मां ने पूजा से उठते हुए आवाज लगाई, “पूजा हो गई है,जाओ माथा टेककर प्रसाद के दोने उठा लेना।”

दीवाल पर बने हुए छठ्ठी माता के चित्र को धरती पर माथा टेककर प्रणाम किया और महुआ के पत्तों के दोनों में रखे हुए दही-तिन्नी के चावल का प्रसाद उठाते हुए बाहर निकलकर पूछा, “आज दाऊ भैया का जन्मदिन है ना?”

“हां“, उत्तर मिला।

“तो आज आप भाई लोग के लिए व्रत क्यों रहती हैं?”

“तो यह व्रत कान्हा के जन्मदिन पर क्यों नहीं रखा जाता?” बाहर हो रही जन्माष्टमी की तैयारियों को देखते हुए अगला प्रश्न पूछा।

काम के बीच में लगातार प्रश्नों की झड़ी से झुंझलाकर मॉं ने कहा, “जा बाबा से पूछ! वही बताएंगे, इनके जन्मदिन पर क्यों किया जाता है, उनके जन्मदिन पर क्यों नहीं।”

कल तक आकाश में काले-काले मेघ घुमड़ रहे थे और मूसलाधार वर्षा की झड़ी लगी हुई थी, किंतु आज प्रातः काल से ही चटख धूप ने आसमान में डेरा डाल रखा था। बीच-बीच में बादलों के टुकड़े उड़ते हुए देखकर भरत व्यास जी की पंक्तियां अनायास स्मरण हो आईं-

हरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन
कि जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन
दिशाएं देखो रंग भरी, ये हंस रही उमंग भरी
ये किसने फ़ूल फूल पर किया सिंगार है
वो कौन चित्रकार है…

रात में भोजन के बाद बाबा के कंधे से सिर टिकाए नीरव आकाश में आकाशगंगा को निहारते हुए सुबह वाला प्रश्न दोहरा दिया।

बाबा मुस्कुराए और बोले, “क्योंकि वे संकर्षण हैं।”

“संकर्षण हैं! इसका क्या अर्थ?”

एक मंदस्मित के साथ आकाशगंगा की ओर इंगित करते हुए बाबा बोले, “वो आकाशगंगा दिख रही है न? तुमने तो कॉलेज में इसके बारे में बहुत अच्छे से पढ़ा होगा। चलो बताओ उसके बारे में !”

“उसके बारे में क्या बताना! असंख्य तारों, ग्रहों, नक्षत्रों से निर्मित यह हमारी मंदाकिनी ‘आकाशगंगा’ है। हमारा सौरमंडल इस आकाशगंगा के छोर पर स्थित है। यह हमारी निकटतम मंदाकिनी है।”

“और ?” वह जानते थे अंतरिक्ष उसका प्रिय विषय है।

“ऐसी असंख्य मंदाकिनियां इस ब्रह्माण्ड में हैं। आकाशगंगा का आकार ऐसे सीधा नहीं है जैसा कि आकाश में दिख रहा है, अपितु कुण्डलाकार है।”

“कुण्डलाकार?”

“हॉं! जैसे कोई नाग कुण्डली मारकर बैठा हो, वैसे ही आकाशगंगा भी अंदर से बाहर की ओर कुण्डलाकार है। आकाशगंगा में असंख्य तारों, ग्रहों,निहारिकाओं के साथ साथ श्याम- श्वेत विवर भी हैं।”

“श्याम श्वेत विवर?”

“अरे! ब्लैक और व्हाइट होल। लेकिन आप मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के स्थान पर यह सब क्यों पूछ रहे हैं?” 

“क्योंकि जिनके बारे में पूछा है, वो भी कुछ-कुछ ऐसे ही हैं।”

“ऐसे ! आकाशगंगा जैसे?”

“हां। विस्तृत महार्णव में एक विशाल श्वेत नागपुरुष अपने सहस्रफणों के साथ कुण्डलीकृत अवस्था में स्थित है। कुण्डलीरूप में उपस्थित इन नागपुरुष का छोर पाना असंभव है। अपने सहस्रफण रूप से छत्र सा निर्मित करते हुए वे नाना प्रकार के कार्यों में संलग्न रहते हैं। अतः इनके कार्य, सीमा, गुणों की गणना असंभव है। अपने शीर्ष और अन्त को एक ही साथ धारण करते हुए वे शेष अपने अनन्त रूप को चरितार्थ करते हैं । इनके पुरुषार्थ की छत्रछाया में ही श्रीहरि विष्णु अपनी योगनिद्रा में स्थित रह सकते हैं। श्रीहरि! जिनसे संसार प्रकट और लीन होता है, समझे?”

“नहीं! कुछ कुछ। लेकिन आप तो इनके जन्मदिन की कहानी बता रहे थे!”

“हां-हां! बताता हूं वह भी। मथुरा के युवराज कंस ने अपनी प्रिय बहन देवकी का विवाह श्रीमंत वसुदेव जी के साथ किया। वसुदेव जी की ज्येष्ठ पत्नी का नाम रोहिणी था और वे उस समय गोकुल में वसुदेव जी के मित्र और गोपप्रमुख नंद जी के यहां गई हुईं थीं। एक आकाशवाणी हुई और उसमें देवकी के आठवें पुत्र के हाथों कंस की मृत्यु बताई गई। भयभीत कंस ने लोकोपवाद के चलतेबहन की हत्या न करके, बहन-बहनोई को कारागार में डाल दिया। उनकी छः सन्तानों को कंस ने एक-एक कर मार डाला। राज्यभ्रष्ट एवं पतिवियोग से दुखी रोहिणी नन्द-यशोदा के स्नेहिल साथ में अपने कष्टों के बीतने की प्रतीक्षा और सबके मंगल की कामना करती रहीं। सातवें पुत्र के जन्म के समय कुछ विचित्र घटा। कंस को समाचार मिला कि देवकी के सातवें शिशु का पांचवे माह में ही गर्भपात हो गया है। सब ओर दुःख और निराशा की लहर दौड़ गई। कंस ने सुख की सांस ली, कम से कम यह हत्या उसे अपने हाथों से नहीं करनी पड़ी। द्रवित होकर बहन-बहनोई को भी कारागार के स्थान पर महल में रहने की अनुमति दे दी। लेकिन अघटित घटित हो चुका था।

विस्रंसितश्च गर्भोऽसौ योगेन योगमायया ।
नीतश्च रोहिणीगर्भे कृत्वा संकर्षणं बलात् ।।२४।।

चतुर्थ स्कन्ध, श्रीमद्देवीभागवत

योगमाया सातवें गर्भ को संकर्षित कर देवकी से रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर चुकी थीं। गोकुल में बधाइयां गूंजी, शगुन के मुक्ताहार लुटाए गए, बड़ी-बूढ़ियों ने बलाएं लीं , घी-दूध की नदियां बहीं, मंगलगान गूंजे। भाद्रपद कृष्ण षष्ठी को श्रीकृष्ण और सुभद्रा के अग्रज, कान्हा के दाऊ, दुर्योधन और भीम के गुरु, रेवतीरमण, हलधारी, संकर्षण बलराम का प्रकाट्य नंदगृह में हुआ। चन्द्रमा सा उज्ज्वल मुख, गौर वर्ण, कजरारी आंखें और और विपुल केशराशि युक्त मस्तक। जो देखता मंत्रमुग्ध सा रह जाता। बालक स्वभाव से सरल, स्नेहिल किंतु हठी और शीघ्र उत्तेजित होने वाला था।“

“अच्छा! तो ये थे बलराम भैया और इसलिए इनका नाम संकर्षण पड़ा।”

“हां, और चूंकि छः पुत्रों की मृत्यु के बाद इनकी रक्षा योगमाया ने इस विलक्षण तरीके से की थी। अतः उनके जन्मदिन को माताएं हलषष्ठी के रूप में मनाती हैं। इस दिन वे षष्ठी माता जो कि शिशुओं की अधिष्ठात्री देवी हैं, उनका पूजन करती हैं और अपने पुत्रों के दीर्घायु होने की प्रार्थना करती हैं।“

“लेकिन इस पूजा में जोते-बोए खेत से उत्पन्न वस्तु का सेवन वर्जित क्यों है?”

“कृष्ण और बलराम समाज के पशुपालक और कृषक वर्ग का प्रतीक रूप हैं। कृष्ण वंशी लिए गौचारण करते हैं, दधि-दुग्ध का संपूर्ण समाज में समान रूप से उत्पादन और वितरण करते हैं। वहीं बलभद्र हल को धारण करके कृषि भूमि का विकास करते हैं, अन्न के भण्डार भरते हैं । जहां अन्न प्रचुर मात्रा में उपज रहा है, साथ ही साथ पशुधन से भरे क्षेत्र हैं, जन-जन पुष्ट, निरोगी और स्वस्थ है, वही समाज और देश समृद्ध है। इसीलिए कृषकभूमि को सम्मान देते हुए हलषष्ठी के दिन प्रतीकात्मक रूप में हल-बैल को विश्राम दिया जाता है। इस दिन आहार में जोते- बोएबोए खेत में उगे खाद्य पदार्थ नहीं ग्रहण किए जाते। साथ ही साथ गाय के दूध से बनी वस्तुओं के स्थान पर अन्य प्राणियों के दूध का प्रयोग किया जाता है।“

“दाऊ भैया के जन्म की कथा तो बहुत रोचक है!”

“हां, शेषावतार बलराम परमात्मा के ही अन्य रूप हैं। जब प्रकृति में परमात्मा के ईक्षण से संकल्प से विकासोन्मुख परिणाम होता है तो उसे सृष्टि कहते हैं और जब विनाशोन्मुख परिणाम होता है तो उसे प्रलय कहते हैं। सृष्टि और प्रलय की मध्य की दशा का नाम स्थिति है इस प्रकार जगत की तीन अवस्थाएं हैं- सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय। सृष्टि करते समय परमात्मा प्रद्युम्न,पालन करते समय अनिरुद्ध और संहार करते समय संकर्षण कहलाते हैं।”

“उनका संकर्षण स्वरूप कैसा है?”

“संकर्षण, परातत्त्व भगवान के अनेक कल्याणगुणगण हैं, उनमें छः प्रमुख हैं। इन्हीं छः गुणों में जब वे ज्ञान और बल का प्रकाशन करते हैं तो संकर्षण कहलाते हैं। संकर्षण में वीर्य, ऐश्वर्य, शक्ति और तेज का अभाव नहीं है। इनका वर्ण पद्मराग के समान है । ये नीलाम्बरधारी हैं। चार करकमलों में क्रमशः हल, मूसल,गदा और अभय मुद्रा धारण करते हैं। ताल इनकी ध्वजा का लक्षण है। ये जीव के अधिष्ठाता बनते हुए ज्ञान नामक गुण से शास्त्र का प्रवर्तन करते हैं और बल नामक गुण से जगत का संहार करते हैं।”

“अच्छा, तभी कुपित होने पर इन्होंने हस्तिनापुर को हल से उलट देने का संकल्प लिया था!”

बाबा हंस पड़े।

“हां! वैसे जितनी रोचक कथा इनके जन्म की है, उतनी ही रोचक कथा इनके विवाह की भी है।“

“कैसे?”

“तुमने वो आइंस्टीन की टाइम डायलेशन या समय विस्तार थ्योरी तो पढ़ी है ना?”

“हां, वेग और गुरुत्वाकर्षण समय विस्तार पर अलग-अलग बातें कही गईं हैं। विभिन्न विज्ञान कथाओं में इनका उपयोग किया गया है। एक मूवी इंटरस्टेलर में एक ग्रह पर एक घंटा पृथ्वी पर सात साल के बराबर होता है।”

“हां! तो प्रतीकात्मक रूप से कह सकते हैं कि बलराम जी की पत्नी रेवती भी समययात्री थीं।”

“अरे ! ऐसा कैसे हुआ?”

“मनुपुत्र शर्याति के पौत्र महाराज रेवत की अत्यन्त गुणवान रेवती नामक कन्या थी। विवाह योग्य होने पर वर के सम्बन्ध में मंत्रणा करने वे पुत्री के साथ ब्रह्मलोक जा पहुंचे। ब्रह्मा जी ने उन्हें बताया कि ब्रह्मलोक के कालपर्यय के कारण पृथ्वी पर बहुत सा समय बीत चुका है और सत्ताइसवां द्वापर चल रहा है। वहां पर शेष के अंशावतार बलराम हैं, वे ही कन्या के लिए उपयुक्त वर हैं। राजा रेवत ने लौटकर अपनी पुत्री रेवती का विवाह संकर्षण बलराम के साथ कर दिया।”

ददौ तां बलदेवाय कन्यां वै शुभलक्षणाम्।
ततस्तप्त्वा तपस्तीव्रं नृपतिः कालपर्यये।।४५।।

सप्तम स्कन्ध, श्रीमद्देवीभागवत

“वाह! और कान्हा की कथा?”

“कान्हा की कथा अब कान्हा के जन्मदिन पर… चलो झांकी सजाने की तैयारी करते हैं।”

“जी, चलिए! मैं सजावट की सामग्री लेकर आती हूं!”

संदर्भ ग्रंथ

  • श्रीमद्देवीभागवत
  • अवतार अंक, भगवल्लीला अंक, कल्याण

By मनु

Twitter ~ @Bitti_witty

Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x