अगरतला से 27 किमी दूर दक्षिणपूर्व दिशा में जिला सिपाहिजला के अंतर्गत एक छोटा सा क्षेत्र है जो कस्बा नाम से जाना जाता है। यह बांग्लादेश की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगा हुआ है।
यहाँ एक 527 वर्ष पुराना काली मंदिर है जिसे स्थानीय लोग कस्बा काली या कसबेश्वरी मंदिर के नाम से जानते हैं। इस जगह का प्राचीन नाम कैलाशगढ़/कैलागढ़ था।
यहाँ एक दुर्ग हुआ करता था। 925 हाथ (1425 फुट) लंबा चौड़ा ये दुर्ग तत्कालीन एक प्रशस्त सैन्य निवास था।
महाराजा धन्य माणिक्य के शासन काल में गौड़ नवाब हुसैन शाह के सेनापति हेतन खां ने सन 1517(शक 1439) में इस दुर्ग पर आक्रमण किया, इस युद्ध में त्रिपुरा की सेना पराजित हुई और विजयी यवनों ने स्थान का नाम परिवर्तित कर ‘कस्बा’ कर दिया।
इस घटनाक्रम के पश्चात सन 1528 से 1570 के बीच महाराज विजय माणिक्य ने फूस मिट्टी (खड़) की झोंपड़ी में वर्तमान विग्रह को सर्वप्रथम स्थपित किया था।
तत्कालीन राज इतिहासकार कैलाश सिंह की रचना ‘राजमाला ’ के अनुसार इस दुर्ग में महाराज कल्याण माणिक्य (सन 1626 से 1660) ने प्रस्तर निर्मित बारह हाथ लंबा चौड़ा एक प्रकोष्ठ का मंदिर हेतु निर्माण करवाया था, जिसकी दीवार वेध (चौडाई) चार हाथ थी। किंतु अपने जीवन काल में वे विग्रह की स्थापना नहीं करवा पाए।
उनके बाद महाराज रत्न माणिक्य द्वितीय (सन 1685से 1693 ई) के जीवन काल में इस मंदिर का विधिवत संस्कार किया गया।
जनश्रुति के अनुसार महाराज विजय माणिक्य को माता का स्वप्नादेश हुआ था कि वे हबीगंज (अब बांग्लादेश में) के एक ब्राह्मण गृहस्थ के घर से उन्हें ले जाएँ और उनका मंदिर बनवाएँ।
महाराज धन्य माणिक्य की महिषी, महारानी कमला महादेवी ने मंदिर के सामने वाले स्थान पर एक जलाशय खनन करवाया था जिसे अब कमलासागर दीघि कहते हैं। दीघि के पश्चिम तट पर कांटेदार तार से बाधित बांग्लादेश की अंतर्राष्ट्रीय सीमा है।
अविभाजित भारत के असम-बंगाल रेलवे का कमलासगर रेल स्टेशन अब बांग्लादेश में है। आती-जाती ट्रेनें और उनकी सीटियाँ अब भी मंदिर से दिखती/सुनाई पड़ती हैं। ब्रिटिश काल में बनी ये रेलवे लाइन तब त्रिपुरा की बहिर्जगत से संबंध की एक मात्र व्यवस्था थी।
कृष्णवर्णी प्रस्तर (ब्लैक सैंडस्टोन) निर्मित यह सिंहवाहिनी मूर्ति दशभुजा भगवती की है जो अब सिंदूर लेप के कारण लाल हो गई है। मंदिर बंगाल में प्रचलित रत्न शैली में बना है तथा एक टीले पर स्थित है। त्रिपुरा राजा के यवनों के साथ के युद्ध और त्रिपुरा के सामान्य जन जीवन के विभिन्न उत्कीर्णन मंदिर परिसर में बने हुए हैं।
मंदिर का विग्रह दशभुजा दुर्गा का होने के बावजूद माँ के पैरों के पास एक शिवलिंग होने के कारण देवी की पूजा काली रुप में ही की जाती है।
मंदिर में देवी विग्रह के दायीं ओर आनंदमयी माँ का एक बड़ा चित्र है। पूछने पर पता चला कि उनका घर मंदिर के पास ही था और उनका अधिकांश समय इस मंदिर में ध्यान करते हुए बीतता था।
मंदिर की ऊर्जा बहुत शांत और आनंददायक है। देवी के समक्ष बैठने पर अनायास ही ध्यान लग जाता है। कदाचित आनंदमयी माँ की ऊर्जा आज भी साधकों को अपना आशीर्वाद देती है।
एक और आश्चर्यजनक बात यह है कि यह मंदिर और दीघि एक तरह से बांग्लादेश की परिसीमा में होते हुए भी भारत के आधिपत्य में हैं क्योंकि इनके तीन तरफ़ बांग्लादेश की सीमा है। यहाँ यदि आप अपने मोबाइल फोन पर समय देखेंगे तो आपको दोनों देशों का समय दिखेगा।
तथ्य सौजन्य: शिलालेख व आठवीं पीढ़ी के मंदिर पुरोहित श्री तपन चक्रवर्ती
Thanks for sharing. Very informative