अभी तो सुबह के दस ही बजे थे और पानिपत जैसे छोटे शहर में मुझे एक लंबा दिन गुजारना था। बोरियत और चिढ़ से बचने के लिए मैंने डॉरमेट्री से बाहर कदम रखा। क्या करना है, कहां जाना है कुछ भी नहीं सोचा था। पानिपत की संकरी गलियों में दोनों ओर फल-सब्जी के ठेले लगे हुए थे। रास्ते पर दुपहिया वाहनों और राहगीरों की आवाजाही कम ही थी। यह भारत बंद का असर भी हो सकता था।
वैसे तो मैं दिल्ली से होते हुए मुम्बई की ओर आगे बढ़ना चाहता था लेकिन विपक्षी दलों के भारत बंद के आह्वान की खबर ने मुझे एक और दिन के लिए पानिपत शहर का मेहमान बनने पर विवश कर दिया था। प्रदर्शनकारी पानिपत से दिल्ली जाने वाले रास्ते पर अड़ंगा डाले बैठे थे।
दोपहर होने को थी और मैं भारत बंद को मन ही मन कोस रहा था। दिसम्बर की ठंड में चाय की तलब कुछ ज्यादा ही महसूस होती है। मैं रोड-साइड चाय की टपरी पर चाय पीने रुका और शहर में दिन कैसे गुजारा जाए इस बारे में सोचने लगा। चायवाले से गपशप करते हुए मैंने पता लगाया कि करीब सात किलोमीटर दूर ‘काला-आम्ब’ नामक उद्यान है जहां समय व्यतीत किया जा सकता है।
ठंड का मौसम और समय की ना-पाबंदी के कारण मैंने पैदल ही आगे का रास्ता नापने का मन बनाया। चलते चलते समय व्यतीत करने हेतु मैं गूगल पर ‘काला-आम्ब’ के विषय में जानकारी जुटाने का प्रयास करने लगा।
कुछ वेबसाइट्स पर काला-आम्ब के विषय में काफी रोचक जानकारी है। पानिपत तीन भीषण युद्धों का साक्षी बना है लेकिन इस स्थान का नाम काला-आम्ब पानीपत के तीसरे और अंतिम युद्ध के बाद पड़ा था।
“पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी को पराजित कर मुगल लूटेरे बाबर ने भारत में प्रवेश किया था। बाबर के पश्चात हुमायूं ने भी भारत में पैर जमाने और साम्राज्य विस्तार के काफी प्रयास किए। वैसे भी ‘सोने की चिड़िया’ भारत हमेशा से पश्चिम से आने वाले विधर्मी लूटेरों का मनपसंद स्थल रहा है।”
“पानीपत के द्वितीय युद्ध में भारतीय सम्राट विक्रमादित्य हेमु ने अकबर की सेना से लोहा लिया लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय सम्राट पराजित हुए। इस युद्ध में अकबर के सैन्य का नेतृत्व बैरम खान के हाथों में था और इस क्रूर राक्षस ने अमानवीय व्यवहार करते हुए पराजित हेमु की हत्या कर दी। पानीपत का दूसरा युद्ध भारत की धरती पर लंबे विधर्मी वंश के शासन का कारण बना।”
“लंबे समय तक मुगलों ने उत्तर भारत में एकचक्र शासन किया। दिल्ली का मुग़ल परचम भारतीय राजा-महाराजाओं को चुनौती देता रहा लेकिन दुर्भाग्यवश यह कालखंड भारतीय शासकों के सामर्थ्य का अंधकार युग था।” समय रेखा पर घटित ऐतिहासिक घटनाएं पढ़ते हुए मैं गंतव्य के और करीब बढ़ता चला जा रहा था।
साम्राज्य कितना ही सामर्थ्यवान क्यूं ना हो लेकिन यदि शासक प्रजा के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करे तो कभी ना कभी उसका अस्त होता ही है। मुगलों के सामने भी दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य तथा उत्तर में पंजाब और भरतपुर जैसे राज्यों ने मस्तक उठाना शुरू कर दिया था।
“अठारहवीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य का अंत हुआ और विक्रमादित्य हेमु के पश्चात पेशवा के नेतृत्व में पहली बार दिल्ली पर भगवा ध्वज फहराया गया।” यह सब वृत्तांत पढ़ते हुए मैं काला-आम्ब स्मारक स्थल के प्रवेशद्वार तक पहुंच गया। प्रवेशद्वार पर एक छोटी सी शिवाजी महाराज की प्रतिमा थी।
काला-आम्ब उद्यान में कोई भी पर्यटक नहीं था, बस कुछ स्थानीय किशोरों की एक टोली और कुछ प्रेमी पंछियों की मौजूदगी के अलावा कोई हलचल नहीं थी। मैंने पानीपत का किस्सा आगे पढ़ना जारी रखा। “अठारहवीं शताब्दी के मध्य में रोहिल्ला सरदार नजीबुद्दौला ने दुर्रानी अफ़गान अहमदशाह अब्दाली को भारतवर्ष पर आक्रमण के लिए उकसाया। और इस अभियान में विदेशी आक्रमणकारी को औध के नवाब का भी सहयोग प्राप्त हो गया।”
दोपहरी ढल रही थी और मैं भी थकान महसूस कर रहा था। उद्यान के गिने-चुने मेहमान भी विदा हो चुके थे। मैं वहीं एक पेड़ की छांव में बैठ गया। पेड़ की शीतल छाया में श्रम से थकी काया को कब नींद लग गई पता नहीं चला।
आस-पास हो रहे कोलाहल से जब मेरी आंखें खुलीं तो मैंने पाया कि सामने का दृश्य बदल चुका था। शाम ढल चुकी थी और हरे-भरे उद्यान का स्थान रणभूमि ने ले लिया था। सामने सहस्रों की संख्या में क्षतविक्षत देहों का अंबार लगा हुआ था। उनमें से कितने जीवित थे और कितने मृतदेह यह अंदाजा लगाना भी मुश्किल था।
यह भयावह दृश्य देख कर मैं सिर से पैर तक पसीने से लथपथ हो गया। दूर विजेता छावनियों में जश्न मनाया जा रहा था। रणभूमि से घायल सिपाहियों के कराहने की आवाज़ें और छावनियों से जश्न के शोर से पाशविक माहौल खड़ा हो रहा था।
मैंने उठ कर इस महाविनाशक स्थान से बाहर निकलने के लिए दौड़ लगाई लेकिन सामने दौड़ने जितनी भी जगह नहीं थी। पूरे मैदान पर मानो लाशों की चटाई बिछी हुई थी।
इस भयावह स्थिति में प्यास और प्रस्वेद से मेरा कंठ रुंधता जा रहा था। मैं रणमैदान में कराहने की आवाज़ों के उपरांत जीवन का प्रमाण ढूंढ रहा था। तभी मैंने देखा कि करीब तीन सौ मीटर की दूरी पर एक प्रौढ़ महिला मशक से घायलों को पानी पिला रहीं थीं।
श्वेत वस्त्र धारण किए वो भद्र महिला इस जगह क्या कर रही थीं? इस भीषण दृश्य को देखकर कोई भी व्यथित हो सकता है और यह महिला इस स्थिति में भी घायलों की सेवा में लगी हुई थीं। मैं जब उनके निकट पहुंचा तो पाया कि बड़ी ही करुणासभर आंखों से वह हर एक घायल सिपाही की सेवा कर रहीं थीं।
मैं उनके समक्ष पहुंचा और उन्होंने मेरी ओर देखा। उनका प्रतिभावान मुख ग्रहण लगे सूर्य की भांति निस्तेज प्रतीत हो रहा था। मैंने उनसे पूछा “इस श्मसानवत युद्ध भूमि में वह क्या कर रही हैं?” उन्होंने कहा “मेरे बहादुर पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए हैं और मैं यहां उन्हें अंतिम विदाई देने आई हूं।”
मैं स्तब्ध रह गया। “क्षितिज तक मृतदेह बिखरे पड़े हैं इनमें से आपके पुत्रों को कैसे पहचानेंगे?” उन्होंने कहा “यह सभी मेरे ही पुत्र हैं और मैं इन सब की माता।” यह कहते हुए उनके नेत्रों से अश्रु की धारा बह निकली। उनके अश्रुओं को देख कर मेरा हृदय द्रवित हो गया और मैंने उनकी सहायता के लिए हाथ बढ़ाया।
संध्या के ढलने के साथ घायलों की कराहने की आवाज़ें कमतर होतीं जा रही थीं और पानिपत की रणभूमि श्मशान भूमि में परिवर्तित होती जा रही थी। इस भीषण करुणांतिका को देख कर मेरे मन में आवेश भरता जा रहा था। क्रोधवश मैंने कहा “यदि उत्तर भारत के दूसरे राज्य भी सदाशिव राव भाऊ का साथ देते तो इस युद्ध का ऐसा करूणांत नहीं होता।”
भद्र महिला ने कहा “कौन से राजाओं की बात कर रहे हो पुत्र? नजीबुद्दौला रोहिल्ला, जिसने अहमद शाह अब्दाली को भारत में आमंत्रित किया या शुजाउद्दौला जिसने अब्दाली को अपना सैन्य दिया?”
अनायास ही मैंने उन्हें माँ सम्बोधित करते हुए कहा “नहीं माँ, इनसे तो उम्मीद भी नहीं थी, इन लोगों की वफादारी तो कभी इस धरती से रही ही नहीं। लेकिन हिंदू राजा तो साथ दे सकते थे। उन्होंने क्यूं द्रोह किया?”
उन्होंने कहा “गोविंदपंत बुंदेला ने मृत्युपर्यंत पेशवा का साथ दिया। जब पेशवा सैन्य का संपर्क मुख्यभूमि से कट गया तब पटियाला राज्य ने उन्हें रसद पहुंचाई। युद्ध के पश्चात महाराजा सूरजमल ने पेशवा स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान की। यदि यह सभी पेशवा के शत्रु होते तो सहायता क्यूं करते? अंततः प्रत्यक्ष युद्ध में भाग लेना या ना लेना राजकीय निर्णय होता है।”
“माँ, क्या इस घोर पराजय के लिए भाऊ दोषी थे?”
“नहीं, कदापि नहीं। जिन्होंने वीरता पूर्वक रणभूमि में अपने प्राणों की आहुति दी वो कैसे दोषी हो सकते हैं! भविष्य में सदाशिव राव भाऊ का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।”
“तो फिर इस पराभव का दोषी कौन?”
माँ ने गहरी साँस लेते हुए कहा “पानिपत संग्राम से कुछ वर्ष पूर्व पेशवाओं के साथ मिलकर पंजाब प्रदेश की सेनाओं ने अहमदशाह अब्दाली के पुत्र तैमूर शाह को खदेड़ दिया था। यदि पानिपत में यह सभी राज्य कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते तो हम कभी पराजित नहीं होते। लेकिन इसके लिए संगठित होकर शत्रु का सामना करना आवश्यक था।”
“तो फिर ऐसा क्या हुआ जो पानिपत में सभी हिंदू सत्ताएं एकजुट ना हो पाईं?”
“नजीबुद्दौला ने मजहब का वास्ता देकर औध के नवाब और अब्दाली का सहयोग प्राप्त किया और इसी षड्यंत्रकारी नजीबुद्दौला ने हिंदू राज्यों में फूट डालने का भी काम किया। नजीबुद्दौला ने सभी उत्तरी राजाओं को पेशवाओं के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास किया और वह सफल भी हुआ। युद्ध से पूर्व नजीब सभी को विश्वास दिलाने में सफल रहा कि अब्दाली जीता तो खून-खराबा और लूट-पाट कर के वापस चला जाएगा किंतु पेशवा जीते तो वह लोग यहीं अपना आधिपत्य कायम करेंगे।”
मैंने पूछा “तालिकोट से पानिपत तक, हमेशा ऐसा क्यूं हुआ कि हम एक राष्ट्र के रूप में भगवे-ध्वज तले एकत्रित नहीं हो पाए?”
माँ ने कहा “विदेशी आक्रमणकारियों को उनके संगठित धर्म का लाभ मिलता रहा। दूसरी ओर हमारे लिए धर्माभिमान और राष्ट्र गौरव जैसे शब्द मात्र ग्रंथों में दबे रह गए। दुर्भाग्य से स्वार्थ, लालच और सत्ता लालसा ने हमें कभी एक होने ही नहीं दिया। पानिपत में भी यही हुआ।”
मैंने निराशा भरे स्वर में कहा “इसका समाधान क्या है?”
माँ बोलीं “आचार्य चाणक्य ने कहा था कि पराजित राष्ट्र तब तक पराजित नहीं होता, जब तक वह अपनी संस्कृति की रक्षा कर पाता है। जिस दिन हमने अपनी सांस्कृतिक विरासत को छोड़ा, हमारा पतन निश्चित है। शत्रु भी यह बात भली-भांति समझता है इसीलिए शिक्षा प्रणाली, फिल्में, मिडिया, इन्टरनेट, अवैध धर्मांतरण और अन्य माध्यमों से सतत इस राष्ट्र की चेतना पर प्रहार किया जा रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष शक्तियां इस कार्य में तब तक सफल नहीं हो सकतीं जब तक हमारी सभ्यता और संस्कृति का हृास नहीं हो जाता।” यह कहते हुए माँ के चेहरे पर दृढ़ता के भाव उभरे।
मैं उनके साथ संवाद आगे बढ़ाता उससे पहले ही वॉचमैन की व्हिसल ने मुझे सन १७६१ से वापस २०२० में आने पर विवश कर दिया। मृतदेहों से लदी रणभूमि फिर से उद्यान का रूप ले चुकी थी।
अंधेरा गहराता जा रहा था और मेरे सामने काला-आम्ब स्मारक के पास माँ खड़ी थीं। वही काला-आम्ब जिसे हिंदवी स्वराज्य की रक्षा करते हुए सपूतों ने अपने खून से सींचा था। वही काला-आम्ब जिसके फलों ने हुतात्माओं के रक्त का रंग कभी नहीं छोड़ा।
पानिपत रणभूमि में इतना रक्त सिंचा गया था कि यहां स्थित आम के पेड़ पर फलों का रंग भी काला पड़ गया था, इसी कारण से इसे काला-आम्ब कहा जाता है। सूख जाने पर इस पेड़ के काष्ठ से एक दरवाजे की चौखट का निर्माण किया गया था। यह चौखट अब पानीपत संग्रहालय में रखी गई है।
उद्यान से बाहर निकलते हुए मोबाइल फोन के नोटिफिकेशन ने बताया कि तथाकथित किसान आंदोलन में समाधान का एक और प्रयास विफल हो चुका था। आंदोलनकारी देशद्रोहियों को छुड़ाने की मांग कर रहे थे। तो दूसरी ओर सोशल मीडिया पर मेरे मित्रों में लिट्टी-चोखा, दाल-बाटी और वड़ा-पाव में श्रेष्ठता की होड़ लगी हुई थी।
मैंने निराशा से मोबाइल फोन जेब में रख दिया। हाँ, हम आज भी आपस में लड़ते हैं, कभी आंदोलन के नाम पर तो कभी प्रादेशिक गर्व के नाम पर। कभी पाटीदार आंदोलन तो कभी गुर्जर आंदोलन। दलित, महिला, प्रदेशवाद, जातिवाद, भाषावाद, आर्य-द्रविड़… हमें विभाजित करना आसान है क्योंकि हमने कभी संगठन की शक्ति को पहचाना ही नहीं।
पानिपत के भीषण पराजय के पश्चात
पंजाब में सिक्ख सत्ता मजबूत हुई।
पानिपत के मात्र दस वर्ष में होलकर, सिंधिया और गायकवाड़ ने अपने अपने क्षेत्रों पर फिर से वर्चस्व कायम किया।
मुगल साम्राज्य का पतन हुआ।
नजीबुद्दौला ने छल-कपट का सहारा लेते हुए सन १७६३ के युद्ध में महाराजा सूरजमल की हत्या कर दी।
नजीबुद्दौला की मृत्यु के पश्चात सिंधिया ने नजीबुद्दौला की कब्र खोद दी।
पानिपत युद्ध के बाद पश्चिम से आने वाले आक्रमण कमजोर अवश्य हुए किन्तु कुछ ही वर्षों में पलाशी के युद्ध ने कुटिल अंग्रेजों को इस भूमि पर पैर जमाने का मौका दे दिया।।
शानदार
What’s app ke bhi sharing icon daal do aasani hogi sharing me.
अद्भुत भाउ
आंदोलनकारी देशद्रोहियों को छुड़ाने की मांग कर रहे थे।.. itna shandar likh ne ke baad ek line me aapne kayarta ko salaam thok diya ..