न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
यही वर दे मुझे माता रहूँ, भारत पे दीवाना
लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढ़ूँ हिन्दी लिखूँ हिन्दी
चलन हिन्दी चलूँ हिन्दी पहनना ओढ़ना खाना
आज है इंटरनेशनल हिन्दी डे ! .. अरे नहीं! आज तो अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी दिवस न हुआ..क्षमा करें इतना डे मनाते हैं कि दिवस तो भूल ही गए.. खैर! हिन्दी! जिस भाषा में मैं लिख रहा हूँ और आप सब जिस भाषा हिन्दी में समझेंगे.. आज उसी का दिन है!
मलिक मुहम्मद जायसी और चंदबरदाई से भी बहुत पहले आरम्भ होकर सूर, तुलसी, कबीर, से होते हुए मुंशी प्रेमचंद, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, धर्मवीर भारती, भारतेंदु हरिश्चंद्रादि कवियों और लेखकों, के आत्मसम्मान, सामाजिक चेतना, ओज और प्रेम को स्वयं में समाए, हरिवंश राय बच्चन, गोपालदास नीरज एवं इनके ही जैसे तमाम ज्ञात और अज्ञात फक़ीरों की फक़ीरी से सुसम्पन्न भारत की यह भाषा आज दुनिया भर में सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी भाषा बन चुकी है! जिसका सीधा श्रेय इन महारथियों को जाता है जिन्होंने हिन्दी रूपी रथ को अपनी क़लम से वह वेग, वह ऊर्जा प्रदान की जिससे आज यह ऊर्ध्व तक पहुँची है!
यह हिन्दी का माहात्म्य ही है जिसने एक कामी एवं मूर्ख पुरुष रामबोला को भी गोस्वामी तुलसीदास बना दिया जिसने आज से कई वर्षों पूर्व ही “जुग सहस्र जोजन पर भानू” की गणना कर दी थी!
हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसके भजन हमको दुनिया के हर कोने में चौबीसों घण्टे सुनाई दे सकते हैं! चाहें हमारा पड़ोसी नेपाल हो या सुदूर इंग्लैंड का ओवल हम दोनों ही स्थान पर “ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनिया” की ध्वनि गूँजायमान होती सुन सकते हैं! हिन्दी के प्रभाव को महसूस कर सकते हैं!
“मेरे अमेरिकी बहनों और भाइयों” पर जो तालियाँ, जो एहसास, जो स्नेह, शिकागो में स्वामी विवेकानंद के मुख से हिन्दी भाषा ने पैदा किया वो हर ‘लेडिज ऐंड जेंटलमेन’ और ‘बोन्जोर’ के स्वर से बहुत ऊपर था, जो सदैव हमें माँ हिन्दी के चमत्कार को स्मरण कराता रहेगा!
हिन्दी! जब हम निराशा के गर्त में गिरने को होते हैं, वहाँ से खींच लाती है और मार्ग दिखाते हुए कहती है~
“जिसने मरना सीख लिया उसे जीने का अधिकार मिला
जो घर से बाहर निकला है! उसको ही संसार मिला!”
हिन्दी निरंतर चलते रहने का संदेश देती है और सरलतया ही हमें ऊर्जावान बना देती है~
“चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!”
पर रुकिये..किसी भी रास्ते पर न चलें, पहले जाँचें, परखें तब चलें इसका भी संदेश देती है~
“पूर्व चलने के बटोही!
बाट की पहचान कर ले!”
आज़ादी के संघर्ष के साथ जैसे जैसे हमारा तिरंगा आसमान छू रहा था उसके साथ ही एक प्रतिध्वनि, एक अनहद नाद, एक स्वर गूँज रहा था,एक मुहिम चल रही थी प्यासों को तृप्ति के तट पर पहुँचाने की…
“राह पकड़ तू एक चला चल
पा जाएगा मधुशाला..!”
हज़ारों वर्षों की प्रतीक्षा और मुट्ठी की फिसलती रेत सा उन्मुक्तता का बोध- नींद खुली तो कोई तीखी धूप में झरे हुए हरसिंगार के नीचे एक गुज़रे हुए कारवाँ को पुकारता चला गया..
“स्वप्न झरे फ़ूल से
मीत चुभे शूल से”
कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है! किंतु हिन्दी साहित्य समाज का वह दर्पण है जो न मात्र उसके विकार बताता है बल्कि समय-समय पर वाराणसी के एक छोटे से गाँव लमही में धनपत राय जैसों को उत्पन्न करता है जो आगे चलकर कथा-सम्राट, महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद जी बनते हैं! जो फ़िरंगी हुकूमत को अपनी क़लम से हिलाने के साथ-साथ पंच परमेश्वर जैसी रचनाओं से समाज के खो-से गए आदर्शों को भी जागृत करते हैं!
हिन्दी का ही प्रताप है जिसने एक घोड़े को भी ओजस्वी ‘चेतक’ बना दिया और महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई को सदा-सदा के लिए इतिहास में अमर कर दिया!
“तेरा स्मारक तू ही होगी
तू खुद अमिट निशानी थी!”
तत्पश्चात् हिन्दी भाषा ने लड़खड़ाती सियासत को भी संभाला!
“रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ
जाने दे उसको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम-वीर!”
साथ ही राष्ट्रीय अस्मिता को भी बचाए रक्खा~
“अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा
साखी हैं जिसकी महिमा के! सूर्य चंद्र भूगोल खगोल
क़लम आज उनकी जय बोल!”
इन प्रयासों के फलस्वरूप हम चांद-सितारों तक गए! किंतु अकसर मनुष्य इस क्रम में ज़मीन को भूल जाता है और वह अपना आधार गँवा बैठता है! तब अदम गोंडवी जैसे माटी की बू-बास वाले कवि, हिन्दी के माध्यम से आसमान में भटकने वालों को ज़मीन पर ले आते हैं~
“चांद है ज़ेरे-क़दम सूरज खिलौना हो गया
हाँ! मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया!”
फ़िर ज़मीन पर लौट कर भी क्रांति की आवाज़ हिन्दी ही बनती है और वैद्यनाथ मिश्र को नागार्जुन बनने का साहस प्रदान करती है! जो चने खाकर भी अहंकारी सत्ता से अपनी क़लम के दम पर मोर्चा सम्भाले रहते हैं~
इंदुजी! इंदु जी! क्या हुआ आपको
सत्ता पाते ही भूल गईं बाप को..
और ऐसे ही निरंतर शोषितों, वंचितों का स्वर बनकर उभरती है हमारी हिन्दी जो समाज को देश को देश होने का मतलब समझाती है!
सूर, कबीर, निराला, पंत जैसे साधकों के साथ-साथ रहीम और रसखान जैसे इस्लाम धर्म में विश्वास रखने वालों के माध्यम से सदा धार्मिक बन्धनों का खंडन करने का साहस प्रदान करने वाली और धार्मिक पूजा-पाठ के जीवंत स्रोतों यथा- रामचरितमानस जैसे ग्रन्थों से सुसज्जित है हमारी माँ हिन्दी!
हिन्दी का ही माहात्म्य है जो कहीं भी लिखने पर, बोलने पर कबीर और तुलसी जैसे फकीरों को अकबर और बाबर जैसे बादशाहों से भी ऊपर सम्मान प्रदान कराती है!
क्योंकि सदैव “उक्त पंक्तियों में कवि कबीरदास कहते हैं! सूरदास कहते हैं!” कहते हैं और “बाबर था! अकबर था!” हो जाते हैं!
अंत में..
गर्व है हमें अपनी भाषा पर..नमन है ऐसे अद्भुत व्यक्तित्वों को, हिन्दी माँ के ऐसे पुत्रों को जिनकी वजह से~
सारे जहाँ में धूम हमारी ज़बाँ की है!
(सभी उक्तांकित पंक्तियों के कवियों, कवयित्रियों को साभार के साथ)
- लेखक कक्षा 12 सेंट्रल हिंदू स्कूल (क) काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र हैं।