होली मतलब रंग। रंग है तो रंगने वाला होगा ही। फिर अगर कोई आए और सीधे रंगकर चला जाए तो भला होली कैसी ? बिना चुहल और हसोड़पन के भला कहीं रंगने और रंगाने का मजा है ?
राधा कृष्ण से लेकर भूतनाथ और राघव तक सबकी होली में प्रेम है, प्रिय की प्रतीति है, सशरीर उपस्थिति का बोध है, छुअन का अनुभव है और इन सबसे अधिक हिलने मिलने का भाव है। अर्थात सब सगुण है।
फिर निर्गुण की होली कैसी होगी ? निरंग ? लेकिन निर्गुण की होली भी सगुण जितनी ही रंगीन और निर्गुणी रचने वाले भी उतने ही बड़े रंगरेज हैं। इस भौतिक संसार में जहांँ वर्ष में एक बार ही फागुन का महीना आता है और इसी एक अवसर पर फाग की धुन और रस सबको रससिक्त करता है लेकिन निर्गुण कबीर के यहांँ फागुन का महीना सदा बना रहता है।
‘गगन मँडल अरूझाई, नित फाग मची है।’ रोज ही फाग का आनंद बरस रहा है। मन में फाग का आनन्द उठ रहा है। अबीर और गुलाल की वर्षा भी रोज हो रही है। ‘इँगला पिंगला तारी देवै सुखमन गावत होरी।’ प्राण संचार में सहायक इंँगला और पिंगला नाड़ी ताली बजा बजा कर नाच रही है तो वही सुषुम्ना होरी गाकर चित्त को आनंदित कर रही है। तीनो नाड़ियों की जागृति अर्थात मुक्ति।
फगुआ नाम दियो मोहिं सतगुरू तन की तपन बुझाई। कहै ‘कबीर’ मगन भइ बिरहिनि आवागवन नसाई। गुरु कृपा से ऐसा फागुन आया है जिसने मुक्ति के कठिन मार्ग को भी उत्सव बना दिया है और इस सांसारिक आवागमन से मुक्त कर दिया है।
यह सब संभव हुआ है गुरु की महिमा से। जो है सब गुरुकृपा का प्रसाद है। गुरु गुलाल जी रंग चढ़ायो ‘भीखा’ नूर भरो री। गुरु ने ऐसे रंग में रंग दिया है जिसका नूर चित्त से झलक रहा है। गुरु का रंग उसके ज्ञान का प्रकाश है जिसके बाद किसी भी तरह की कलुषता बच ही नही सकती है।
निर्गुण का रंग गुरु का ज्ञान है। निर्गुण का फाग उस घट घट वासी का गुणगान है। नाड़ी जागृति ही अनहद स्वर है। निर्गुण में उस परब्रह्म के रंग में मिलकर एकाकार होना ही अंतिम लक्ष्य है।
कबीर दास जी लिखते है –
गगन मँडल अरूझाई, नित फाग मची है।
ज्ञान गुलाल अबीर अरगजा सखियाँ लै लै धाई
उमँगि उमँगि रँग डारि पिया पर फगुआ देहु भलाई
गगन मँडल बिच होरी मची है कोइ गुरू गम तें लखि पाई
सबद डोर जहँ अगर ढरतु है सोभा बरनि न जा
कहै ‘कबीर’ मगन भइ बिरहिनि आवागवन नसाई।