श्री अजय चंदेल मध्यप्रदेश के सागर से निकले हिन्दी साहित्य के वह रत्न हैं जिनके शब्दाभूषणों से अनेक साहित्य कृति रूपी नायिकाएं अलंकृत हुई हैं। हरिशंकर परसाई , शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल जी की परंपरा के इस युवा लेखक की कृति “सबसे सस्ते दिन” जब तक हाथ में ना आई थी तब तक हम इसे व्यंग्य रचना ही मान रहे थे किन्तु प्रस्तावना पढ़ते ही अनुभूत हुआ की यह अजय चंदेल जी की व्यंग्य से इतर एक कहानी संग्रह है। परंतु लेखक ने अपनी व्यंग्यकार वाली प्रतिभा का परिचय यहां भी दिया है, उनके वाक्य सरल हैं पर बातें गंभीर हैं।
गूढ़ और तर्कपूर्ण प्रतीकों के माध्यम से अनेक कथाएं “सबसे सस्ते दिन” में कही गई हैं । संस्कृत को माँ के रूप में और हिंदी को पुत्री के रूप में निरूपित कर उनके वार्तालाप से कथाओं का ताना-बाना बुना गया है। इसी एक वार्तालाप में अनेक वार्तालाप और कथाएं गुथी हुई हैं । जिनमें शिव- नारायण संवाद , सीता-त्रिजटा संवाद , हनुमान-जामवंत संवाद आदि हैं। संपूर्ण पुस्तक में एक ही कथा है, कथाओं से उप कथाएं निकलती हैं और एक कथावृक्ष जैसा बन गया है।
जब माँ संस्कृत कथा कहती है तो भाषाशैली कुछ संस्कृतनिष्ठ हो जाती है किंतु जब पुस्तक का पूर्वार्ध समाप्त होता है और पुत्री हिंदी अपनी कहानी कहने लगती है तो भाषा आंचलिक और बोलचाल वाली हो जाती है । इसमें भी जहाँ गाँव की कथा है वहां भाषा आंचलिक है और जब शहरों की कथाएं शुरू होती हैं तो भाषा बोलचाल वाली और अंग्रेजी से मिश्र हो जाती है । एक ही पुस्तक में भाषाशैली के साथ इतना प्रयोग कम ही देखने को मिलता है । हाँ मगर इतना अवश्य कहना होगा कि अपनी बात को प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत करने के लिए लेखक ने किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया है।
जहाँ पुस्तक के पूर्वार्ध में पात्र तथा घटनाएं पुराणों और इतिहास से ली गई हैं , मध्य में ग्रामीण परिवेश उनके कष्ट, समस्याएं उनके आर्थिक, सामाजिक व पारिवारिक परिवर्तनों को बहुत ही यथार्थ रूप से प्रस्तुत किया गया है, वहीं पुस्तक के उत्तरार्ध में पात्र व घटनाएं समसामयिक हैं। आम दफ्तरों, इंजीनियरों , नौकरीपेशा वर्ग , प्रेमियों , गृहस्थ, गृहिणियों आदि पात्रों के द्वारा रोजमर्रा का अंतर्द्वंद बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है। पुस्तक की सबसे अच्छी बात यह है कि गाँव और शहरों दोनों को ही यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है।
गाँव और शहर अपने फिल्मी स्वरूप को छोड़कर अपने वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत हुए हैं। अर्थात ग्रामीण भोले-भाले नहीं हैं गांव में सड़के भी हैं , आर्थिक रूप से समृद्धि भी है और तंगाई भी, वहीं शहरी उतने चतुर नहीं और उतने समृद्ध भी नहीं किंतु सभी का जीवन अपनी ही परेशानियों के मकड़जाल में उलझा हुआ है । अंत में कथा शिक्षा व्यवस्था जैसे गंभीर प्रश्न पर आकर खड़ी होती है और अपने पीछे एक गहरी मौन कथा छोड़ते हुए एक दुखद घटना के साथ समाप्त हो जाती है।
पुस्तक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उसने पौराणिक काल से आधुनिक काल तक सारे समय को छुआ है । वहीं ग्रामीण से लेकर शहरी मेट्रोज तक पूरे भारत की भौगोलिकी का सफर तय किया है। कालखंड की इतनी लंबाई और भारतीय पारिवेशिक विविधताओं की इतनी चौड़ाई को तय कर पाना बहुत ही दुष्कर कार्य था जिसे अजय जी ने बखूबी कर दिखाया है। कहानियों का गठन इतना सुगढ़ है कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि यदि आप एक बार पुस्तक उठा लें तो उसे पूर्ण करने के उपरांत ही रखें । हमारे लिए तो “सबसे सस्ते दिन” पढ़ने के ये दिन ही वस्तुतः सबसे बहुमूल्य दिन थे।
अजय चंदेल जी को , हम सब की ओर से अनेक-अनेक शुभकामनाएं । जिस प्रकार पुस्तक ने इतना बड़ा कालखंड तय किया है वैसे ही इसकी कीर्ति भी कालजयी हो और जैसे इसकी कथा भारतीय भूगोल में फैली है वैसे ही इसका विक्रय भी भारत के समस्त क्षेत्रों में हो । कोरोनाकाल शीघ्र समाप्त हो और “सबसे सस्ते दिन” की उपलब्धता सब ओर हो । इसी मंगल कामना के साथ शुभम भवतु ।
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