मंदिर में घंट क्यों बांधा जाता है? मंदिर में प्रसाद क्यों बांटा जाता है? मंदिर में अगरबत्ती और पुष्प का महत्व क्या है? यदि ईश्वर निराकार है तो मंदिर में देव प्रतिमा क्यों? पाश्चात्य देशों से आयातित धर्मों में तो घंट, पुष्प, धूप, दिप नहीं होते फिर हिंदू मंदिरों में ही इनका इतना महत्व क्यों है? कितने प्रश्न हैं और हर प्रश्न के उत्तर में कितने गूढ़ार्थ छिपे हुए हैं इसका अचरज आपको तब होता है जब आप इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हैं।
चलिए इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिये कुछ हिंदू दर्शन को खंगालते हैं और कुछ परंपराओं का अन्वेषण करते हैं। हाँ वही परंपराएं जिन्हें woke होने के नाम पर रूढ़िवादी और दक़ियानूसी कहा जाता है।
आप एक दृश्य की कल्पना कीजिए…
जब आप घर से निकलते हैं, आपका मन तनावग्रस्त है, बच्चों की फीस भरनी है, माता पिता की महंगी दवाईयां और पत्नी के शौक पूरे करने हेतु धन की आवश्यकता है लेकिन यह धन कमाने के लिए आपको दफ़्तर जाना होगा। किन्तु ऑफ़िस में अलग ही पंगे चल रहे हैं, आपके सहकर्मी आपके प्रतिद्वंद्वी बने बैठे हैं। कल जो रिपोर्ट सबमिट करनी थी वह अभी भी पेंडिंग है। ऑफ़िस पहुंचते ही बॉस आपको तलब करने वाला है।
ऑफ़िस जाते समय सड़क पर अलग ही झमेला चल रहा है। ट्राफ़िक जाम है और सड़क पर चलने वाली मोटरगाड़ियों के शोरशराबे, डीज़ल और गंदगी की दुर्गंध आपको गुस्सा दिला रही है। इन सब बाधाओं को पीछे छोड़ते हुए जब आप मंदिर में प्रवेश करते हैं तो सबसे पहले मुख्य द्वार पर बंधे धातु के घंट का नाद करते हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि घंट के ध्वनि से नकारात्मक प्रभाव और बुरी शक्तियों के प्रभाव कम हो जाते हैं, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। एक हास्यास्पद तर्क यह भी दिया जाता है कि जैसे हम किसी के घर में प्रवेश से पहले डोरबेल बजाते हैं वैसे ही भगवान के मंदिर में घंट बजाते हैं। लेकिन यह भी उपयुक्त कारण नहीं है। भगवान के द्वार तो भक्तों के लिए हमेशा खुले ही रहते हैं, वह त्रिकालदर्शी हैं उन्हें डोरबेल की आवश्यकता ही नहीं।
घंट बजा कर जब आप मंदिर के नृत्य मंडप में प्रवेश करते हैं तब आपको धूप की सुगंध महसूस होती है। थोड़ा सा आगे बढ़ते ही आप गर्भगृह की चौखट लांघते हैं। यह चौखट इतनी बड़ी और ऊंची बनाइ गई है कि आपको उसपर अपने पैर रखने ही पड़ते हैं। अंदर प्रवेश करते ही आपको देव प्रतिमा के दर्शन होते हैं जिसपर चंदन इत्यादि सुगंधित द्रव्यों का लेप किया गया है। देव प्रतिमा को रंगबिरंगे वस्त्र और आभूषणों से सजाया गया है। यह कितना सुंदर और आह्लादित करने वाला दृश्य है।
देव प्रतिमा के सामने दीपक प्रज्वलित किया गया है और प्रतिमा पर भांति-भांति के पुष्पों का शृंगार किया गया है। आप हाथ जोड़कर भगवान की छवि को प्रणाम करते हैं और सामने खड़े पंडित जी आपके हाथ में प्रसाद रख देते हैं। प्रसाद में या तो कोई रसभरे फल होते हैं या फिर कोई मन लुभावन मिष्टान्न होते हैं। आप प्रसाद ग्रहण करते हैं और आँखें बंद कर फिर से एक बार हाथ जोड़ते हैं।
क्या आपने कभी अवलोकन किया है कि जब आप मंदिर में प्रवेश करते हैं तब वहाँ क्या प्रवृत्तियाँ चल रही होती हैं और इनका आप पर क्या असर पड़ता है? अब तक आपने शायद इनका अनुभव नहीं किया होगा लेकिन अब जो आप पढ़ने जा रहे हैं उसके बाद आप इसे अनुभव अवश्य ही कर पाएंगे।
हिंदू धर्म में छह दर्शनों का विस्तृत वर्णन किया गया है जिसमें से एक न्याय दर्शन है और न्याय दर्शन में इंद्रियों के विषय में लिखा गया है। न्याय दर्शन के अनुसार इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं, बहिरिंद्रिय तथा अंतरिंद्रिय!
बहिरिंद्रिय के घ्राण (गंध), रसना (स्वाद), चक्षु (दृष्टि), त्वक् (स्पर्श) तथा श्रोत्र (सुनना) पाँच प्रकार हैं और अंतरिंद्रिय का केवल एक ही प्रकार है, मन।
मन इन सभी इंद्रियों को चलाता है और इसीलिए जिसका मन पर नियंत्रण नहीं होता वह स्वाद, गंध, स्पर्श जैसी कामनाओं का त्याग नहीं कर पाता। इसके बिल्कुल विपरीत यह पाँच इंद्रियाँ मिल कर मन को भ्रमित करती हैं और इंद्रियों का यह दुष्चक्र चलता रहता है।
जो मनुष्य ईश्वर में ध्यान लगाना चाहता है उसके लिए इंद्रियों को नियंत्रण में करना अति आवश्यक है। किन्तु यही तो सबसे मुश्किल कार्य है… मधुमेह से पीड़ित व्यक्ति आइसक्रीम का मोह नहीं त्याग सकता। फिल्में देखने का आदि हो चुका मनुष्य किसी भी परिस्थिति में फिल्म देखता ही है। इसी प्रकार से इंद्रियों के पाश में जकड़ा मनुष्य स्वास्थ्य, वैभव और मनोस्थिति से कमजोर होता जाता है और अंत में मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
चलिए अब फिर से मंदिर प्रवेश के प्रसंग को दोहराते हैं…
ट्राफ़िक और कोलाहल से परेशान श्रोत्र (कान) घंट बजाते ही शांति का अनुभव करते हैं। सड़क की गंदगी और डीज़ल की दुर्गंध से त्रस्त घ्राणेंद्रिय सुगंधित अगरबत्ती से प्रफुल्लित अनुभव करती है। मंदिर की चंद्रशिला (द्वाराक्ष) पर कदम रखते ही एक शीतलता का अहसास होता है और स्पर्शेंद्रिय की थकान दूर हो जाती है।
यदि आपने सूक्ष्म अवलोकन किया है तो आप जानते होंगे कि प्राचीन मंदिरों में द्वाराक्ष (चौखट) विशिष्ट पाषाण से निर्मित किया जाता था जिसे स्पर्श करने पर शीतलता का अनुभव होता है।
देव प्रतिमा का दर्शन करते ही आँखें तृप्ति का अनुभव करती हैं और जैसे ही पंडित जी द्वारा दिया गया प्रसाद आप मुँह में रखते हैं आपकी स्वादेंद्रिय संतुष्ट हो जाती है। पाँचों बाहरी इंद्रियाँ नियंत्रण में आते ही आपका मन अपनेआप ईश्वर के साथ एकाकार होने लगता है। अब आँखें बंद होने के बावजूद अब आप ईश्वर को देख पा रहे हैं। सड़क का ट्राफ़िक, दुर्गंध, परिवार और व्यवसाय की परेशानियां सब भुला के आप स्वयं को ईश्वर से एकाकार कर लेते हैं।
बस इन कुछ क्षणों का ध्यान आपको पूरे दिन के संघर्ष के लिए बल प्रदान करता है। नियमित रूप से मंदिर जाने वाले लोगों को डिप्रेशन जैसे मनोरोग नहीं होते। यह लोग हमेशा आनंद में रहते हैं और मार्ग में आने वाली हर बाधा का डटकर सामना करने का सामर्थ्य रखते हैं।
वर्षों तक ध्यान योग का अभ्यास करने वाले योगियों की स्थिति आपको कुछ ही क्षणों में प्राप्त हो जाती है और इसका कारण मंदिर का यह आध्यात्मिक वातावरण ही है।
ईश्वर निराकार है, वह स्वार्थ, लोभ, मोह से परे है.. उसे आपसे धूप, दीपक, वस्त्र, पुष्प और नैवेद्य की कोई अपेक्षा नहीं, यह सब तो आपके लिए है। पंचोपचार पूजा तथा षोडशोपचार पूजा में उपयोग की जाने वाली धूप, दिप, गंध, पुष्प और नैवेद्य जैसी सामग्री का औचित्य क्या है यह प्रश्न उठे तो इसका उत्तर आप अपनी इंद्रियों से पूछियेगा।
अंत में आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ, प्रामाणिकता से उत्तर दीजियेगा… क्या आप नियमित मंदिर जाते हैं?
बहुत उत्तम
प्रत्येक शनिवार या सोमवार को अवश्य जाते है।
बहुत उत्तम लेख और बहुत सटीक प्रश्न