गाँव में लोग अपनी अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे। शाम ढलने को थी। गाँव के कोने में टूटे-फूटे से घर में गौतमी अपने दस वर्षिय बालक के बालों में कंघी कर रही थी। अपने तंदुरुस्त और सुंदर बालक को निहारते हुए वह सोच रही थी कि वह कितनी भाग्यशाली है जो उसने इतना रुपवान और गुणी बालक जना है।
कंघी करते ही बालक ने अपनी नटखट प्रकृति का परिचय देते हुए माँ का हाथ छुड़ाया और दौड़ता हुआ वह अनाज के डिब्बे के पीछे जा छुपा। उसकी बालसहज लीला देख कर मुस्काती गौतमी उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ी।
अपने बालक के मासूम चेहरे को देखने के लिए लालायित गौतमी ने टंकी के पीछे देखा तो उसकी रूह काँप उठी। वहाँ उसका प्राणों से प्यारा बालक निष्चेत पड़ा हुआ था।
बालक का भावशून्य और तेजहीन चेहरा देखते ही उसने अपने दोनों हाथों से बालक को उठा लिया। उसने चिल्ला चिल्लाकर गाँववालों को इकट्ठा कर लिया।
उसकी आँखों से निरंतर आँसू बहते जा रहे थे। गाँव के अनुभवियों ने बालक को स्पर्श करते ही पाया कि उसका देह ठंढा पड़ चुका था। वह मर चुका था।
जब यह सत्य गौतमी को बताया गया तो वह निरंकुश हो गई, उसकी सभी आशाओं और भविष्य की योजनाओं का शव उसके सामने पड़ा हुआ था।
उसने रोते हुए अपने बालक का मृतदेह उठा लिया और गाँव के लोगों के सामने अपने बालक को जीवनदान देने की याचना करने लगी।
मृतक को जिवित करने का सामर्थ्य किसी में नहीं था। लोगों ने बालक के शव की अंत्येष्टि की तैयारी करना शुरू कर दिया। एक शव को ज्यादा देर तक रखने से उसके सड़ जाने और गंध फैल जाने की आशंका थी।
लेकिन एक माता का मन मानने को तैयार नहीं था। उसने बालक का शव अपनी छाती से लगा लिया। लाख प्रयासों के बावजूद ग्राम्यजन उसे समझाने में विफल रहे। गौतमी का आक्रंद उनके लिए भी देख पाना असंभव हो रहा था।
तभी एक मुहल्ले में रहने वाले एक वृद्ध ग्रामीण ने कहा, “गाँव में एक महात्मा आए हुए हैं, उनकी सिद्धियाँ अतुल्य हैं। यदि तुम अपने मृत बालक का शव ले कर उनके पास जाओ तो वह इसे अवश्य ही पुनर्जीवित कर देंगे।”
गौतमी की आँखों में आशा का संचार हुआ। वह तत्परता से महात्मा को ढूंढने निकल पड़ी। गाँव के दूसरे छोर पर स्थित बडे अश्वत्थ के पेड़ के नीचे युवा महात्मा अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे।
उनके चेहरे पर अद्भुत तेज था। उनके घुंघराले बालों को उन्होंने अपने शीर्ष पर जटा के रूप में बांध दिया था। उन्हें देखते ही गौतमी के अंतर्मन में एक आध्यात्मिक शांति का अनुभव हुआ।
शिष्यों और भक्तों की भीड़ को चीरते हुए वह महात्मा के निकट जा पहुँची। उसने अपने मृत बालक का ठंढा पड़ चुका शव महात्मा के चरणों में रख दिया और दोनों हाथ जोड़कर उसने याचना करते हुए कहा, “महात्मा बुद्ध, यह बालक मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इसकी मृत्यु के बाद मेरे जीवन में करने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा, आप तो सिद्ध हैं, महात्मा हैं। एक बालक को जीवनदान देना आपके लिए कोई बडा़ कार्य नहीं है। कृपा कर के इसे जीवित कर दें।”
महात्मा ने बालक के मृतदेह की ओर देखा। बालक की शांत मुखमुद्रा और निश्चेत देह देख कर उनका भी हृदय द्रवित हो उठा। जीवन और मृत्यु का खेल निराला होता है। इसमें पासा पलटते देर नही लगती। पलक झपकते ही हंसता मुस्कुराता शरीर चेतनहीन हो जाता है।
महात्मा ने गौतमी की तरफ करूणामय दृष्टि से देखा, वह जानते थे कि इस स्थिति में उसे जीवन और मृत्यु का दर्शन समझाना दुष्कर कार्य था। उन्होंने कहा, “उठो गौतमी, तुम्हारे पुत्र को पुनर्जीवित करना चाहती हो ना?”
गौतमी की आँखों में आशा का संचार हुआ, “हाँ महात्मन् हाँ, मेरे पुत्र को जीवित करने के लिए आप जो कहेंगे वह मैं करने के लिए तैयार हूँ।”
बुद्ध बोले, “तो फिर जाओ, और एक मुट्ठी चावल ले कर आओ किन्तु…” एक क्षण के लिए महात्मा रूके, और फिर अधूरा वाक्य पूरा करते हुए बोले, “वह एक मुट्ठी चावल उस व्यक्ति के घर से लाना जिसके परिवार में आज तक किसी की मृत्यु ना हुई हो!”
गौतमी की आँखें अपने जीवित पुत्र को देखने की लालसा में चमक उठीं। लेकिन ऐसा कौन सा परिवार होगा जिसने अपने स्वजनों के मृत्यु का दंश ना झेला हो… दर-दर भटकने के बाद भी उसे ऐसा एक भी परिवार नहीं मिला जिसपर मृत्यु की छाया ना पड़ी हो।
जब वह महात्मा के पास वापस लौटी तब उसके आँसू सूख चुके थे, उसे पता चल चुका था कि मृत्यु अटल है और जीवन बुदबुदे की भाँति नश्वर!
महात्मा बुद्ध ने गौतमी को वह लक्ष्य दिया था जो कभी पूरा नहीं हो सकता था। उन्होंने गौतमी को बिना कोई उपदेश दिये उसके प्रश्नों का उत्तर दे दिया था।
गौतमी ने अपने हाथों से महात्मा के चरणों में रखा अपने पुत्र का मृतदेह उठाया और महात्मा को दोनों हाथों से प्रणाम करते हुए वहाँ से विदा ली।