तब भी दर्शनीय है।”Mani Talks” यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है।

आभार

अधिकतर जानकारी लेखक द्वारा प्रधान अर्चक जी से स्वयं एकत्रित करी गयी है और चित्र भी स्वयं लिये गये हैं। गर्भगृह के विग्रह यहाँ दी गयी यूट्यूब चैनल मनी टॉक्स से लिये गये हैं, जिसे एक भक्त ने अपने योगदान स्वरूप बनवाया है। मंदिर परिसर में सामान्य जन का गर्भगृह विग्रह का फ़ोटो लेने वर्जित है।

जानकारी के माध्यम:

Featured Image: tamilnadu-favtourism.blogspot.com

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