श्री दुर्गा सप्तशती में लिखा गया है – अभक्ते नैव दातव्यं। इसका सन्दर्भ है कि यह मन्त्र स्वयंसिद्ध है, इसे अभक्त को न दें और इसे गुप्त रखें। अभक्त, आस्था न रखने वाला भी हो सकता है और अपात्र भी हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को ऐसा मन्त्र और ज्ञान मिलने पर या तो वह उसका दुरुपयोग करेगा अथवा उसके अर्थ का अनर्थ करेगा। शायद इसी कारण से पुराने समय में ज्ञान को सीमित रखा गया होगा। गुरु अपने शिष्य बहुत सोच समझ कर चुनते थे। ज्ञान किसको और कितना देना है यह गुरु निर्धारित करते थे। आरम्भ में योग्यता देखकर निर्णय लिया जाता होगा, जो समय के साथ बदलता गया। अगर हमारे पास कोई ज्ञान है, या हमारी किसी विधि अथवा आध्यात्मिक मार्ग में कोई आस्था है, तो आवश्यक नहीं किसी और की भी वैसी ही आस्था हो। आवश्यक नहीं अन्य लोग भी उस गूढ़ अर्थ या मर्म समझते हों जो हम समझते हैं। आज के समय में पुस्तकों में कथाएं छपकर सुलभ हो गईं। गुरु के बिना, पात्रों और अपात्रों ने पुस्तकों को पढ़ा, और कई सन्दर्भों के अर्थ का अनर्थ कर दिया गया। एक तो हमारे ग्रंथों में बहुत कुछ सांकेतिक भाषा में लिखा गया, हर बात के कई अर्थ निकलते हैं और सभी अर्थों पर मनन करने के पश्चात भी जो मूल अर्थ है वह बिना किसी ज्ञानी गुरु के समझना असंभव है। जो कुछ श्रुत था वह कालांतर जब लिपिबद्ध किया तो अपने मूल रूप में कितना सटीक था इसपर भी प्रश्च चिन्ह ही है। फिर मूलभाषा से अनुवाद में कितना लुप्त हुआ उसकी भी कोई सीमा नहीं है। जब लोगों ने कथाओं की व्याख्या करनी शुरू कर दी और समय के साथ व्याख्या से कथा की आत्मा ही छूटती गई। वर्तमान समय में लोग मूल ग्रन्थ देखते भी नहीं जो कुछ सुन लिया उसपर मनगढंत व्याख्या करते हैं और ऐसे में अपनी विकृत विचारधारा के हिसाब से चित्रण करते हैं। एक तो आस्था न होने के कारण उनका कोई अधिकार नहीं बनता, दूसरा ज्ञान न होने के कारण उनकी परिभाषायें भी विकृत होती हैं।
पिछले दिनों माँ काली का एक विवादित चित्र चर्चा में आया, विवादित होने का कारण वही वामपंथी (अ)रचनात्मकता, कुटिलता और कुत्सित मानसिकता है। विरोध होने पर वामपंथियों ने तरह तरह से बचाव करना शुरू कर दिया। किसी ने कहा यह उनकी अभिव्यक्ति की आजादी है। किसी ने कहा वो अपने देवताओं को ऐसे ही देखते हैं। एक बंगाल की सांसद ने तो यहाँ तक कह दिया कि उनकी आराध्य देवी को तो वो शराब और मांस खाने वाली देवी ही मानती हैं। जितने मुँह उतनी बातें। पर जो कहते हैं कि उनके लिए देवी का तो यही रूप है वो ये भूल गए वो माँ की बात कर रहे हैं। विशेषकर बंगाल के लोगों को माँ काली का ऐसा चित्रण कैसे सहन हुआ ये तो वही जाने। फिर, जब उनकी मुख्यमंत्री स्वयं जिहाद करने की बात करती हैं तो आगे कहने को कुछ नहीं बचता। निशाने पर सिर्फ फिल्म की निर्माता लीना ही आईं, किन्तु उस पोस्टर में उनकी पूरी टीम के नाम थे। जितनी दोषी लीना हैं उतनी ही बाकी टीम है।
इस विषय में लीना ने एक चित्र यह कहते हुए साझा किया कि कलाकार तो ऐसा करते ही हैं – जिसमें देवताओं का भेष धारण कर कुछ कलाकार धूम्रपान करते दिखे। इसमें एक अंतर वो भूल गयीं, वो कलाकार केवल वस्त्र धारण किये थे, किसी मंच पर नहीं थे, और संभवतः अपना कार्य कर के लौट रहे थे। भारत में अनेक त्यौहार, अनेक परम्पराएं है जिसमें लोग ईश्वर का भेष धारण करते हैं। कभी मंचों पर, कभी समारोह में, कभी किसी यात्रा में। किन्तु वे ईश्वर नहीं हो जाते। विरले ही होते हैं जो सात्विक हो पाते हैं, या ईश्वर की कृपा प्राप्त कर वो अनुभव कर पाते हैं कि वो भगवान के जिस रूप और कथा का मंचन कर रहे हैं उसका अर्थ क्या है। रामलीला के मंचन में राम और हनुमान की भूमिका जो निभाते हैं उनमें से बहुतों के जीवन पर आध्यात्मिक प्रभाव पड़ने की कथायें सुनने को मिलती हैं। अरुण गोविल , नितीश भरद्वाज अपने निभाए पात्रों के बाहर निकल ही नहीं निकल पाए। एक तो लोगों ने भी उनको वैसे ही देखा और उन्होंने भी शायद उस आध्यात्मिक शक्ति का अनुभव किया हो या उस छवि का मान रखने के लिए उन्होंने अपना आचरण ऐसा रखा हो। इसका अर्थ यह नहीं कि सभी उसी तरह से काम करते होंगे, कुछ के लिए अभिनय, अभिनय तक ही सीमित रहता होगा और मंच से उतर कर सामान्य मानव हो जाते होंगे। जिस पर किसी ने कभी कोई आपत्ति नहीं की, और फिर ऐसे कलाकार जो भी करते हों मंच का भेष धरकर सार्वजानिक रूप से तो नहीं ही करते होंगे। कुछ अपवाद सदा रहते हैं, लेकिन हिन्दू इतना असहिष्णु नहीं रहा कि थोड़ी सी बात कर आहत होकर पीछे पड़ जाए।
हमारे यहाँ विसर्जन की प्रथा है, हम गोबर-मिट्टी के गणेश बनाकर उसकी पूजा कर करते हैं, भोग लगाते हैं, आरती करते हैं, मनोकामनाएं पूर्ण करने का आशीर्वाद मांगते हैं और फिर जब समय आता है तो उनका भी विसर्जन कर देते हैं। फिर वही नवरात्र में देवी की प्रतिमा बनाकर करते हैं। यह चक्र है और हम यह समझते हैं। कोई भेष धर लेने से ईश्वर नहीं हो जाता और मंच से उतरने के बाद अगर ईश्वर की कृपा नहीं है तो उसका आचरण भी नहीं सुधर सकता। इसलिए हमें ऐसी तस्वीरें और भेष बनाकर ढोंग करने वालों को देखकर क्रोध नहीं आता बल्कि उसका उपहास कर के छोड़ देते हैं।
किन्तु जब एक आराध्य का चित्रण उसका उपहास करने या उसको अपने एजेंडा चलाने के लिए किया जायेगा तो उसका विरोध होना ही है। काली के चित्र को एक मंच के पीछे की घटना की तरह दिखाया जाता तो संभवतः कोई ध्यान नहीं देता, किन्तु उस चित्र में विकृत मानसिकता ही देवी को विवादित रूप में दिखाने की थी। निर्देशक विवाद खड़ा ही करना चाहती थी, इसलिए विवाद हुआ भी। किन्तु इसका दूसरा पक्ष यह है कि जो चित्र या चलचित्र सौ-दो सौ वामपंथियों के बीच सिमट जाता उसपर प्रतिक्रिया देकर उसे फैला दिया गया। विरोध करने के नाम पर सही, उसकी चर्चा आम लोगों तक पहुँच गई।
आज हमारा विरोध ही उन वामपंथियों की प्राणवायु है। पर सच यह है कि विरोध न किया जाता तो उनकी हिम्मत और बढ़ती, यहाँ से न कोई फतवे निकलते हैं न किसी का सर तन से जुदा करने की मांग उठती है। हम सरकार से ही कार्यवाही की मांग करते हैं और उसके लिए इतना विरोध तो करना ही पड़ता है। हिन्दू पक्ष की यह समस्या है, आज विरोध कर रहे हैं, धीरे धीरे विरोध कम होगा और अंततः इस प्रकार का चित्रण आम हो जाएगा। ऐसा कई बार हुआ है। कला के नाम पर एम एफ हुसैन ने कम उद्दंडता नहीं की थी। पर उनपर किसी ने कभी कोई ठोस प्रतिक्रिया दी ही नहीं।
एक बात जो कुछ टिप्पणियों से जो मुझे चुभी है, कि यह बात सच है कि हम स्वयं अपने आराध्यों का समुचित सम्मान नहीं कर पाते। अखबारों में देवी देवताओं के चित्र छपते रहते हैं, अंधाधुंध, उन अखबारों का क्या होता है? कोई उस अखबार में क्या लपेट रहा है उसका विरोध कर सकते हैं, लेकिन वो चित्र अखबार में छपे ही क्यों? अखबार का क्या क्या प्रयोग हमारे यहाँ होता है हम सब जानते हैं। अगर एक अखबार की एक लाख प्रतियां छपी हैं तो उन एक लाख चित्रों का सही प्रयोग होगा इसकी गारंटी कौन ले सकता है? यह प्रथा बंद करवानी होगी। बधाई संदेशों में, त्यौहारों पर, देवी देवताओं की तस्वीरें या तो छापी न जाएँ अथवा अलग पोस्टर के रूप में ही बांटी जाएँ।
न जाने कितने उत्पाद हम प्रयोग करते हैं जिनके आवरण पर देवी देवताओं के चित्र होते हैं। पटाखों पर देवी के चित्र होते हैं, अभी समय है जब दिवाली के लिए पटाखे बनाए जाएं, ऐसे निर्देश दिए जाएँ कि उनपर देवी देवताओं के चित्र अंकित न हों। गणेशोत्सव और नवरात्र में देवी की प्रतिमाओं पर भी कुछ ऐसे ही निर्देश दिए जाना चाहिए। बहुत प्रतिबन्ध के बाद भी हर वर्ष कहीं न कही से ट्रकों से मूर्तियां कूड़े की तरह फेकी जाती हैं। उनके समुचित विसर्जन की व्यवस्था की जानी चाहिए। पिछले वर्षों में जागरूकता आई है, और बहुत से स्थानों पर मिट्टी की मूर्तियों का ठीक से विसर्जन आरम्भ हुआ है किन्तु सब जगह नहीं। यह सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं हो सकती।
ऐसे त्यौहार लोगों के जुड़ने, मिलने जुलने एक साथ आराधना करने का माध्यम थे, जो छोटे छोटे गुटों में और फिर घरों में सीमित हो गए। पहले जहाँ गाँव में एक ही जगह देवी की स्थापना होती थी अब अलग अलग टोलों में अलग अलग होने लगी है। इसे वापस सामाजिक रूप से एक किया जाना चाहिए। जहाँ अधिक मूर्तियों की स्थापना होती हो वहाँ विशेष रूप से विसर्जन की ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि एक भी मूर्ती अपमानित सी किसी नदी, नहर, तालाब के तट पर पड़ी न मिले। भले ही इसके लिए शुल्क लिया जाए।
हमें स्वयं अपने आराध्यों का सम्मान करना सीखना होगा, अन्यथा जब अन्य लोग अपमान करेंगे तब किस मुँह से बचाव करेंगे। वे लोग अपने आराध्य के लिए किसी का गला काटने से भी नहीं चूकते और यहाँ हम सहिष्णुता के भ्रम में और लापरवाही में स्वयं ऐसे कृत्य कर बैठते हैं जो हमारे आराध्यों के अपमान का कारण बनता है। इसलिए जो समझते हैं उन्हें इन अभक्तों पर ध्यान न देते हुए क्या सही किया जा सकता है उसपर ध्यान देना चाहिए।
मैं पुनः कहूँगा -अभक्ते नैव दातव्यं। अभक्तों को यह कथा न सुनाई जाए कि देवी को बलि चढ़ती है, वे यही निष्कर्ष निकालेंगे कि देवी मांस का भोग स्वीकार करती हैं। बलि चढ़ती है किन्तु उसकी अपनी मान्यताएँ हैं। जैसे हमारे यहाँ मान्यता है कि देवी तो हालुआ-पूड़ी-खीर-नारियल में ही संतुष्ट होती हैं, बलि उनके वाहन के लिए होती है। बाकी अलग अलग स्थानों पर अलग अलग मान्यताएं हैं। भैरों बाबा शराब का भोग स्वीकार करते हैं, किन्तु जो शिवलिंग का अर्थ ही न जानता हो उसे क्या समझाया जाये? अभक्तों को यह समझाने का प्रयास न किया जाए कि श्रीराम मानव अवतार थे अतः वे स्वयं अपकी मर्यादाओं में बंधे थे, उन्हें यह समझाने का प्रयास न हो कि श्रीकृष्ण पूर्णावतार क्यों थे। उन्हें जो भी समझाया जाएगा वे उसका विकृत अर्थ ही निकालेंगे।
हमारी मान्यताओं और प्रथाओं का मूल अर्थ छुपाकर, गलत अर्थों में प्रस्तुत करके हमारे समाज को उनसे विमुख करने का षड्यंत्र यही अभक्त करते हैं। गजनी-तुगलक जैसे मूर्ती भंजकों के वंशज हमारे देव विग्रहों की उपेक्षा प्रस्तुत करके आस्थावान समाज में शंका के बीज बोते हैं। मूर्तियों में जिस कथा का चित्रण है उससे अलग ही परिभाषा देते हैं। कला और अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसा अर्थ प्रस्तुत करते हैं कि हमारी आस्था पर चोट की जा सके। गज़नी तो पत्थर की मूर्तियां तोड़ता था, पर ये वामपंथी हमारे मन में बेस ईश्वर के विग्रह स्वरुप का मर्दन करने का प्रयास करते हैं, दोनों अलग कैसे हैं? औरंगजेब तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन करवाता था और आज जो ये दुष्प्रचार द्वारा लोगों को धर्म से विमुख करने वाले लोग हैं वो उससे अलग कैसे हैं?
लोगों के मन में आस्था पर इतनी चोट की गई है कि वे ईश्वर शब्द लिखने से भी कतराते हैं। किन्तु कितना भी विमुख हो लें अपनी सनातन जड़ों को छोड़ नहीं पाएंगे। ईश्वर को प्रकृति कहकर से प्रार्थना करने से ईश्वर बदल नहीं जाता। भू-देवी वही रहेंगी और वही परमशक्ति परमेश्वरी ही प्रकृति हैं, वही सृष्टि हैं।
या देवी सर्वभूतेषु सृष्टि रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
अतः न गजनी सफल हुआ था, न खिलजी, न औरंगजेब और न ही वामपंथी अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगे।
बहुत सुन्दर लेख