अवध में उत्सव की तैयारी हो रही थी। होली को अब बस केवल तीन दिन ही शेष बचे थे। राजा दशरथ जी के महल में विशेष तैयारियांँ चल रही थी। तीनो माताएँ अपनी चारो नववधुओं के साथ पहली बार होली जो मनाने वालीं थी।

प्रभु श्री राम सहित तीनो भईयन की यह विवाह के बाद की पहली होली थी। जब से राम जी ने मिथिला में धनुषभंग कर माता सीता का परिग्रहण किया है तबसे अयोध्या रोज उत्सव मना रही है।

लेकिन इस उत्सव भरे माहौल में भी लक्ष्मण जी का गौरवर्णी मुख किसी वियोगी की तरह मलिन हो गया था। जैसे कोई मणिभुजंग अपनी मणि छिन जाने के पश्चात व्याकुल रहता है कुछ वैसी ही व्याकुलता ने लक्ष्मण जी के मन को ग्रस लिया था।

सिंह के समान मस्तक ऊंचा करके चलने वाले लक्ष्मण जी के पौरुषीय कंधो में थोड़ी सी लचक आ गई थी। न वो किसी उत्सव में भाग लेते और न ही किसी रोगी कि भांति रुचिपूर्वक भोजन करते।

भगवान राम जी भी कई दिनों से लक्ष्मण जी कि इस परिस्थिति को देख रहे थे। राम जी ने लखन जी को अपने पास बुलाते हुए उनके दुःख और व्याकुलता का कारण जानना चाहा।

उन्होंने लक्ष्मण जी से पूछा, “आखिर इस सृष्टि का ऐसा कौन सा दुःख है जिसने अपनी धनुष की एक टंकार से त्रैलोक्य को कच्चे घड़े के समान फोड़ डालने की शक्ति रखने वाले मेरे प्रिय लखन पर अधिकार कर लिया ?” लक्ष्मण जी ने कोई उत्तर नही दिया और वे भ्राताश्री के समक्ष नतमस्तक खड़े रहे।

राम जी ने पुना लक्ष्मण जी से आदेश भाव में उनकी व्याकुलता का कारण पूछा। लक्ष्मण जी अपने प्रभु के आदेश को टाल न सके और बोले, “नाथ जबसे आपका विवाह हुआ है और माता सीता यहाँ आई है तबसे आपकी चरणसेवा का अधिकार उन्हे मिल गया है।

जिन चरणों की सेवा में मुझे परमानन्द की अनुभूति होती थी मैं अब उन चरणों की सेवा से वंचित हो गया हूंँ।” लक्ष्मण जी के नेत्र सजल हो उठे और वे घुटनों के बल प्रभु श्री राम जी के चरणों में बैठ गए।

राम जी लखन का संताप समझ गए और बोले, “क्या सीता ने तुम्हे मेरी चरनसेवा से रोका है ?” लक्ष्मण जी ने उत्तर दिया कि प्रभू माता सीता ने तो मुझे कभी नही रोका लेकिन मैं जब भी शयन के समय आपके कक्ष के समीप ने निकलता हूंँ तो माता सीता स्वयं आपकी चरनसेवा में रत मिलती है।

बिना बुलाए मैं संकोचवश आपके कक्ष में प्रवेश नही करता और आपकी सेवा में निरत माँ की दृष्टि मुझपर पड़ ही नही पाती है। राम जी ने लक्ष्मण की आकुलता को समझते हुए कहा कि यह तो कुल की रीति है लखन इसमें मैं क्या कर सकता हूंँ‌। सीता से उनके इस अधिकार को लेना मेरे लिए असंभव है।

लखन जी की आंँखों में पुना आंँसू ढुलक आए। वह व्यग्रतापूर्वक बोले, “लेकिन प्रभू आपको कोई तो उपाय बताना पड़ेगा। वरना मैं आपकी चरणसेवा के बिना प्राण त्याग दूँगा।” प्रभु समझ गए कि अब तो कोई न कोई उपाय करना ही पड़ेगा। उन्होंने लक्ष्मण जी को समझाते हुए कहा कि चार दिन बाद होली है।

रघुकुल की रीति है कि होली के दिन देवर भाभी के साथ होली खेलते है और उनसे आशीर्वाद स्वरूप जो कुछ भी मांगते है वह उन्हे दिया जाता है। तुम भी उस दिन सीता से जो कुछ मांगोगे तुम्हे मिलेगा। लक्ष्मण जी का शरीर स्मित हो उठा। जैसे कृष्काय रोगी को औषधि और भुजंग को उसकी मणि मिल गई हो।

होली का दिन आ गया। सभी भाईयों ने माताओं और भाभी के चरणों में रंग लगाते हुए उनसे आशीर्वाद मांगा। भरत जी ने मैया सीता से प्रभु श्रीराम जी की भक्ति तो शत्रुघन जी ने प्रभु श्रीराम जी के भक्त यानी भरत जी की सेवकाई को आशीर्वाद स्वरूप मांगा। मैया सीता ने तथास्तु कह दोनो भाइयों को निहाल किया।

अब मैया सीता लखनलाल की ओर बढ़ी। उन्होंने लक्ष्मण जी से भी कुछ मांगने को कहा। लक्ष्मण जी ने मैया से चरणों में गुलाल लगाते हुए उनसे भगवान श्रीराम जी की चरणसेवा मांग ली। रघुकुल की रीति के अनुसार माता सीता के लिए मना करना संभव नहीं था। उन्होंने तथास्तु बोला और इतना बोलते ही वह मूर्छित होकर गिर पड़ी।

त्योहार के दिन अचानक मईया सीता के मूर्छित होने से महल में सन्नाटा छा गया। अवध में उत्सव रुक गया। तुरंत वैद्य को बुलाया गया गया। औषधि पिलाई गई लेकिन माता सीता की मूर्छा दूर न हुई। सारा राजपरिवार माता को घेरकर खड़ा हो गया।

भगवान श्रीराम समझ गए कि सीता से उनके चरणों का वियोग सहा न गया और वह इस कारण मूर्छित हो गई है। अब प्रभू राम को ही इस प्रेम और भक्ति के समर्पण के कारण उपजी समस्या का निवारण करना था।

राम जी ने लक्ष्मण जी को पास बुलाया और उन्हें कुछ समझाया। लखन जी मैया सीता के पास पहुंचे और उनके कान में बोले, “माते मुझे क्षमा करें। जिन चरणों की सेवा किए बिना मैं जीवित नहीं रह सकता भला उन चरणों का त्याग आपके लिए कैसे संभव हो सकता है।

माता प्रभू के बाएंँ चरण की सेवा आप स्वयं करिए किंतु इस दास को प्रभु के दाएंँ चरण की सेवा के सौभाग्य से वंचित मत करिए। यही प्रभु श्री राम जी की भी ईच्छा है।” माता सीता ने लक्ष्मण जी के वचनों को सुनकर अपने नेत्र खोल दिए।

राजमहल में पुन: होली की उमंग छाने लगी। प्रेम और भक्ति दोनो अब संतुष्ट थे। सभी भाई एक दूसरे को रंग में रंगने लगे। बाहर से अबीर और गुलाल से रंगे सब अंदर से प्रेम और भक्ति के रंग से सराबोर थे। अवध उत्सव में डूब गया।

Image credits: vimanica arts

By द्वारिका नाथ पांडेय

लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्नातक छात्र

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बिपिन सिंह
बिपिन सिंह
1 year ago

बहुत सुंदर लेख लिखने के लिए बधाई। एक विशेष त्रुटि के ऊपर मेरा ध्यान गया और सोचा कि आपका ध्यान आकर्षित कर दू, लेख के शुरू में लिखा गया है की होली को बस ३ दिन शेष है पर बीच में श्रीराम और लखन जी के संवाद में लिखा गया है की ४ दिन शेष है। मुझे यह टाइपिंग मिस्टेक लगा इसीलिए सोचा ध्यान दिला दू अतः एक बार फिर से देख लीजिए और अगर संभव हो तो ठीक कर दीजिए।

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