“प्रभास” – एक कथा संग्रह है जो कहानियों का सहारा लेते हुए इतिहास के ऐसे पन्ने पलटता है जिसके विषय में संभवतः या तो लिखा नहीं गया है अथवा लिखा गया है तो उसे पढ़ा नहीं गया और जो वर्षों से लोककथाओं के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी कही गईं हैं। संग्रह काल्पनिक चरित्रों और कहानियों के माध्यम से मुख्यतया सोमनाथ मंदिर की स्थापना और उस से जुड़े इतिहास के अलग-अलग आयामों को छूता है।
“अच्युतानन्तगोविंद” प्रभास की पहली और मेरे विचार में सबसे प्रभावशाली कहानी है। श्रीकृष्ण और श्रीराम के चरित्रों को समानांतर खींच कर उनके जीवन के गूढ़ और अनुकरणीय पक्ष को सामने लाकर रखती है यह कहानी। भगवान राम और कृष्ण भी विधि के विधान के विपरीत नहीं जा सके। विष्णु अवतार होते हुए भी उन्होंने परिस्थिति के अनुरूप चिंतारहित होकर व्यवहार किया और साथ ही कर्त्तव्यपालन करते रहे। कई बार हमारे जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है हर बुरी चीज़ हमारे साथ ही हो रही है अथवा बहुत हाथ-पॉंव मारने पर भी वह नहीं मिल रहा है जो हम चाहते हैं। लाख प्रयत्नों के बाद भी हम प्रत्यक्ष रूप से वहीं के वहीं रह जाते हैं। हम परिस्थितियों को, स्वयं को कोसते हैं।
यह कहानी संदेश देती है कि हम सीख लें भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण से जो विधाता के हाथों अपना जीवन सौंपकर अपने कर्तव्य पथ से नहीं डिगे और स्वयं पर विश्वास रखा। हमारे साथ जो भी घटनाऍं होती हैं उनका औचित्य हमें प्रत्यक्ष रूप से भले ही ज्ञात ना हो सके लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से अपनी छाप छोड़ ही जाती है। हमारा काम बस इतना है कि अपना कर्तव्य करें, स्वयं पर विश्वास रखें और कृतज्ञ बने रहें चाहे परिस्थिति जैसी भी आए। कठिन समय जीवन का अंत नहीं होता है।
कथा संग्रह की दूसरी कहानी “प्रणय निवेदन” एक प्रेमी युगल सुधाकर और सुलग्ना के जीवन के इर्दगिर्द बुनी गई है। प्रायः पुराणों में लिखी गई बातों को कहानियों अथवा मिथकों की तरह देखा जाता है। परन्तु इस कहानी में पुराणों में लिखी गई कथाओं के मिथक और वास्तविकताओं को समानांतर स्थापित करने का प्रयास किया गया है। पौराणिक कथाओं का उपयोग केवल सुनने-सुनाने के लिए नहीं अपितु उनकी गूढ़ता को समझ अपने जीवन में समाहित करने और समझ विकसित करने के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। यह कहानी हमें कई खगोलीय तथ्यों के पौराणिक आधारों से अवगत कराती है, सोमनाथ के स्थापना की पौराणिक घटनाओं का विस्तार से वर्णन करती है साथ ही अंत में सुधाकर और सुलग्ना को भी जीवन में दिशा दिखाती है।
इस संग्रह की तीसरी कहानी है “मेरे सोमनाथ”। प्रथम दृष्ट्या यह कहानी लगती है भील सुंदरी राजबाई और राजपूत योद्धा हमीर जी के प्रेम की। लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, उसमें गुंथी हुई मिलती है सोमनाथ मन्दिर के इतिहास और उसकी अद्वितीय शिल्पकला की व्याख्या जिसे ध्वस्त करने के कालांतर में अनेकों प्रयास हुए हैं। इन्हीं में से एक प्रसंग है ज़फ़र ख़ान, जो कि महमूद तुग़लक़ के शासनकाल में गुजरात का सूबेदार हुआ करता था, के द्वारा किए गए सोमनाथ विध्वंस की। यह कहानी है हमीर जी की जिन्होंने अपने प्राणों की चिंता किए बिना महादेव की रक्षा में ज़फ़र ख़ान से लोहा लिया और सद्गति प्राप्त की और राजबाई की जो वैधव्य का श्राप लेकर भी महादेव भक्त हमीर जी की अर्द्धांगिनी बनीं।
“यहॉं क्या हुआ था?” संग्रह की चौथी कहानी है। देखा जाए तो यह हजारों वर्षों के समयकाल में सोमनाथ के विध्वंस और पुनरुत्थान की कहानी मालूम पड़ती है। संक्षेप में कहा जाए तो सोमनाथ मन्दिर का इतिहास समय समय पर सिंध प्रांत के गवर्नर जुनैद, महमूद गजनवी, अलफ ख़ां (अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति), ज़फ़र ख़ान जैसे शासकों द्वारा किए गए विध्वंस और चालुक्य शासक मूलराज, प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय, भीमदेव, सिद्धराज जयसिंह आदि द्वारा किए गए पुनर्निर्माणों के चारों ओर घूमती है। परन्तु यह कहानी केवल विध्वंस और निर्माण के चक्र को ही प्रदर्शित नहीं करती अपितु विध्वंसकारी घटनाओं के दौरान सामान्य लोगों पर हुए हत्या, बलात्कार, धर्मांतरण जैसे अत्याचारों को भी संबोधित करती है।
यह कहानी हमारा ध्यान खींचती है हमारी निष्फल और अशक्त शिक्षा व्यवस्था की ओर जिसने हमें मुगलों की शौर्यगाथा सुनाना आवश्यक समझा लेकिन वह पक्ष छिपा गए जिसमें मुग़ल शासकों ने हमारी जड़ें काट फेंकने के भरपूर प्रयास किए। हमारी शिक्षा हमें आइन-ए-अकबरी से परिचित कराती है लेकिन साहित्य के उस भाग का अस्तित्व नहीं बताती जो हमें सोमनाथ मन्दिर के साथ साथ पूरे भारतवर्ष में हुए ऐसे ही पौराणिक, वैज्ञानिक रूप से संपन्न अन्य मन्दिरों और हिन्दुओं पर अप्रत्यक्ष रूप से हुए अत्याचारों से अवगत कराती है। साथ ही यह कहानी हमें भान कराती है कि आज की युवा पीढ़ी को अपने इतिहास से उद्देश्यपूर्ण रूप से अनभिज्ञ रखा गया है। सोमनाथ का इतिहास आज या कल का नहीं अपितु हजारों वर्षों का है। भारत की स्वतंत्रता के बाद भी सोमनाथ राजनीति से अछूता नहीं रहा है। “जो लोग निर्माण नहीं कर सकते वह विध्वंस में सुख ढ़ूॅंढ़ते हैं”, कहानी में लिखा गया यह वाक्य सोमनाथ के इतिहास का संक्षेपण करती है।
आजकल हमारे आसपास ऐसी मानसिकता प्रायः देखने को मिल जाती है जो आधुनिकता के नाम पर हमें अपनी जड़ों से दूर हो कर पाश्चात्य संस्कृति के अनुकरण को बढ़ावा देती है। “मंदिर क्यों बनाएं, अस्पताल क्यों नहीं?” “शिवलिंग पर दूध क्यों चढ़ाएं, गरीबों में क्यों न बॉंट दें?” जैसे प्रश्न आजकल खूब पूछे जा रहे हैं यह जानने की इच्छा रखे बिना कि वास्तव में ऐसा क्यों हो रहा है। लावण्या ऐसी ही एक आधुनिक लड़की है जिसे मन्दिर जाना, पूजा-पाठ इत्यादि करना पिछड़ी हुई सोच की निशानी लगती है। वो अपने माता-पिता से अक्सर ऐसे प्रश्न पूछा करती है लेकिन उत्तर मिलने पर तर्क-वितर्क-कुतर्क तक की स्थिति बन जाती है। ऐसी ही मानसिकता पर चोट करती है प्रभास की पॉंचवीं कहानी “शिक्षित-अशिक्षित”। यह कहानी हमें अनुभव कराती है कि आधुनिकता की दौड़ में हम आज इतना आगे बढ़ चुके हैं कि हम अपने अधिकारों की बातें तो करते हैं लेकिन कर्त्तव्यपालन का अभ्यास रह जाता है। साथ ही यह कहानी हमारा परिचय कराती है सोमनाथ के निकट ही स्थित एक दूसरे महादेव मन्दिर से जिसका इतिहास भी सोमनाथ महादेव जैसा ही भव्य रहा है। वहॉं शिवलिंग पर बने क्षैतिज निशान का पौराणिक कारण है। कालांतर में इस मन्दिर के विध्वंस के भी अनेकों प्रयास हुए हैं जो उसकी वर्तमान शिल्पकला में दिखाई दे जाता है। यह कहानी ज़ोर देती है आज की युवा पीढ़ी को शिक्षित करने पर और उन्हें मानसिक अपंगता से बचाने पर।
प्रभास की अंतिम कहानी है “वह अमावस्या की रात”। प्रथमेश ने जीवन को कब सफलता और पैसों में तोल दिया उसे अनुभव नहीं हुआ और आज वह खाली हाथ और अकेला हो गया था। समय के साथ हमारे मन में तरह तरह की दुविधाओं एवं विकृतियों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है परन्तु जो व्यक्ति अपनी कमजोरियों और शक्तियों के बीच सामंजस्य बना लेता है सही मायनों में सफल वही होता है। हम समाज द्वारा स्थापित सफलता के पैमाने को छूने के प्रयासों में इतना उलझ जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि वहॉं तक पहुॅंचने में हमारे परिवार और जीवनसंगी का सहयोग और त्याग हमारे संघर्षों से रत्ती भर भी कम नहीं होता। प्रथमेश का रास्ते में बूढ़ी अम्मा से मिलना क्या केवल संयोग था या उसकी ऑंखें खोलने के लिए महादेव का संकेत था?
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आजकल यह चलन है कि स्त्रियों के योगदान को कमतर आंका जाता है जबकि हमारे पुराण यह दर्शाते हैं कि बड़े से बड़े असुर को पराजित करने में देवियों का योगदान देवताओं से कम नहीं रहा है। अंधक को पराजित करने में महेश्वर ने माहेश्वरी, ब्रह्मा ने ब्रह्माणी, विष्णु ने वैष्णवी और भी अन्य देवताओं ने अपनी समकक्ष मातृकाओ़ का आह्वान किया था। बूढ़ी अम्मा द्वारा अंधक विजय के पूरे प्रकरण की विस्तृत व्याख्या प्रथमेश को उसकी भूल का ज्ञान कराती है और उसे सही राह दिखलाती है।
किताब की विशेषता यह है कि साधारण कहानियों की सहायता से गूढ़ बातें पाठक तक पहुॅंचाने का प्रयास सफल होता है। जहॉं इतिहास जैसे विषयों को उबाऊ और अरुचिकर माना जाता है वहीं यह कहानियां इस विषय को रुचिकर बनाकर प्रस्तुत करती हैं और अंत तक बॉंधे रखती हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में सोमनाथ और वेरावल स्थान को प्रभास क्षेत्र कहा जाता था जहॉं श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था, बलराम जी ने शेष के रूप में पाताल प्रवेश किया था और भगवान परशुराम जी ने तपस्या की थी। यहीं पर चंद्रदेव ने क्षय रोग से मुक्ति पाने के लिए महादेव की तपस्या की थी।
लेखन शैली की बात की जाए तो कथा लेखन के नियमों का शुरू से अंत तक निर्वहन किया गया है। पात्रों के नाम बहुत सुंदर हैं और बहुत सोच-समझकर रखे गए हैं ऐसा प्रतीत होता है। कथाओं में आरंभ से अंत तक चरित्रों के उत्थान के साथ ही समय-काल की अलग अलग ऐतिहासिक अनुभूति होती रहती है। लेखक बड़े ही रोचक तरीकों से इतिहास की जानकारी देते हुए पाठकों को उस समय-काल का प्रत्यक्ष अनुभव कराते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो इतिहास को रोचक बनाकर प्रस्तुत करने के प्रयासों में लेखक सफल होते हैं। किताब पाठकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ ज्ञानवर्धन भी करती है और उन्हें सोचने पर मजबूर करती है।
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