समुपस्थ महाभारत रण में
हरि भजूँ हरी का चारण मैं
सेनासागर के मध्य कहे
अर्जुन , श्रीकृष्ण के चरण गहें
स्मृति मिली सब मोह गया
मन को अकुलाता क्षोभ गया
हे केशव बुद्धिपट खोले
प्रणिपात किया अर्जुन बोले
तुम आदि अन्त हो कहते हो
तुम सबमें व्यापक रहते हो
तुम स्वयं तत्व की परिभाषा
अब हृदय में एक ही अभिलाषा
हे कृपानाथ अब कृपा करो
वह परमरूप अब शीघ्र धरो
कण कण में हो बतलाओ ना
वह विश्वरूप दिखलाओ ना
भगवन ने स्मित मंद किया
कमलनयन को बंद किया
बोले फिर कुछ क्षणोपरांत
यह देख न जिसकाआदि अंत
किन्तु नेत्रों में तिमिर घिरा
कुछ भी न दीखता पार्थ डरा
मैं परे त्रिगुण की छाया से
तू ढंका त्रिगुण की माया से
मैं व्यापक हूँ जग में अनन्य
तेरी दृष्टि इन्द्रियजन्य
ले दिव्य चक्षु ये गह लेंगे
मेरे प्रकाश को सह लेंगे
प्रथम मनुज पर कृपा करी
तब प्रगटे महायोगेश हरी
धनंजय थर थर कांप गया
वाणी को सूंघ जो सांप गया
हिय में किंचित सा श्वास धरे
कौन्तेय कहें प्रणमामि हरे
हे अनंत मुख बाहु अनंत
हे जगव्यापक हे दिग्दिगन्त
न धरा आदि ना गगन अंत
हे विश्वम्भर हे विश्व कंत
ब्रह्मा विष्णु के परम धाम
शंकर स्थित तुम में विराम
देवो का करते परिमार्जन
जीवों का सृजन औ उत्सर्जन
एकादश तुम में रुद्र सभी
उंचास मरुत आदित्य सभी
नासा से फुंकता विष कराल
मुख से अग्नि की परम ज्वाल
कोटिक सूर्यों का चित्प्रकाश
जग को जो तपाता विकट त्रास
सर्पिल जिव्हा व तीक्ष्ण दंत
शत्रु का जिनमें दुखद अंत
दुर्योधन भीष्म व द्रोण कर्ण
दांतों में पिसते दिखे चूर्ण
हे परमाश्रय हे वृष्णिवंश
सृष्टि का तुम में अखिल अंश
हे रौद्र रूप धर भयकारी
हे विकटदेव प्रलयंकारी
अपने चरणों मे आश्रय दो
हो कौन कृपानिधि परिचय दो
गड़गड़ा गगन में घन गर्जन
वाणी से हुआ नव स्वर सर्जन
मैं काल काल हूँ काल प्रबल
मैं शत्रुंजय विकराल प्रबल
रण में ग्रस लूंगा दुष्ट सभी
इसलिए उपस्थित हुआ अभी
सबकी मृत्यु का कारक हूँ
मैं जग त्राता उद्धारक हूँ
मैंने ही सबके प्राण हरे
वो देख सभी निष्प्राण पड़े
तू धनुर्वेद पर वश ले ले
इन सबके वध का यश ले ले
गदगदित कंठ से भर भरकर
अर्जुन बोले कुछ क्षण थमकर
बस इतनी कृपा मुझ पर कर दो
मेरे मस्तक पर कर धर दो
तुम्हें सखा समझ अपराध किया
अतः पुनः पुनः प्रणिपात किया
जिव्हा मुख में अब नहीं चली
वाणी नेत्रों से बही चली
भगवन ने सौम्य वपु अपनाया
हो द्विभुज पार्थ को उत्थाया
जो भक्त मेरे चरणाश्रित हैं
वो मेरे हृदय में अवस्थित हैं
मैं स्वयं ब्रह्म परमेश्वर हूँ
पर भक्तों का सखा हूँ चाकर हूँ
मुझ विठ्ठल की जो शरण गहे
वो दिव्य रूप को सहज कहे
अर्जुन ने गांडीव थाम लिया
किंचित न फिर विश्राम लिया
अब तब प्रत्यंच उतारूँ मैं
जब तक ना कौरव तारूं मैं
हे वासुदेव हे यदुनंदन
कोटिक वंदन कोटिक वंदन
हे कृष्ण कृष्ण हे कृष्ण कृष्ण
हे कृष्ण कृष्ण हे कृष्ण कहें
हे कृष्ण कृष्ण हे कृष्ण कृष्ण
हे कृष्ण कृष्ण की शरण गहें
#fictionhindi
अद्भुत, अप्रतिम, अतिसुंदर लेखन
अति सुंदर!! दिनकर जी की याद आ गई
वाह क्या बात है फ़िक्शन भैया ✌️
हृदय प्रफुल्लित हो गया आपकी रचना पढ़कर।
अतिसुंदर ।