सनातन धर्म परंपरा में मूर्ति पूजा का विशिष्ट स्थान है और मूर्ति पूजा का सबसे महत्वपूर्ण अंग है ‘आरती’! आरती के अनेक प्रकार हैं जैसे कि मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह की आरती, भाईदूज जैसे पर्व पर व्यक्ति की आरती, वट सावित्री जैसे उत्सवों पर वृक्षों की आरती, नाग पंचमी के दिन की जाने वाली सर्पों की आरती, दशहरे जैसे पर्वों पर आयुधों और वाहनों की आरती और दैनिक रूप से घर-मंदिर में की जाने वाली आरती।
दिपक के माध्यम से की जाने वाली आरती के अलावा महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की भस्मारती जैसे विशिष्ट उदाहरण भी हैं और रथयात्रा के दौरान राजनेता द्वारा की जाने वाली आरती जैसे भी उल्लेखनीय उदाहरण हैं।
आरती हिंदू मंदिरों के प्रार्थना अनुष्ठानों में सबसे प्रमुख है। दैनिक जीवन की दुष्करताओं और यातनाओं से त्रस्त भक्त अपने भगवान के मंदिर में आरती के समय पहुँच जाते हैं।
नियमानुसार देव प्रतिमा को प्रकाशित करने वाली आरती को दक्षिणावर्ती दिशा में घुमाया जाता है। मृदंग मंजीरे तथा घंटियों जैसे विविध प्रकार के वाद्ययंत्रों के साथ भगवान की महिमा का वर्णन करने वाले स्रोत स्तुति गाये जाते हैं।
आरती के समय देवस्थान दर्शनाभिलाषी श्रद्धालुओं से भर जाता है। आरती के समय भक्त जीवन के परीक्षणों और क्लेशों को भूलकर स्वयं को भगवान के रूप में खो देता है।
बिना खिड़की वाले, गुफाओं की भांतिएक ही प्रवेश द्वार वाले पुरातन मंदिरों के गर्भगृह में नैसर्गिक प्रकाश की सीमित पहुंच थी। निश्चित रूप से गर्भगृह में अखंड दीपक जलते रहते थे लेकिन उनका प्रकाश देव प्रतिमा के दर्शन के लिए पर्याप्त नहीं था। इसीलिए दिन में तीन/पांच बार निश्चित समय पर आरती का अनुष्ठान किया जाता था।
आरती के समय गाँव/नगर के भक्त मंदिर में देव दर्शन की अभिलाषा से इकट्ठे होते और गर्भ गृह में पुजारी जी अनेक प्रकाशपुंजों से सजे पंचधातु के दिपक से भगवान के पवित्र पावन अंगों के आसपास उसे घुमाते थे। इस प्रक्रिया में देव विग्रह के कलात्मक अंगों तथा शृंगार के दर्शन भक्तों के लिए सुलभ हो जाते थे।
आमतौर पर दैनिक चर्या में मंदिरों में होने वाली आरती की संख्या तीन या पांच जैसी विषम संख्या होती है। त्रिकाल संधि का समय आरती के लिए श्रेष्ठ माना जाता है।
प्रातः काल में होने वाली आरती भक्तों के मानस में उर्जा का संचार करने का कार्य करती हैं। मंगला के नाम से विख्यात प्रातः कालीन आरती भक्तों को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित करती हैं।
वैष्णव मंदिरों में मध्याह्न के समय होने वाली आरती के पश्चात भगवान आराम करते हैं और मंदिर कुछ समय के लिए भक्तों के दर्शन हेतु उपलब्ध नहीं होता।
सायंकाल की आरती दिनभर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर के थके हारे भक्तों में नवचेतन का संचार करती हैं। दैनिक संघर्षों के बाद आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए भक्तों को फिर से तैयार करने का कार्य संध्या आरती करती है।
आरती के पूर्ण होने पर भक्त अपनी खुली हथेलियों को आग की लपटों के ऊपर से गुजारते हैं और सम्मान में अपनी उंगलियों को अपने माथे से स्पर्श कराते हैं।
यह प्रक्रिया अग्नि देवता की उन ज्वालाओं के सम्मान का प्रतीक हैं जिन्होंने भगवान के दिव्य रूप के दर्शन को भक्त के लिए सुलभ बनाया है और यह आरती में स्थानांतरित देव तत्व को अवशोषित करने का अनुभव भी है।
क्या आप नियमित रूप से मंदिरों में होने वाली आरती का लाभ लेते हैं? रिप्लाई में बताइये, क्या आप अपने इष्ट देव को धन्यवाद करते हुए अपने घर में सपरिवार आरती का अनुष्ठान करते हैं?