अयोध्या के राजकुमार मर्यादा पुरुषोत्तम राम सभी बाधाओं को पार कर अपनी पत्नी की खोज में भारत भूमि के आखरी छोर पर पहुँच चुके थे, अब महाबली दशानन की स्वर्ण नगरी लंका और श्री राम की वानरसेना के मध्य था अगाध समुद्र। मारुती और जामवंत जैसे कुछ सिद्ध योद्धाओं के आलावा कोई समुद्र लांघने में समर्थ नहीं था। अब क्या किया जाए? सीता माता को अशोक वाटिका से मुक्त कराने के लिए युद्ध अनिवार्य था। बिना लंका गए राक्षसराज को पराजित नहीं किया जा सकता था इसीलिए श्री राम ने समुद्र से अपनी लहरों को सेतुबंध का कार्य पूर्ण होने तक शांत रखने का अनुरोध किया।

श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़ कर दर्भासन पर शाष्टांग प्रणाम करते हुए समुद्र की आराधना की और सैन्य को लंका तक पहुँचने का मार्ग खाली करने का आह्वान किया इसीलिए रामेश्वरम में आज भी रामचंद्र की शयन प्रतिमा की पूजा की जाती है। समुद्र ने ना कोई प्रत्युत्तर दिया और ना ही प्रत्यक्ष रूप से राम के समक्ष प्रकट हुए। वरुण देव की यह अवहेलना राम के लिए असहनीय थी फिर भी धर्मनिष्ठ और कूटनीतिज्ञ रामचंद्र नदियों के स्वामी की तीन दिनों तक प्रतीक्षा करते रहे।

Ram and Varun By Raja Ravi Varma

तीन दिनों के पश्चात श्रीराम को क्रोध आना स्वाभाविक था। सीता के विरह से व्यथित राम के नेत्रों में क्रोधाग्नि की ज्वालाएं धधक रहीं थीं। उन्होंने अनुज लक्षमण जी से कहा “अब समुद्र के अहंकार की अति हो चुकी है, अब युद्ध ही अंतिम उपाय है। अब मैं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करूँगा और समुद्र को सूखा दूंगा और समुद्र वासी शंख, सीप, मत्स्य और मगरमच्छ जैसे सभी जीवों का अंत करूँगा।” 

राम ने समुद्र को ललकारते हुए कहा “हे अहंकारी सागर, अब मैं अपने बाणों की ज्वालाओं से तुम्हे जल विहीन कर दूंगा और मेरे सैन्य के लिए लंका का मार्ग प्रशश्त करूंगा।” प्रभु राम ने ब्रह्मास्त्र का आह्वान किया और इस महाविनाशकारी अस्त्र को धनुष पर चढ़ा कर प्रत्यंचा खींची। समस्त चराचर जगत में भय व्याप्त हो गया। स्वर्ग, पृथ्वी और आकाश में कोलाहल मच गया। पर्वत कांप गए और तेज आँधियों ने पहाड़ों के शिखरों को ध्वस्त कर दिया। डर के मरे समुद्र एक योजन पीछे चला गया। इस भीषण परिस्थिति में वरुण देव को प्रकट होना ही पड़ा। उन्होंने करबद्ध निवेदन करते हुए राम से कहा “समुद्र की सीमा में बदलाव प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसके विपरीत परिणाम हो सकते हैं।”

राम का क्रोध थोड़ा शांत हुआ और उन्होंने वरुण देव से इस समस्या का समाधान पूछा। समुद्र ने राम सेना के अग्रगण्य वास्तुविद विश्वकर्मा पुत्र नल एवं नील को सेतु निर्माण की अनुमति दी। समुद्र ने अपने मगरमच्छ जैसे हिंसक जीवों को राम के सैनिकों का भक्षण न करने का आदेश दिया।

इस तरह से एक समस्या का समाधान हुआ लेकिन एक और समस्या खड़ी हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाया गया बाण वापिस उतारा नहीं जा सकता, अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किस पर किया जाए। वरुणदेव ने इसका समाधान बताते हुए कहा कि ब्रह्मास्त्र का प्रयोग द्रुमकुल्य पर किया जा सकता है। द्रुमकुल्य दस्युओं का निवास है जो बार बार अपने पापकर्मों से समुद्र के पानी को दूषित करते रहते हैं। प्रभु राम ने लवणसमुद्र (लवण = नमक) पर बाण चला दिया, सभी दस्यु मारे गए, वनस्पति का नाश हो गया और उपजाऊ जमीन गर्मी से मरुभूमि में तब्दील हो गई। दस्युओं का अंत होने के पश्चात इस शापित भूमि को राम ने औषधियों और वनस्पतियों से पल्लवित होने का और हमेशा के लिए दूध/दही से भरपूर होने का वरदान दिया। महाभारत में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है।

भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यह मरुभूमि अरावली से पुष्कर के प्रदेश में होने के संकेत मिलते है। अरावली की पर्वत श्रृंखला औषधीय वनस्पतियों से भरपूर है। इस प्रदेश में गौपालन भी किया जाता है और मरुभूमि होते हुए भी यह प्रदेश राम कृपा से समृद्ध है। एक और रोचक बात यह भी है कि प्राचीन काल में राम ने जिस स्थान पर ब्रह्मास्त्र प्रयोग किया था उसी जगह अर्वाचीन में पोखरण के परमाणु प्रयोग भी किये गए। समस्त भारत में अपवाद स्वरुप पुष्कर में ब्रह्माजी का देवालय कहीं ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का प्रतीक तो नहीं?

हालाँकि कुछ जानकारों के मतानुसार यह द्रुमकुल्य प्रदेश कज़ाख़िस्तान के निकट होने की सम्भावना भी जताई गई है।

कथावस्तु और भौगोलिक स्थान के उपरांत यहाँ एक और पहलू का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। मर्यादापुरुषोत्तम और नित्य शांत रहने वाले राम को क्रोध क्यों आया? रामायण में स्वयंवर के पश्चात राम परशुरामजी पर क्रोधित हुए थे। वनवास में चित्रकूट निवास के समय काकासुर सीता जी की मर्यादा से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है और तब राम क्रोधित हो जाते हैं। ऐसे ही कुछ अपवाद प्रसंगों में राम का क्रोधित होना इस बात का प्रमाण है कि धर्म पालन एवं कर्तव्य निर्वहन करने में आने वाली कोई भी रूकावट सर्वथा अस्वीकार्य है। मर्यादा का अर्थ कायरता कतई नहीं होना चाहिए। अति की परिस्थितियों में क्रोध भी आवश्यक है और श्रीराम ने वही किया।

By तृषार

गंतव्यों के बारे में नहीं सोचता, चलता जाता हूँ.

Subscribe
Notify of
guest
2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Nobody
Nobody
4 years ago

❤️❤️❤️

सुनील
सुनील
Reply to  Nobody
4 years ago

शानदार प्रस्तुति

2
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x