राजस्थान के प्राचीन मंदिरों की आंचलिक यात्रा में आज हम बात करेंगे मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर पाली जिले में स्थित ‘रणकपुर जैन मंदिरों’ की।
रणकपुर, राजस्थान के पाली जिले में स्थित है। जहांँ एक अत्यंत धार्मिक और आध्यात्मिक दुनिया है। यहांँ के जैन मंदिर अपनी अद्भुत सुंदरता और शांतिपूर्ण माहौल के लिए जाने जाते हैं।
रणकपुर के मंदिर जैन धर्म के चौथे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी को समर्पित हैं। इन मंदिरों की आंँचलिक यात्रा का अनुभव ठीक वैसा ही है जैसे किसी श्रद्धालु ने गंगा मैया के शीतल जल में डुबकी लगा ली हो।
यह स्थान बेहद खूबसूरती से तराशे गए प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। उदयपुर से 96 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर भारत के जैन मंदिरों में संभवतः सबसे भव्य तथा विशाल है ।
जोधपुर और उदयपुर के बीच में अरावली पर्वत की घाटियों में स्थित होने से यह जगह बहुत ही मनोरम प्रतीत होती है। तेज ढलान, पहाड़ी रास्ते, मघई नदी के सहारे चलते सर्पीले मार्ग इस यात्रा को और भी खूबसूरत बना देते है। जब आप घाटियों से गुजरते हुए तराई में पहुंँचते है तो मानो धरती के स्वर्ग सा अहसास होता है।
रणकपुर का निर्माण चार श्रद्धालुओं आचार्य श्यामसुंदर जी, धरनशाह, महाराणा कुंभा तथा देपा ने कराया था। कहा जाता है कि धरणशाह को एक रात सपने में नलिनीगुल्मा विमान के दर्शन हुए और इसी के तर्ज पर उन्होंने मंदिर बनवाने का निर्णय लिया, कई वास्तुकारों को बुलाया गया लेकिन किसी को भी योजना पसंद नहीं आई।
आखिरकार मुन्दारा से आए एक साधारण से वस्तुकार दीपक की योजना से वह संतुष्ट हो गए। मंदिर के निर्माण के लिए धरनशाह को महाराणा कुंभा ने जमीन दान में दी और उन्होंने मंदिर के समीप एक नगर बसाने का सुझाव दिया।
महाराणा कुम्भा के नाम पर इसे रणपुर कहा गया जो आगे चलकर रणकपुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। रणकपुर में मंदिर की प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1496 में हुई।
यहांँ स्थित प्रमुख मंदिर को रणकपुर का चौमुखा मंदिर कहते हैं। इस मंदिर के चारों ओर द्वार है। मंदिर में प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति स्थापित है। इस मंदिर के अलावा दो और मंदिर है जिनमें भगवान पार्श्वनाथ और भगवान नेमीनाथ जी की प्रतिमाएंँ विराजमान है।
कहते हैं कि मंदिर परिसर में 76 छोटे गुंबदनुमा पवित्र स्थान, 4 बड़े कक्ष और 4 बड़े पूजा स्थल है। मान्यता है कि यह मनुष्य को जीवन मृत्यु की 84 योनियों से मुक्ति पाने के लिए प्रेरित करते हैं।
मंदिर की विशेषता 1444 स्तम्भ है। इन स्तंभों पर अति सुंदर नक्काशी की गई है और छत का स्थापत्य भी आश्चर्यचकित कर देने वाला है। मंदिर में किसी संकट के अनुमान के तौर पर तहकानों का निर्माण किया गया है ताकि संकट के समय में पवित्र मूर्तियों को सुरक्षित रखा जा सके।
सभा मंडप, द्वार, स्तंभ, छत आदि पर तक्षण कला का बारीक काम हैं। इनकी मूर्तियों के अध्ययन से तत्कालीन वेशभूषा, रहन-सहन, वाद्य यंत्रों एवं संस्कृति का ज्ञान होता है।
प्रमुख मंदिर में जैन तीर्थों का भी चित्रण किया गया है। जिसमें सम्मेद शिखर, मेरु पर्वत, अष्टपद, नंदीश्वर दीप आदि मुख्य हैं। संपूर्ण मंदिर में सोनाणा सेदाड़ी और मकराना के पत्थर को प्रयोग में लाया गया है।
मंदिर की मुख्य देहरी में भगवान नेमिनाथ की विशाल भव्य मूर्ति स्थापित है। अन्य मूर्तियों में सहस्त्रकूट, भैरव, हरिहर, सहस्त्रफणा और देपा की मूर्तियाँ उल्लेखनीय है।
यहांँ पर एक 47 पंक्तियों का लेख चौमुखा मंदिर के एक स्तंभ में लगे हुए पत्थर पर उत्कीर्ण है। प्रस्तुत लेख में बप्पा रावल , अल्लट से लेकर महाराणा कुंभा तक के बहुत से शासकों का वर्णन है।
इसमें महाराणा कुंभा की विजयों तथा उनके युद्ध अभियानों का विस्तृत वर्णन दिया गया है। फोर्ग्युसन ने इस अद्भुत प्रासाद का वंदन करते हुए लिखा है कि ऐसा जटिल एवम् कलापूर्ण मंदिर मैने आज तक नही देखा।
पाश्चात्य इतिहासकार कर्नल टॉड अपनी पुस्तक “एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान” में भी इस मंदिर की प्रशंसा की है।
यह मंदिर जितना जमीन के ऊपर है उतना ही जमीन के नीचे भी बनाया गया है। मंदिर की रचना इस प्रकार की गई है कि आदिनाथ भगवान के दर्शन चारों दिशाओं से कर सकते हैं।
19वी और 20वी शताब्दी में मंदिर का जीर्णोधार करवाया गया था। आज भी यह मंदिर अपनी अलौकिक सुंदरता को धारण किए राजस्थान की इस पावन धरा पर भगवान पार्श्वनाथ के जीवन और उनकी तपस्या की मूर्ति बनकर खड़ा है ।
राजस्थान के मंदिरों की आंचलिक यात्रा में आज इतना ही जल्दी ही अगली कड़ी में मुलाकात होगी।