काव्य-संग्रह “समय अभी तक वहीं खड़ा है” को पढ़ना एक कवि के स्वप्नलोक की यात्रा में उसके समानांतर चलने जैसा है; एक यात्रा जो रचनाओं के मेघ में शब्द, लय, ध्वनि, छंद, बिंब, मात्रा और कल्पना के इन्द्रधनुष से परिचय कराती है। कवि श्री कल्पेश वाघ ने अपनी रचनाओं में काव्य के इन सभी घटकों का समन्वय कर अपनी कल्पनाओं को साकार रूप दिया है। 

जब यात्रा की प्रथम सीढ़ी, संग्रह की पहली कविता “नमामि नमामि” (पृष्ठ संख्या- 13) भगवती के विभिन्न रूपों को समर्पित हो तो इससे सुंदर शुभारंभ और क्या माना जाए ! 

कविता “पाखण्ड की प्रतिष्ठा”(पृष्ठ संख्या-22) में करुण रस, रौद्र रस और वीर रस का अद्भुत मिश्रण और उनका सटीक तालमेल देखने को मिलता है। तीन विभिन्न रसों को इतनी प्रवीणता से एक-दूसरे से जोड़कर लिख देना प्रशंसनीय है।

कविता “कुछ प्रिय विलगते जाते हैं” (पृष्ठ संख्या-23) अपने प्रियजनों की अनुपस्थिति की पीड़ा का मर्मस्पर्शी विवरण किया गया है। कम शब्दों में गहरे दुःख को स्थापित कर उनमें प्राण भर दिया गया हो जैसे। इसे पढ़कर लगता है कि इन शब्दों को हम सब ने जिया है जीवन के अलग-अलग पड़ावों में। 

श्रीकृष्ण के “विराटरूप दर्शन” (पृष्ठ संख्या-28)‌ कराती यह कविता उस क्षण का सद्य: वर्णन करती हुई श्रीकृष्ण के दिव्य रूप को जीवंत करती है। यह पढ़ते हुए दिनकर जी की “रश्मिरथी” का स्मरण होना आश्चर्यजनक न होगा! 

हिंदी के प्रति अपना प्रेम और आभार व्यक्त करती कविता “मैं तो कहाँ बोल पाता हूँ, मेरी हिंदी बोल रही है” (पृष्ठ संख्या-34)‌ निश्चय ही कवि का हिंदी के प्रति समर्पण दिखाती है। अपने श्रम, विद्वत्ता और काव्य ज्ञान का पूर्ण श्रेय अपनी भाषा को देना अपनी भाषा के प्रति उनका प्रेम और समर्पण दिखाता है।

कविता “युद्ध अवश्यम्भावी है” (पृष्ठ संख्या- 34) में बहुत ही महीनता से आंतरिक द्वंद्व को कम शब्दों में गूढ़ अर्थ मिलते हैं। वहीं अगर ध्यानपूर्वक विचार करें तो जान पड़ता है कि यह द्वंद हम केवल हमारे अंतर्मन में ही नहीं चल रहा बल्कि हमारे आस-पास की परिस्थितियाँ भी हमें अक्सर ऐसी ही असमंजस की स्थिति में डाल देती हैं। 

स्वयं को जानने का प्रयास करती हुई कविताएँ – “शुभ संकल्प” और “कर्मण्यता” – कई बिंदुओं पर सोचने को विवश करती हैं। “शुभ संकल्प” (पृष्ठ संख्या-35) में कवि अपनी ‘निराशा और क्षोभ’ में भी स्वयं को एक ‘शुभ संकल्प’ होने का ढाढस बंधाते हैं। वहीं “कर्मण्यता” (पृष्ठ संख्या-37) में कवि अपनी कमियाँ, दुविधाएँ और दुखों में होते हुए भी अपने कर्तव्य, संकल्प और विधा पर विश्वास करते हैं। 

“मेरी कविता स्वयं प्राण है” (पृष्ठ संख्या-36) में कवि एक कविता को केवल ‘प्राणोत्सर्ग का रुदन’ नहीं, वरन ‘पुनर्निर्माण का प्रमाण’ मानते हैं। एक कविता कवि के लिए उसके ‘जीवित होने का अभिमान’ होती है। 

 “हम अपना फोन हैं”(पृष्ठ संख्या-39), “उन्हें दुःख पढ़ना है”(पृष्ठ संख्या-44) आदि कविताएँ आजकल के जीवन में सोशल मीडिया का हमारी भावनाओं पर हो रहा प्रभाव बताती हैं; वहीं “तप की आँच” (पृष्ठ संख्या-41) अंग्रेजी के मुहावरे- ‘Jack of all trades and master of none’ को बड़े ही काव्यात्मक रूप में पाठकों को बताता है‌।

“सखा श्री कृष्ण” (पृष्ठ संख्या- 43) कदाचित हर उस व्यक्ति के हृदय का भाव है जिसने श्रीकृष्ण को अपना सखा मान लिया है, जो हर क्षण हमारे विचारों में विद्यमान हैं। 

“मेरी कविता वापस कर दो” (पृष्ठ संख्या-48) उस पीड़ा को दर्शा रहा है जब कविता – साहित्य, राजनीति और मीडिया के चंगुल में फँसकर दम तोड़ देती है। निश्चित ही कविता इस दूषित वातावरण में निष्प्राण हो गई है। काश, कोई उन शब्दों का मौन तोड़ दे! कोई तो वो कविता वापस कर दे! 

कविता “मेरे शब्द तुम कहाँ हो?”( पृष्ठ संख्या -50) भी हमारे उन एकांतप्रिय शब्दों को ढूंढती है जो हमारी व्यस्तताओं और हमारे उत्तरदायित्वों के बीच कहीं छुप से गए हैं। 

“श्रृंगारपरक” खंड की प्रथम कविता “अश्रु का गीत होना प्रेम है” (पृष्ठ संख्या- 53) प्रेम को परिभाषित करती है। दृष्टि को दृश्य तक ले जानेवाला, शब्दों को वाणी से मिलानेवाला भाव प्रेम ही तो है। विजन को संगीत और अश्रु को गीत में परिवर्तित करने की क्षमता केवल प्रेम में ही है। 

कविता “मेरा नाम पुकारो ना” (पृष्ठ संख्या-54) इस संग्रह में से मेरी पसंदीदा कविताओं की श्रेणी में आती है। एकांतिक क्षणों में अपनी भावाभिव्यक्त करने की मधुर इच्छा सबके मन में होती है। आपके प्रिय आपके नाम को उच्चार कर उसे संगीत में बदल दें यह विचार सबके मन में हैं, अव्यक्त ही सही, किंतु अभीष्ट! 

“तुम न आये” (पृष्ठ संख्या-56) प्रेम में विरह की व्याकुलता का करुण वर्णन करती है, वहीं ” प्रेम के धागे” (पृष्ठ संख्या- 57) प्रेम में सामीप्य की मधुर अभिव्यक्ति है। 

कविता संग्रह की शीर्षक कविता, “समय अभी तक वहीं खड़ा है” (पृष्ठ संख्या-58), एक क्षण और उस क्षण में मिले एक स्पर्श से उपजी भावनाओं में बांध लेती है। समय हमारा हाथ थाम हमें रोके रखता है या फिर हम ही समय की चाल रोक देते हैं ताकि उस स्पर्श के आलिंगन में हम आजीवन बंधे रह सकें। उस क्षण में प्रेम मिश्रित भय हमें पुनः मिलने से डराता भी है और साथ ही विरह की पीड़ा भी दे रहा होता है!

“तुम प्रश्नों की जटिल व्यवस्था”( पृष्ठ संख्या-64) भी मेरी मनपसंद कविताओं की श्रेणी में है। छंदबद्ध इस कविता ने प्रेम में रहकर, प्रिय के लिए किए जाने वाले प्रयासों को बड़े ही सरल और अबोध भाव में व्यक्त किया है। यह कविता ऐसे निरपराध प्रेम में निर्दोष होते हुए भी निश्छल से अपराधबोध का बहुत ही सटीक चित्रण करता है।

वहीं शिकायतों और उलाहनों में प्रेम दिखाती कविता “तुमको लिखना कभी गीत आया नहीं” (पृष्ठ संख्या- 71) में प्रेयसी उसी निश्छल भाव से सीधे-सीधे कहती है कि ‘व्यर्थ माया’ करने से अच्छा है कि तुम स्वयं को मुझपर समर्पित कर दो, तुम्हारी व्यर्थ प्रशंसा मुझे स्वीकार नहीं क्योंकि ‘तुमको लिखना कभी गीत आया नहीं’! 

श्रृंगार की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करती दो कविताएँ क्रमशः- “प्रणय निवेदन”(पृष्ठ संख्या-67) और “पिया मिलन की रात थी” (पृष्ठ संख्या-69) पर विचार देकर उन्हें शब्दबद्ध करने से अधिक उचित होगा कि पाठक गण अपनी स्मृतियों और इच्छाओं को उन कविताओं में पढ़ते हुए जिएँ। 

मुक्त रचनाओं को एक अलग खंड में स्थान देना स्वागत योग्य है। कहने को तो वो क्षणिकाएँ हैं मगर उन छोटी-छोटी कविताओं में गूढ़ निहितार्थ विचारणीय हैं। 

विभिन्न काव्य रसों का सटीक और गहन वर्णन करता यह संग्रह निश्चय ही कवि श्री कल्पेश वाघ जी के काव्यलोक का एक छोटा सा कोना मात्र है। यूँ तो ट्विटर पर कई सालों से उनकी रचनाओं को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है सो यह काव्य संग्रह विस्मित तो नहीं करता मगर इस संग्रह को देख, पढ़कर अपेक्षाएं और बढ़ गई हैं। अतः आशान्वित रहूंगी कि उनकी नित नवीन रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहें।

By तूलिका स्वाती

लेखिका अंग्रेजी साहित्य की विद्यार्थी हैं। वर्तमान में अंग्रेजी साहित्य में आदिवासियों की स्थिति से संबंधित विषय पर पीएचडी शोध कर रही हैैं।

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