आज का दिन वट आराधन हेतु समर्पित रहा। स्त्रीदल नैवेद्य एवम् फल लिए अक्षयवट की पूजन अर्चन में भक्तिभाव से संलग्न रहा। पूरे वर्ष एकाकी रह झंझावात सहने वाले वट के दिन वर्ष में एक दिन बहुरते है सो वो दिन आज का था।
कुरुक्षेत्र में महासमर से पहले सव्यसाची को उपदेश देते समय ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ कहते हुए स्वयं को वृक्षों में पीपल कहने वाले कृष्ण को जब महाप्रलय के समय अपनी शय्या चुननी होती है तो वे जिस वृक्षपात का चयन अपनी सेवा में करते है वह पत्ता वटवृक्ष का ही था।
योगेश्वर श्रीकृष्ण की बालमोहक छवियों में वटपत्र पर लेटी हुई छवि सबसे मोहक लगती है। शिशुरूपी प्रभु कि इस छवि को संस्कृत में ‘वातपत्रसयी’ कहा जाता है। वातपत्रसयी अर्थात – जो बरगद के पत्तों का स्वामी है। अगर विष्णुरूप होने से चैत्यवृक्ष की महिमा में वृद्धि हुई है तो स्कंदपुराणाकार ने भी ‘स्याद्वरूपी शिवो यतः’ कह वटवृक्ष को भगवान शिव के रूप में मान्यता प्रदान की। वटवृक्ष की लम्बी जटाओं से लेखक को शिव का ध्यान आना स्वाभाविक भी है।
यक्षराज मणिभद्र द्वारा सृजित वटवृक्ष लीलाधारी श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय है। तभी तो वह उनकी मनमोहक लीलाओं का प्रत्यक्षदर्शी बनने का सुख भी इसी के हिस्से आता है। वृंदावन में तीन वटवृक्षों का जिक्र मुख्यत: किया जाता है। वंशीवट, कृष्णवट और श्रीदामवट।
कृष्ण और राधा को सारा जगत प्रेमी के रूप में भजता हो लेकिन श्रीकृष्ण भक्ति शाखा का गौड़ीय संप्रदाय के भक्तजन यह मानते है कि वृषभानुजा और गिरधारी का विवाह हुआ था और स्वयं ब्रह्मा ने यह विवाह कराया था। जिस वृक्ष के तले यह संस्कार संपन्न हुआ वह कोई और नहीं अपितु यही वटवृक्ष था जिसे वंशीवट कहते है। सारे जगत के लिए राधा किशोरीजू है किंतु गौड़िय संप्रदाय के भक्त उन्हे श्रीमती राधा मान ही उनका वंदन करते है।
इस वृक्ष के वट से वंशीवट बनने का कारण भी मुरलीधर का इससे विशेष प्रेम ही है। गाय चराते वक्त कृष्ण इसी वृक्ष पर चढ़ वंशी में स्वर फूंँकते और गायों को पुकारते। जिससे इसका नाम ही वंशीवट पड़ गया। अपने ही घर माखन चोरी करते पकड़े जाने पर बहाना बनाते माखनचोर को बचाव में इसी वृक्ष का स्मरण आता है और वे मैया यशोदा से कहते है – चार पहर वंशीवट भटको सांँझ परे घर आयौ। मैया मोरी मैं कब माखन खायो।
श्रीदामवट कृष्ण के अनन्य भक्त श्रीदामा को प्रिय था तो वहीं कृष्णवट ने तो ईश्वर के लिए स्वयंँ के स्वरूप में परिवर्तन कर लिया वो भी सदा के लिए। कथा मिलती है कि कृष्ण माखन चुराने के बाद जब जंगल में अपने सखाओ के बीच उसका बटवारा करते तो मक्खन रखने के लिए दोने की आवश्यकता पड़ती।
वृक्षों के पत्तो से दोने बनाने में वक्त भी काफी लगता। प्रभु को कठिनता न हो इसलिए वटवृक्ष ने अपने अपने पत्तो का आकार दोने जैसा कर लिया और तब से कृष्ण वट के पत्ते दोना के आकार में ही उगते है।
अपने प्रति वट का यह समर्पण देख कृष्ण ने उसे अपना नाम दिया और वह वटवृक्ष कृष्णवट बन गया। लगभग सौ वर्ष पहले जब कृष्णवट पर शोध हुआ तो इसे कृष्ण के नाम पर वैज्ञानिक नाम ‘फ़ाइकस कृष्णीसी द कंदोल’ मिला।
वनपथ पर चलते हुए जब मर्यादा पुरुषोत्तम सुस्ताने के लिए वटवृक्ष तले ठहरते है तो उसका वर्णन करते हुए बाल्मिकी इस वटवृक्ष को ‘श्यामन्योग्राध’ कहकर संबोधित करते है। श्याम शब्द उस अंधकार के लिए प्रयोग किया गया है जिसका आभास वृक्ष की विशालता और पत्तो की सघनता के कारण होता है।
प्रलयकाल में नारायण कि शय्या बनकर तो कभी उनके बाल स्वरूप को सुलभ भोजन उपलब्ध कराने को अपने स्वरूप में परिवर्तन कर अपना समर्पण व्यक्त करने वाला शिवस्वरूप अक्षय वट इसलिए भी पूजनीय है क्योंकि यह यक्षराज द्वारा सृजित है और इस वृक्ष पर यक्षों का वास माना जाता है। यक्षपूजा संतानोत्पति एवम् आयुवर्धन में सहयोगी है और इसका फल अटल है।
रामचरित मानस की रचना के समय मानसकार के मन में विश्वास का वो अटलस्वरूप उभरा वह ‘वटवृक्ष’ ही था इसलिए उन्होंने लिखा – बटु विश्वास अचल निज धरमा। अब भला इतने विशिष्ट वृक्ष के पूजन बिना लोक का मन मान सकता है। कतई नहीं। इति।