पर्वतराज हिमालय की तलहटी में आज का सूर्योदय एक अनुपम प्रसंग ले कर आया था। मंद-मंद मुस्काते वह ऋषिवर छंदबद्ध श्लोकों का काव्यगान करते हुए जब गुहा से बाहर आए तब सूर्य किरणों ने उनके दैदीप्यमान चेहरे पर अपनी किरणों के तेज से अभिषेक किया। वन में जीवन का संचार हो रहा था। गोरैया, मैना और विविध प्रकार के पशु-पक्षी अपने मधुर गान से वातावरण में प्रकृति का संगीत भर रहे थे।
आश्रम के पास बहती पवित्र नदी के प्रवाह की ध्वनि ऋषि के काव्य को तालबद्ध कर रही थी। सतत तीन वर्षों के अथाह परिश्रम से उन्होंने इस महाकाव्य की रचना की थी। एक लाख से अधिक छंदबद्ध श्लोकों में कही गई इस महागाथा में वह सब कुछ था जो इस संसार में है और जो इस कथा में नहीं वह इस संसार में अन्यत्र कहीं हो ही नहीं सकता।
महर्षि ने इस अनुपम महाकाव्य में वेद-वेदांगों तथा उपनिषदों के गूढ़ रहस्यों का निरुपण किया और कथा प्रसंगों के माध्यम से न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया था किन्तु… किन्तु… कुछ सोचते हुए ऋषिवर के चेहरे का सौम्य हास्य पलभर में ही चिंता की रेखाओं में बदल गया।
इस महाकाव्य की रचना तो उन्होंने कर दी थी किन्तु बिना लिपिबद्ध किये इसका प्रसार करना संभव नहीं था। लक्षभर श्लोकों को हर कोई कंठस्थ नहीं कर सकता था। हर कोई इतना प्रतिभावान नहीं था। लेकिन इस कथा को जन-जन तक पहुंचाना भी आवश्यक था।
सहस्त्रों विद्यार्थी इसका अध्ययन करने के लिए आतुर थे। चारों वेदों का नवनीत लिये यह पांचवा वेद अपने आप में अद्वितीय था। इस एक लाख श्लोकों में सम्मिलित मात्र सात सौ श्लोकों में महर्षि ने ग्यारह उपनिषदों का ज्ञान संक्षिप्त कर दिया था। इसमें नीतिशास्त्र का वर्णन किया गया था और जो सर्वव्यापी परब्रह्मतत्व है, उसका भी प्रतिपादन हुआ था।
बस यह एक ही रचना आत्मसात कर लेने से अभ्यासू को न्याय, मिमांसा, योग, सांख्य, वैशेषिक और वेदांत दर्शनों का ज्ञान हो जाने वाला था… किन्तु… फिर से, बारंबार वही प्रश्न ऋषि के मन में उठता और वह निराश हो जाते…
अंततः उन्होंने अपने नेत्र बंद किए और चतुरानन परमपिता का स्मरण किया… कुछ ही क्षणों में उनके समक्ष साक्षात ब्रह्माजी उपस्थित हो गये। पराशर पुत्र ब्रह्मर्षि ने ब्रह्माजी के लिए आसन बिछाते हुए पूछा, “हे परमपिता, मैंने इस महाकाव्य की रचना तो कर दी है किन्तु अब विकट प्रश्न आ खड़ा हुआ है कि इसे अपने शिष्यों तक कैसे पहुंचाऊँ? बिना लिपिबद्ध किये इस विचार-रत्न का प्रचार-प्रसार कैसे हो?”
कृतं मयेदं भगवन् काव्यं परमपूजितम्।
ब्रह्मन् वेदरहस्यं च यच्चान्यत् स्थापितं मया।।
सांगोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया।
इतिहासपुराणाम् उन्मेषं निर्मितं च यत्।।
महाभारत, आदिपर्व,१•६१, ६२
ब्रह्माजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा, “हे सत्यवतीनंदन, यह विश्व की सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसका कथानक अनुपम है, इस कथा के चरित्र अद्वितीय हैं। इस कथा के पुरुष पात्र सामर्थ्यवान हैं और सौंदर्यमयी स्त्री पात्र कथा के मुख्य स्तंभ हैं। भारतवर्ष के गौरवमयी इतिहास की यह गाथा युगों तक लोगों का मार्गदर्शन करने का सामर्थ्य रखती है। विश्व में ऐसा काव्य, ऐसी कथा ना लिखी गई है और ना कभी लिखी जाएगी। इस कथा को घर-घर तक, जन-जन तक पहुंचाना ही विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा।”
“भगवन्! वेदों, उपनिषदों, और दर्शनोँ के इस महाग्रंथ की रचना तो मैंने कर दी है किन्तु इसका लेखन करने की पात्रता किसमें है? कौन है जो मेरे इस महाकाव्य को शब्दरूप देने की योग्यता धारण करता है?”
तब ब्रह्माजी ने प्रत्युत्तर में कहा, “मुनिवर, अपने इस काव्य के लेखन के लिए आप गणेश जी का स्मरण कीजिये।”
“काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशः स्मर्यतां मुने।”
महाभारत, आदिपर्व १•७४
क्या आप बता सकते हैं कि महाभारत जैसे विशालकाय ग्रंथ के लेखन के लिए मात्र गणेश जी को ही क्यों उपयुक्त माना गया? क्या आप बता सकते हैं कि कृष्ण द्वैपायन व्यास, और ब्रह्माजी ने इस महान कार्य के लिए गणपति बप्पा को ही क्यों चुना? क्या त्रिलोक में गणपति जी के अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं था जो महाभारत का लेखन कर सके?
इंटरनेट के इस युग में नवोदित लेखकों की और नवीनतम पुस्तकों की बाढ़ सी आ गयी है। लेकिन बाजार में उपलब्ध हर पुस्तक पढ़ने योग्य नहीं होती क्योंकि अधिकांश लेखक स्वयं नहीं जानते कि वह क्या लिख रहे हैं। महाभारत लेकिन के लिए गणेश जी का चुनाव लेखन के इसी पहलु को इंगित करता है। गूढ़ विषयों को लिखने के लिए लेखक का ज्ञानी होना आवश्यक है। दुर्भाग्यवश चकाचौंध युग में ज्ञान से अधिक मार्केटिंग को महत्व दिया जाता है।
वेदव्यास जी ने गणेश स्मरण करते हुए स्तुतिगान किया,
लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक ।
मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च ॥
गणेश जी, आप मेरे इस महाभारत ग्रंथ के लेखक बन जाइए, मैंने इसकी रचना तो कर दी है, अब इसे मूर्त रूप देने के लिए मुझे आपकी सहायता चाहिए।
गणेश जी ने प्रसन्नता से कहा, “मैं इसका लेखनकार्य करने के लिए सज्ज हूँ, किन्तु जब तक मैं लिखूँ तब तक एक क्षण का भी विराम न हो।”
…..….. यदि मे लेखनी क्षणम ।
लिखतो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखकों ह्याहम् ॥
व्यासजी प्रत्युत्तर में बोले, “मुझे आपका यह निबंधन मान्य है, किन्तु मेरा आग्रह है कि आप भी बिना समझे किसी भी प्रसंग का एक अक्षर न लिखें।
महाभारत के आरंभ में ही दो ज्ञानियों के मध्य का यह संवाद पाठकों को भी उनका उत्तरदायित्व बताने का प्रयास करता है। पुस्तकें खरीदने का उद्देश्य संग्रह नहीं, अध्ययन होना चाहिए। विश्व में अरबों पुस्तकें छपती हैं। यदि हर पढ़ने वाला उन पुस्तकों का तत्व समझ ले तो हर कोई ज्ञानी हो जाए। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
आप वर्ष में सौ पुस्तकें भी पढ़ लें, सहस्त्र पन्ने पलट लें पर जब तक साहित्यकार और उसका पाठक कृति के शब्दों में पूर्णरूप से ओतप्रोत न हो जाए, उस रचना का कोई महत्व नहीं होता।
गणेश जी ने “ॐ” का उच्चारण करते हुए तूलिका को धारण किया और इसी संवाद के साथ एक महान ग्रंथ की रचना आरंभ हुई…
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
अद्भुत