बात कुछ पुरानी है। तृषार से पूछा था कि एक दिन में मैसूरु में क्या-क्या घूमना चाहिए तो उन्होंने चार गंतव्य बताए थे। चामुंडेश्वरी देवी मंदिर, चन्नाकेशव मंदिर सोमनाथपुरा, मैसूरू पैलेस और जगन मोहन पैलेस।

सुबह सवेरे चामुंडेश्वरी देवी के दर्शन कर मैं सोमनाथपुरा के लिए रवाना हो गई जो मैसूरू से दक्षिण पूर्व दिशा में कावेरी नदी के पास लगभग 38 किमी दूर है। यहां राज्य परिवहन की कोई सीधी बस नहीं जाती, मुख्य सड़क से लगभग 6 किमी जाने के लिए सार्वजनिक टेम्पो या ऑटो लेना पड़ता है।

मैं प्राइवेट टैक्सी लेकर एक घण्टे की यात्रा कर खेतों खलिहानों के बीच में से हो कर मन्दिर पहुंची। मंदिर में प्रवेश करते ही भव्य होयसल इतिहास ने मन मस्तिष्क जकड़ लिया। कितना समृद्ध और वैभवशाली इतिहास था हमारा!

मंदिर का निर्माण होयसल सम्राट नृसिंह तृतीय के सेनापति सोमनाथ दण्डनायक ने ईस्वी सन् 1258 में करवाया था। मंदिर चारों ओर से अट्ठारह खंभों वाले, थोड़ा सा छवाए हुए एक दालान सदृश चारदीवारी में स्थित है।

मंदिर के बाहर एक विशाल और ऊँचा स्तंभ है जो ऊपर से टूटा हुआ है; कदाचित गरुड़ स्तंभ। महाद्वार से मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही वाम हस्त को मंदिर का इतिहास बताता प्राचीन कन्नड़ लिपि में एक प्रस्तर शिलालेख है।

मंदिर की चार दीवारी का दालान ऊपर से छवाया हुआ है जिसके न जाने कितने कोने हैं और उनमें न जानें कितनी टूटी-फूटी देवी देवताओं की मूर्तियां हैं।

मुख्य मंदिर एक तारा रूपी जगति (उठा हुआ प्लेटफॉर्म) पर स्थित है जो पृथ्वी से तीन फुट की ऊंचाई पर है। जगति की पूर्व दिशा में मंदिर में प्रवेश हेतु चार प्रस्तर सीढ़ियां हैं।

सीढ़ियों के दोनों ओर दो द्वारपालों की क्षतिग्रस्त मूर्तियां हैं। जगति पर मंदिर प्रदक्षिणा करने हेतु एक चौड़ा प्रदक्षिणा पथ है। मुख्य मंदिर और मंदिर की चारदीवारी के बीच एक बहुत बड़ा खुला प्रांगण है।

मुख्य मंदिर में तीन गर्भ गृह हैं। पश्चिमी गर्भगृह में केशव (अब मूल मूर्ति नहीं है), उत्तर में जनार्दन और दक्षिण में त्रिभंग मुद्रा में वेणुगोपाल की मूर्तियां हैं। चन्न का अर्थ है सुन्दर, चन्नकेशव अर्थात सुन्दर केशव मंदिर।

इन सभी गर्भ गृहों से जुड़ा एक विशाल ,बहुत सारे स्तंभों वाला सभा मंडप है। मंदिर की बाह्य, भीतरी दीवारों और छत पर रामायण महाभारत और भागवत पुराण के अनेक प्रसंग उकेरे गए हैं।

यवन आक्रांता मालिक काफूर व मुहम्मद बिन तुगलक ने कई बार तोड़ा है। सोलहवीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य और उन्नीसवीं शताब्दी में वोडेयार राजवंश ने इस मंदिर की मरम्मत करवाई है जो कि भिन्न शिलाखंडों को देख कर पता चलता है। मंदिर की मूर्तियां soapstone से निर्मित है जो आसपास कहीं नहीं मिलता है।

मंदिर में प्रवेश करते ही मैं सीधे पश्चिमी गर्भगृह की ओर बढ़ गई। मुझे तब पता भी नहीं था कि यह केशव की मूल मूर्ति नहीं है। गर्भगृह में मेरे सिवा कोई और नहीं था।

प्रवेश करते ही लगा मानों मैं किसी बड़े चुम्बक के दो ध्रुवों के बीच में अटक गई हूं। पैर थम गए। चलना चाहती थी पर चल नहीं पा रही थी कि अकारण मेरा हृदय द्रुतगति से धड़कने लगा। एक तीव्र अहैतुक प्रेम की सुनामी न जाने कहां मुझे बहाए ले जा रही थी।

मैं स्वयं को संभाल न सकी और दिन काल स्थान सब भूल कर जड़वत खड़ी रह गई। वो अनहद नाद था या हृदयगति का स्वर, नहीं पता, पर अंतर में एक ही शब्द अनवरत बज रहा था केशव – केशव- केशव….

आँखें कब बरसने लगीं पता ही नहीं चला। चेहरा गीला लगा तो हाथ स्वतः गालों पर चले गए। अरे यह तो अश्रु बह रहे हैं और थम भी नहीं रहे हैं!

प्रेम की पराकाष्ठा क्या होती है, कैसी होती है वह उन क्षणों में केशव के आशीर्वाद से मुझे ज्ञात हुआ। कौन हूँ? कहां हूँ? क्या कर रही हूँ सब गौण हो चुका था। मैं उनके प्रेम की धारा में बहे जा रही थी। कितनी देर वहां अर्ध विक्षिप्त अवस्था में खड़ी रही याद नहीं।

आसपास थोड़ा कोलाहल होने पर ध्यान टूटा, देखा कुछ और लोग गर्भगृह में जाना चाहते थे। येन केन प्रकारेण एक कोने तक पहुंच कर धप से बैठ गई उसी ऊर्जा में ध्यान मग्न हो गई।

मुझे बाद में पता चला कि केशव की मूल प्रतिमा उस गर्भगृह में नहीं है। न हो- पर केशव वहां अवश्य हैं। उनके भक्तों को उनके अहैतुक प्रेम की प्रसादी ऐसे ही मिलती भी होगी।

फिर से उन्हें, वेणुगोपाल और जनार्दन को प्रणाम कर मैं सभा मंडप में आ गई और मंदिर की दीवारों पर उकेरे रामायण महाभारत और भागवत पुराण के प्रसंगों को देखना जारी रखा।

बहुत से चित्र लिए, वीडियो भी बनाए किंतु बार बार यह लग रहा था कि सत्य वही है जो अंतर में अनुभव हुआ। खुली आंखों से जो दिखता है वह स्वप्न से अधिक कुछ नहीं।

यह मंदिर पर लेख है या मेरी यात्रा का वर्णन इसका निर्णय सुधिजनों पर छोड़ रही हूँ पर जो लिखा है, सत्य है।

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